भाग-२५(25) विश्वामित्र के यज्ञ की आहुति को देवताओं द्वारा ठुकराना तथा क्रोधित मुनि का माता गायत्री को शाप देना

 


सूतजी कहते हैं - हे मुनियों! ब्रह्मर्षि वशिष्ठ के ज्येष्ठ पुत्र शक्ति से शाप मिलने और राजा से त्रिशंकु बनने के बाद सत्यव्रत अपने आप को घोर अपमानित और तिरस्कृत समझने लगा। वह अपने किये पर लज्जित था। मन ही मन वह सोच रहा था कि उसने अपने झूठे हठ के कारण ऐसी दुर्दशा पाई है। जिसे अयोध्या का महान प्रजानायक कहा जाता है, जिसने अपने सम्पूर्ण जीवन में पुण्य ही पुण्य कमाए, वह आज अपने द्वारा किये हठ का दंड भोग रहा है। मैंने तीन पाप किये पहला ऋषि वशिष्ठ कि सलाह नहीं मानी, दूसरा ऋषि पुत्र को प्रलोभन दिया एवं तीसरा यह सब करने के बाद भी उनसे क्षमा नहीं मांगी। इन्ही तीन पापों के कारण आज मैं त्रिशंकु बन गया हूँ। 

'मेरा सारा ऐश्वर्या नष्ट हो गया। कौन करेगा मेरा उद्धार? मैं किसे पुकारूँ? यह सब सोचकर त्रिशंकु अत्यंत विचलित और दुखी था। मार्ग में चलते हुए अचानक उसकी दृष्टि राजा से राजर्षि बने विश्वामित्र पर पड़ी। उस समय राजर्षि विश्वामित्र ध्यान मुद्रा में थे। त्रिशंकु ने उन्हें पहचान लिया। उन्हें देखकर त्रिशंकु को आशा कि किरण दिखाई दी। उसे पूर्ण विश्वास हो गया कि माता गायत्री का आविष्कार करने वाले महर्षि विश्वामित्र उसकी सहायता अवश्य करेंगे क्योंकि वह विश्व के मित्र हैं।' 

थोड़ी देर बाद विश्वामित्र ध्यान से उठे तब त्रिशंकु उनके चरणों में गिरकर रोने लगा। उसे इस प्रकार बिलखता देख विश्वामित्र ने उन्हें उठाया। जैसे ही महर्षि कि दृष्टि उस पर पड़ी तो उन्होंने त्रिशंकु को पहचान लिया और बोले - आप तो अयोध्या नरेश महाराज सत्यव्रत हैं। आपकी ऐसी दुर्दशा कैसे हुई? 

त्रिशंकु ने उत्तर दिया - मेरी यह दुर्दशा ब्रह्मर्षि वशिष्ठ के पुत्र शक्ति के शाप के कारण हुई है। यह सुनकर विश्वामित्र अचंभित हुए और शाप का कारण जानना चाहा। त्रिशंकु ने सोचा कहीं सत्य जानकर यह भी मुझे शाप न दे डाले इसलिए उसने कहा - पहले आप मुझे मेरी सहायता का वचन दीजिये तभी मैं आपको सब कुछ बताऊंगा। 

तब महर्षि को ध्यान आया कि उनका वैर तो ब्रह्मर्षि वशिष्ठ से पहले ही चल रहा है कदाचित उनसे प्रतिशोध लेने का यही उचित अवसर है। ऐसा सोचकर महर्षि ने कहा - यह जाने बिना कि वशिष्ठ आपके कुलगुरु हैं फिर भी ऋषिपुत्र ने आपको शाप क्यों दिया मैं संसार को गायत्री मंत्र देने वाला विश्वामित्र तुम्हे तुम्हारी सहायता का वचन देता हूँ। विश्वामित्र से वचन लेने के बाद वह राजा से त्रिशंकु कैसे बना सब कुछ बता दिया। 

विश्वामित्र ने कहा - इसमें आपने कौनसा अपराध किया है? जब ब्रह्मर्षि स्वयं स-शरीर बिना रोकटोक के स्वर्ग जा सकते हैं, मेरी बहन सत्यवती और बहनोई ऋषिक भी स-शरीर स्वर्ग चले गए तो भला तुमसे वशिष्ठ को क्या आपत्ति थी? मुझे तो लगता है उन्हें अपने ब्रह्मर्षि होने का घमंड हो गया है। वे अपने अतिरिक्त किसी का उत्थान नहीं देख सकते। इसी कारण मेरा और उनका विवाद चला। किन्तु मैं तुम्हे वचन दे चूका हूँ अतः अब किसी भी परिस्थिति में मैं तुम्हे स-शरीर स्वर्ग अवश्य भेजूंगा।

'विश्वामित्र ने अपने वचन का पालन करने के लिए अपने पुत्र तथा अनुयायिओं व शिष्यों को साथ लेकर स्वर्गारोहण यज्ञ प्रारम्भ कर दिया। जब देवराज इन्द्र को यह पता चला तो वे क्रोधित हो गए। उन्होंने स्वर्ग के दरबार में अपने अन्य देवगणो को यह आदेश दिया की विश्वामित्र अपने अहंकार और प्रतिशोध की अग्नि में झुलस रहा है। राजर्षि बनने से उसे लगता है की वह सृष्टि के उस नियम को तोड़ सकता है जो स्वयं परमपिता ने बनाये हैं। उस श्रापित त्रिशंकु को स्वर्ग में स-शरीर प्रवेश नहीं मिलेगा अतः हम सभी देवता किसी भी मूल्य पर हवन की आहुति स्वीकार नहीं करेंगे।' 

इंद्र के आदेश के कारण यज्ञ की अग्नि बुझ गई। यह देखकर विश्वामित्र ने अग्नि देव को पुकारा तथा उनके प्रकट होने पर हवन कुंड से उनके चले जाने का कारण पूछा। तब अग्निदेव ने विनम्र होकर कहा - हे महर्षि! सभी देवताओं ने आपकी आहुति को अस्वीकार करने का निर्णय लिया है तब मैं क्या कर सकता हूँ ? अपनी विवशता बताकर अग्निदेव वहां से अंतर्ध्यान हो गए। विश्वामित्र ने आकाश की और मुख करके सभी देवताओं को ललकारा - यदि तुम सब देवता यह सोचते हो की तुम्हारे आहुति अस्वीकार कर देने से मेरा कार्य निष्फ़ल हो जाएगा तो यह तुम्हारी भूल है, मैं अपने तपोबल की शक्ति से ये आहुति सीधे ही स्वर्ग लोक भेज सकता हूँ। 

इस बार विश्वामित्र ने ऐसा ही किया  किन्तु देवताओं ने स्वर्ग लोक से सीधे आहुति को ठोकर मारकर धरा पर पटक दिया। विश्वामित्र अत्यंत क्रोधित हो गए और उन्होंने देवताओं द्वारा किये इस दुर्व्यवहार को अपना अपमान समझा। यह सब देखकर त्रिशंकु निराश हो गया और उसने आत्मदाह करने का प्रयास किया तभी विश्वामित्र उसे ऐसा करने से रोकते हैं। 

त्रिशंकु कहता है - मेरे कारण आप और देवताओं में वैर बढ़ गया है। मैंने सम्पूर्ण सृष्टि को विपदा में डाल दिया अब मुझे जीवित रहने का कोई अधिकार नहीं मुझे मरना ही होगा। 

विश्वामित्र कहते हैं - यह सिर्फ तुम्हारे ही मान अपमान का प्रश्न नहीं है। यदि तुम ऐसा करोगे तो मेरा तुम्हे दिया वचन अधूरा रहा जाएगा। क्या तुम मुझे जीवन भर इस अपमान के बोझ तले दबाकर रखना चाहते हो? क्या मेरा अपमान जो देवताओं ने किया उसका कोई मूल्य नहीं? मैं तुम्हे स-शरीर स्वर्ग लोक भेजकर ही रहूँगा। मैं माता गायत्री का आवाह्न करूँगा। अब वही हमारी इच्छा को पूर्ण करेंगी। 

विश्वामित्र ने माता गायत्री का ध्यान किया। माता गायत्री प्रकट होती हैं और विश्वामित्र से उसकी इच्छा पूछती हैं। तब विश्वामित्र त्रिशंकु को स-शरीर स्वर्ग भेजने की प्रार्थना करते हैं। माता गायत्री ने कहा - पुत्र! मैं देख पा रही हूँ की इतनी घोर तपस्या करने और राजर्षि बनने के बाद भी तुम्हारा अहंकार तुम पर हावी है। उसने तुम्हारी आत्मा में घर बना लिया है। हे मेरे अविष्कारक! सम्पूर्ण जगत के मित्र अपने द्वारा प्रकट गायत्री मंत्र को मन से उच्चारित करो और अपने इस अहंकार का समूल नाश कर दो। इसी में तुम्हारा कल्याण निहित है। 

विश्वामित्र बोले - इसका अर्थ यह हुआ माता! की आप मुझे त्रिशंकु को स्वर्ग भेजने का वरदान नहीं देंगी। तब माता गायत्री बोली - पुत्र! यह सृष्टि के नियम के विरुद्ध है। स-शरीर स्वर्ग जाने का अधिकार मनुष्यों को नहीं है। जिन पचतत्वों से उसका शरीर बना है वे पंचतत्व इस धरती लोक की संपत्ति है। इसलिए नियमानुसार मनुष्य अपना शरीर बिना त्यागे स्वर्ग नहीं जा सकता। 

माता के वचनों से विश्वामित्र बेहद आहत हुए और उन्होंने गायत्री माता को शाप दिया - आज आपने मेरा विश्वास तोड़ दिया है माता! मैंने आपका आविष्कार किया, आपके कल्याणकारी मंत्र को जन-जन तक पहुँचाया और बदले में आपने मुझे क्या दिया? अतः मैं आपको शाप देता हूँ की आपका यह अमोघ मंत्र इसी क्षण निष्फल हो जाए।

विश्वामित्र के शाप को सुनकर माता ने कहा - पुत्र! यह शाप तुमने मुझे नहीं उन सभी निर्दोष भक्तों को दिया है जो दिन रात इस मंत्र का जाप करते हैं। तुमने सिर्फ अपने प्रतिशोध के लिए यह सब कर दिया किन्तु उन निर्दोष प्राणियों का क्या जिन्हे तुमने अकारण ही इस शाप में धकेल दिया। माता की बातें सुनकर विश्वामित्र को अपनी भूल का ज्ञान हुआ और उन्होंने अपने शाप के प्रभाव को कम करते हुए कहा - माता मैं यह शाप लौटा नहीं सकता किन्तु इसके प्रभाव को कम कर सकता हूँ। जो भी प्राणी पुरे मनोयोग से प्रातःकाल, मध्यकाल तथा सांयकाल की पूजा में तुम्हारे इस मंत्र का ध्यान करेगा उसे इस मंत्र का फल अवश्य प्राप्त होगा। 

इस घटना के बाद विश्वामित्र को एहसास हो गया की अब उसे ही अपने तपोबल का प्रयोग करते हुए त्रिशंकु को स्वर्गलोक भेजना होगा। इसके लिए महर्षि ने अपना आधा तपोबल इसी कार्य में लगा दिया और त्रिशंकु को स-शरीर स्वर्गलोक भेजा। 

इति श्रीमद् राम कथा वंश चरित्र अध्याय-२ का भाग-२५(25) समाप्त !

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