भाग-२५(25) राक्षस वंश का वर्णन - हेति, विद्युत्केश और सुकेश की उत्पत्ति

 


अगस्त्यजी की कही हुई इस बात को सुनकर श्रीरामचन्द्रजी को बड़ा विस्मय हुआ। उन्होंने मन ही मन सोचा, राक्षस कुल की उत्पत्ति तो मुनिवर विश्रवा से ही मानी जाती है। यदि उनसे भी पहले लङ्कापुरी में राक्षस रहते थे तो उनकी उत्पत्ति किस प्रकार हुई थी।

इस प्रकार आश्चर्य होने के अनन्तर सिर हिलाकर श्रीरामचन्द्रजी ने त्रिविध अग्नियों के समान तेजस्वी शरीर वाले अगस्त्यजी की ओर बारम्बार देखा और मुस्कराकर पूछा - भगवन्! कुबेर और रावण से पहले भी यह लङ्कापुरी मांसभक्षी राक्षसों के अधिकार में थी, यह आपके मुख से सुनकर मुझे बड़ा विस्मय हुआ है। हमने तो यही सुन रखा है कि राक्षसों की उत्पत्ति पुलस्त्यजी के कुल से हुई है; किंतु इस समय आपने किसी दूसरे के कुल से भी राक्षसों के प्रादुर्भाव की बात कही है। क्या वे पहले के राक्षस रावण, कुम्भकर्ण, प्रहस्त, विकट तथा रावण पुत्रों से भी बढ़कर बलवान् थे? ब्रह्मन् ! उनका पूर्वज कौन था और उस उत्कट बलशाली पुरुष का नाम क्या था? भगवान् विष्णु ने उन राक्षसों का कौनसा अपराध पाकर किस तरह उन्हें लङ्का से मार भगाया? निष्पाप महर्षे! ये सब बातें आप मुझे विस्तार से बताइये। इनके लिये मेरे मन में बड़ा कौतूहल है। जैसे सूर्यदेव अन्धकार को दूर करते हैं, उसी तरह आप मेरे इस कौतूहल का निवारण कीजिये। 

श्रीरघुनाथजी की वह सुन्दर वाणी पदसंस्कार, वाक्यसंस्कार और अर्थसंस्कार से अलंकृत थी। उसे सुनकर अगस्त्यजी को यह सोचकर विस्मय हुआ कि ये सर्वज्ञ होकर भी मुझसे अनजान की भाँति पूछ रहे हैं। तत्पश्चात् उन्होंने श्रीरामसे कहा - रघुनन्दन! जल से प्रकट हुए कमल से उत्पन्न प्रजापति ब्रह्माजी ने पूर्वकाल में समुद्रगत जल की सृष्टि करके उसकी रक्षा के लिये अनेक प्रकार के जल- -जन्तुओं को उत्पन्न किया। वे जन्तु भूख-प्यास के भय से पीड़ित हो 'अब हम क्या करें, ऐसी बातें करते हुए अपने जन्मदाता ब्रह्माजी के पास विनीत भाव से गये। 

दूसरों को मान देनेवाले रघुवीर ! उन सब को आया देख प्रजापति ने उन्हें वाणी द्वारा सम्बोधित करके हँसते हुए- कहा - 'जल- -जन्तुओ ! तुम यत्नपूर्वक इस जल की रक्षा करो। वे सब जन्तु भूखे-प्यासे थे। उनमें से कुछ ने कहा – 'हम इस जलकी रक्षा करेंगे' और दूसरेने कहा – 'हम इसका यक्षण (पूजन) करेंगे', तब उन भूतों की सृष्टि करनेवाले प्रजापति ने उनसे कहा – तुम में से जिन लोगों ने रक्षा करने की बात कही है, वे राक्षस नाम से प्रसिद्ध हों और जिन्होंने यक्षण (पूजन) करना स्वीकार किया है, वे लोग यक्ष नाम से ही विख्यात हों। इस प्रकार वे जीव राक्षस और यक्ष - इन दो जातियोंमें विभक्त हो गये। 

'उन राक्षसों में हेति और प्रहेति नाम वाले दो भाई थे, जो समस्त राक्षसों के अधिपति थे। शत्रुओं का दमन करने में समर्थ वे दोनों वीर मधु और कैटभ के समान शक्तिशाली थे। उनमें प्रहेति धर्मात्मा था; अत: वह तत्काल तपोवन में जाकर तपस्या करने लगा। परंतु हेति ने विवाह के लिये बड़ा प्रयत्न किया। वह अमेय आत्मबल से सम्पन्न और बड़ा बुद्धिमान् था। उसने स्वयं ही याचना करके काल की कुमारी भगिनी भया के साथ विवाह किया। भया बड़ी भयानक थी।' 

‘राक्षस राज हेति ने भया के गर्भ से एक पुत्र को उत्पन्न किया, जो विद्युत्केश के नाम से प्रसिद्ध था। उसे जन्म देकर हेति पुत्रवानों में श्रेष्ठ समझा जाने लगा। हेति पुत्र विद्युत्केश दीप्तिमान् सूर्य के समान प्रकाशित होता था। वह महातेजस्वी बालक जल में कमल की भाँति दिनो दिन बढ़ने लगा। निशाचर विद्युत्केश जब बढ़कर उत्तम युवावस्था को प्राप्त हुआ, तब उसके पिता राक्षस राज हेति ने अपने पुत्र का ब्याह कर देने का निश्चय किया। राक्षस राज शिरोमणि हेति ने अपने पुत्र को ब्याहने के लिये संध्या की पुत्री का, जो प्रभाव में अपनी माता संध्या के ही समान थी, वरण किया।' 

‘रघुनन्दन! संध्या ने सोचा - कन्या का किसी दूसरे के साथ ब्याह तो अवश्य ही करना पड़ेगा, अत: इसी के साथ क्यों न कर दूँ? यह विचारकर उसने अपनी पुत्री विद्युत्केश को ब्याह दी। संध्या की उस पुत्री को पाकर निशाचर विद्युत्केश उसके साथ उसी तरह रमण करने लगा, जैसे देवराज इन्द्र असुर राज पुलोम पुत्री शची के साथ विहार करते हैं।' 

‘श्रीराम! संध्या की उस पुत्री का नाम सालकंटका था। कुछ काल के पश्चात् उसने विद्युत्केश से उसी तरह गर्भ धारण किया, जैसे मेघों की पंक्ति समुद्र से जल ग्रहण करती है। तदनन्तर उस राक्षसी ने मन्दराचल पर जाकर विद्युत्केश के समान कान्तिमान् बालक को जन्म दिया, मानो गङ्गा ने अग्नि छोड़े हुए भगवान् शिव के तेज: स्वरूप गर्भ (कुमार कार्तिकेय) - को उत्पन्न किया हो। उस नवजात शिशु को वहीं छोड़कर वह विद्युत्केश के साथ रति-क्रीडाके लिये चली गयी।' 

‘अपने पुत्र को भुलाकर सालकंटका पति के साथ रमण करने लगी। उधर उसका छोड़ा हुआ वह नवजात शिशु मेघ की गम्भीर गर्जना के समान शब्द करने लगा। उसके शरीर की कान्ति शरत्काल के सूर्य की भाँति उद्भासित होती थी। माता का छोड़ा हुआ वह शिशु स्वयं ही अपनी मुट्ठी मुँह में डालकर धीरे-धीरे रोने लगा।' 

‘उस समय भगवान् शंकर पार्वतीजी के साथ नंदी पर चढ़कर वायुमार्ग (आकाश) से जा रहे थे। उन्होंने उस बालक के रोने की आवाज सुनी। सुनकर पार्वती सहित शिव ने उस रोते हुए राक्षस कुमार की ओर देखा। उसकी दयनीय अवस्था पर दृष्टिपात करके माता पार्वती के हृदय में करुणा का स्रोत उमड़ उठा और उनकी प्रेरणा से त्रिपुरसूदन भगवान् शिव ने उस राक्षस बालक को उसकी माता की अवस्था के समान ही नौजवान बना दिया।' 

'इतना ही नहीं, पार्वतीजी का प्रिय करने की इच्छा से अविनाशी एवं निर्विकार भगवान् महादेव ने उस बालक को अमर बनाकर उसके रहने के लिये एक आकाशचारी नगराकार विमान दे दिया। राजकुमार ! तत्पश्चात् पार्वतीजी ने भी यह वरदान दिया कि आज से राक्षसियाँ जल्दी ही गर्भ धारण करेंगी: फिर शीघ्र ही उसका प्रसव करेंगी और उनका पैदा किया हुआ बालक तत्काल बढ़कर माता के ही समान अवस्था का हो जाएगा। तभी से समस्त राक्षस जन्म के साथ ही युवा हो जाते हैं।  

'विद्युत्केश का वह पुत्र सुकेश के नाम से प्रसिद्ध हुआ। वह बड़ा बुद्धिमान् था। भगवान् शंकर का वरदान पाने से उसे बड़ा गर्व हुआ और वह उन परमेश्वर के पास से अद्भुत सम्पत्ति एवं आकाशचारी विमान पाकर देवराज इन्द्र की भाँति सर्वत्र अबाध गति से विचरने लगा।' 

इति श्रीमद् राम कथा रावण चरित्र अध्याय-३ का भाग-२५(25) समाप्त !

No comments:

Post a Comment

रामायण: एक परिचय

रामायण संस्कृत के रामायणम् का हिंदी रूपांतरण है जिसका शाब्दिक अर्थ है राम की जीवन यात्रा। रामायण और महाभारत दोनों सनातन संस्कृति के सबसे प्र...