सूतजी कहते हैं - जब भगवान शंकर ने अपना तीसरा नेत्र खोलकर उसकी अग्नि से कामदेव को भस्म कर दिया तो इस त्रिलोक के सभी चराचर जीव डर के मारे कांपने लगे और भयमुक्ति और महादेवजी के क्रोध को शांत कराने के लिए ब्रह्माजी के पास बड़ी आशा के साथ आए। उन्होंने परमपिता को अपने कष्टों और दुखों से अवगत कराया। तब सबकुछ जानकर सृष्टिकर्ता ब्रह्माजी भगवान शंकर के पास पहुंचे। वहां पहुंचकर उन्होंने देखा कि भगवान शंकर का क्रोध सातवें आसमान पर था। वे भयंकर क्रोध की अग्नि में जल रहे थे। तब ब्रह्माजी ने उस धधकती अग्नि को शिवजी की कृपा से अपने हाथ में पकड़ लिया और समुद्र के पास जा पहुंचे।
परमपिता को अपने पास आया देखकर समुद्र ने पुरुष रूप धारण किया और उनके पास आकर बोले - हे विधाता! हे ब्रह्माजी! मैं आपकी क्या सेवा करूं?
यह सुनकर ब्रह्माजी कहने लगे - हे सागर! भगवान शिव शंकर ने अपने तीसरे नेत्र की अग्नि से कामदेव को भस्म कर दिया है। इस क्रोधाग्नि से पूरा संसार जलकर राख हो सकता है। इसी कारण मैं इस क्रोधाग्नि को रोककर आपके पास ले आया हूं । हे सिंधुराज ! मेरी आपसे यह विनम्र प्रार्थना है कि सृष्टि के प्रलयकाल तक आप इसे अपने अंदर धारण कर लें । जब मैं आपसे इसे मुक्त करने के लिए कहूं तभी आप इस शिव-क्रोधाग्नि का त्याग करना। आपको ही इसे भोजन और जल प्रतिदिन देना होगा तथा इसे अपने पास धरोहर के रूप में सुरक्षित रखना होगा।
इस प्रकार ब्रह्मदेव के कहे अनुसार समुद्र ने क्रोधाग्नि को अपने अंदर धारण कर लिया। उसके समुद्र में प्रविष्ट होते समय पवन के साथ बड़े-बड़े आग के गोलों के रूप में क्रोधाग्नि समुद्र के पास धरोहर के रूप में सुरक्षित हो गई। तत्पश्चात ब्रह्मदेव अपने लोक वापिस लौट गए। तब पूरा जगत भयमुक्त होकर पहले की भांति प्रसन्न हो गया।
ऋषियों ने सूतजी से पूछा- हे दयानिधे! आप हमें यह बताइए कि कामदेव के भस्म हो जाने पर पार्वती देवी ने क्या किया? वे अपनी सखियों के साथ कहां गईं?
ऋषियों के यह वचन सुनकर सूतजी बोले - भगवान शंकर के तीसरे नेत्र से उत्पन्न अग्नि ने जब कामदेव को जलाकर भस्म कर दिया तब पूरा आकाश गूंजने लगा। यह दृश्य देखकर देवी पार्वती और उनकी सखियां डरकर अपने घर को चली गईं। वहां पहुंचकर पार्वती जी ने सारा हाल अपने माता-पिता को बताया, जिसे सुनकर उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ। अपनी पुत्री को विह्वल देखकर हिमालय को बहुत दुख हुआ। हिमालय ने पार्वती के आंसुओं को पोछकर कहा- पार्वती! डरो मत और रोओ मत। तब हिमालय ने अपनी पुत्री को अनेकों प्रकार से सांत्वना दी।
'कामदेव को भस्म करने के उपरांत शिवजी वहां से अंतर्धान हो गए। तब शिवजी को वहां न पाकर पार्वती अत्यंत व्याकुल हो गईं। उनकी नींद और चैन जाते रहे। वे दुखी और बेचैन रहने लगीं। उन्हें कहीं भी सुख-शांति का अनुभव नहीं होता था। तब उन्हें अपने रूप के प्रति भी शंका होती थी। पार्वती सोचतीं कि क्यों मैंने अपनी सखियों द्वारा समझाने पर भी कभी ध्यान नहीं दिया।'
'देवी पार्वती सोते-जागते, खाते-पीते, नहाते-धोते, चलते-फिरते और अपनी सखियों के साथ होते हुए भी सिर्फ महादेव जी का ही ध्यान और चिंतन करती थीं। इस प्रकार उनका मन शिवजी के बिछोह की वेदना सहन नहीं कर पा रहा था। वे शारीरिक रूप से अपने पिता के घर और हृदय से भगवान शंकर के पास रहती थीं। शोक में डूबी पार्वती बार-बार मूर्च्छित हो जातीं थीं। इससे गिरिराज हिमालय और उनकी पत्नी मैना बहुत दुखी रहती थीं। वे पार्वती को समझाने का बहुत प्रयास करते थे परंतु पार्वती का ध्यान शिवजी की ओर से जरा भी नहीं हटता था।'
'हे ऋषिगणों! एक दिन देवराज इंद्र की इच्छा से नारदजी घूमते हुए हिमालय पर्वत पर आए। तब शैलराज हिमालय ने उनका बहुत आदर-सत्कार किया और कुशल मंगल पूछा। उनको उत्तम आसन पर बिठाकर हिमालय ने सारा वृत्तांत सुनाया। हिमालय ने बताया कि किस प्रकार पार्वती जी ने महादेवजी की सेवा आरंभ की। इसके बाद अपनी पुत्री के शिव पूजन से लेकर कामदेव के भस्म होने तक की सारी कथा उन्हें सुनाई।'
यह सब सुनकर नारदजी ने गिरिराज हिमालय से कहा कि आप भगवान शिव का भजन करें। तत्पश्चात हिमालय से विदा लेकर देवर्षि एकांत में गुम सुम बैठी देवी पार्वती के पास आ गए। तब उनका हित करने की इच्छा से नारदजी ने उन्हें इस प्रकार सत्य वचन कहे।
देवर्षि ने कहा - हे पार्वती! तुम मेरी बातें ध्यानपूर्वक सुनो। तुम्हारी यह दशा देखकर ही मैं तुमसे यह बात कह रहा हूं। तुमने हिमालय पर्वत पर पधारे महादेवजी की सेवा की, परंतु तुम्हारे मन में कहीं न कहीं अहंकार का वास हो गया था। शिव भक्तवत्सल हैं। वे अपने भक्तों पर सदैव अपनी कृपादृष्टि बनाए रखते हैं। वे विरक्त और महायोगी हैं। तुम्हारे अंदर उत्पन्न हुए अभिमान को तोड़ने के लिए ही सदाशिव ने ऐसा किया है। अतः तुम उन्हें तपस्या द्वारा प्रसन्न करने का प्रयत्न करो। तुम चिरकाल तक उत्तम भक्ति भाव से उनकी तपस्या करो। तुम्हारी तपस्या से प्रसन्न होकर महादेवजी निश्चय ही तुम्हें अपनी सहधर्मिणी बनाना स्वीकार करेंगे यही शिवजी को पति रूप में प्राप्त करने का एकमात्र साधन है।
नारदजी की यह बात सुनकर देवी शिवा हर्षित होते हुए इस प्रकार बोली- हे मुनिश्रेष्ठ! आप सबकुछ जानने वाले तथा इस जगत का उपकार करने वाले हैं। अतः आप शिवजी की आराधना के लिए मुझे कोई मंत्र प्रदान करें।'
'तब उन्होंने पार्वती को पंचाक्षर शिव मंत्र 'ॐ नमः शिवाय' का विधिपूर्वक उपदेश दिया। इसके प्रभाव का वर्णन करते हुए नारदजी ने कहा – यह मंत्र सब मंत्रों का राजा है और सभी कामनाओं को पूरा करने वाला है। यह मंत्र भगवान शिव को बहुत प्रिय है। यह साधक को भोग और मोक्ष प्रदान करने वाला है। इस पंचाक्षर मंत्र का विधिपूर्वक व नियमपूर्वक जाप करने से शिवजी के साक्षात दर्शन होते हैं।'
'देवी! इस मंत्र का विधिपूर्वक जाप करने से तुम्हारे आराध्य देव करुणानिधान भगवान शिव शीघ्र ही तुम्हारे समक्ष प्रकट हो जाएंगे। अतः तुम शुद्ध हृदय से शिवजी के चरणों का चिंतन करती हुई इस महामंत्र का जाप करो। इससे तुम्हारे आराध्य देव संतुष्ट होकर तुम्हें दर्शन देंगे। अब देवी पार्वती तुम इस मंत्र को जपते हुए शिवजी की तपस्या करो। इससे महादेव जी वश में हो जाते हैं। उत्तम भाव से की गई तपस्या से ही मनोवांछित फलों की प्राप्ति होती है।'
'तत्पश्चात देवर्षि नारद स्वर्गलोक को चले गए। उनकी बात सुनकर देवी पार्वती बहुत प्रसन्न हुई।
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