भाग-२४(24) विश्वामित्र द्वारा गायत्री मंत्र की रचना तथा राजा सत्यव्रत को मिला त्रिशंकु बनने का शाप

 


सूतजी कहते हैं - मुनि वशिष्ठजी की चुनौती सुनकर विश्वरथ अपने धनुष की प्रत्यंचा संभालते हैं और विश्वरथ ने एक के बाद एक आग्नेयास्त्र, वरुणास्त्र, रुद्रास्त्र, इन्द्रास्त्र तथा पाशुपतास्त्र एक साथ छोड़ दिया जिन्हें वशिष्ठ जी ने अपने दण्ड तथा योग बल से मार्ग में ही नष्ट कर दिया। इस पर विश्वरथ ने ओर भी अधिक क्रोधित होकर मानवास्त्र, मोहनास्त्र, गान्धर्वास्त्र, जूंभणास्त्र, दारणास्त्र, वज्र, ब्रह्मपाश, कालपाश, वरुणपाश, पिनाक धनुष , दण्डास्त्र, पैशाचास्त्र , क्रौंचास्त्र, धर्मचक्र, कालचक्र, विष्णुचक्र, वायव्यास्त्र, मंथनास्त्र , कंकाल, मूसल, विद्याधर, कालास्त्र आदि सभी अस्त्रों का प्रयोग कर डाला। किन्तु ब्रह्मर्षि के आगे सभी विफल थे। 

अपनी पराजय देखकर विश्वरथ को क्रोध आया ओर उसने वशिष्ठ जी से कहा - अपने ब्रह्मर्षि होने का घमंड मत करो मैं जान गया हूँ की तुम्हे पराजित करने के लिए मुझे राजर्षि से ब्रह्मर्षि बनना आवश्यक है ओर मैं तुम्हे ब्रह्मर्षि बनकर दिखाऊंगा। वशिष्ठजी ने कहा - ब्रह्मर्षि बनने के लिए तुम्हारे अंदर सारे गुण हैं किन्तु अहंकार का नाश इसमें बाधा बन रहा है। जिस प्रतिशोध की अग्नि में तुम झुलस रहे हो पहले उसका त्याग करो फिर तुम स्वतः ही ब्रह्मर्षि बन जाओगे। इसके पश्चात् विश्वरथ वहां से चले गए ओर पुनः कठोर तपस्या करने लगे। 

विश्वरथ ने कई वर्षों तक कठोर तप किया उनके तप से समस्त ब्रह्माण्ड डोलने लगा। तप के दौरान उनसे गायत्री मंत्र निकलने लगा। इस प्रकार गायत्री मंत्र के प्रभाव से समस्त देवताओं की शक्ति, माता पार्वती, माता लक्ष्मी, तथा माता सरस्वती का सम्मिलित रूप धारण किये जगद्जननी माता गायत्री ने विश्वरथ को दर्शन दिए। माता के दर्शन कर विश्वरथ हर्षोल्लाष से परिपूर्ण उनके चरणों में गिर पड़े ओर माता गायत्री का ध्यान मंत्र उच्चारित किया:

मुक्ता-विद्रुम-हेम-नील धवलच्छायैर्मुखस्त्रीक्षणै-र्युक्तामिन्दु-निबद्ध-रत्नमुकुटां तत्त्वार्थवर्णात्मिकाम्‌।

गायत्रीं वरदा-ऽभयः-ड्कुश-कशाः शुभ्रं कपालं गुण शंख, चक्रमथारविन्दुयुगलं हस्तैर्वहन्तीं भजे॥

अर्थात 

चेहरे पर मोती-मूंगा-सोना-नीली सफेद छाया-वह चंद्रमा से सुसज्जित रत्नों के मुकुट से सुशोभित है और सत्य के रंगों का अवतार है। गायत्री वरदान, अभय, दकुशा, काश, श्वेत कपाल और सद्गुण प्रदान करने वाली है। मैं उनकी पूजा करता हूं जो अपने हाथों में शंख, चक्र और बिंदी का जोड़ा रखती हैं। 

माता गायत्री ने प्रसन्न मुद्रा में कहा - पुत्र ! मैं तुमसे प्रसन्न हूँ। तुम विश्व के ऐसे पहले प्राणी हो जिसने मेरा आवाह्न किया है, तुमने मुझे रचा तो नहीं लेकिन इस धरती पर प्रकट कर दिया है। ध्यान के समय तुम्हारे द्वारा प्रकट किये गए मेरे महामंत्र से सम्पूर्ण विश्व का कल्याण होगा। तुम पहले विश्वरथ थे किन्तु अब तुम विश्व के मित्र बन गए हो जिसने इस विश्व को यह महा प्रतापी मंत्र दिया है अतः सम्पूर्ण जगत अब तुम्हे विश्वामित्र के नाम से जानेगा। 

विश्वामित्र ने हाथ जोड़कर माता से प्रार्थना की - हे माता! आपने मुझ पर बहुत बड़ी कृपा की है, क्या आप अपने इस पुत्र को मांगने पर कुछ देंगी? माता की सहमति पर विश्वामित्र ने उनसे ब्रह्मर्षि होने का वरदान माँगा किन्तु माता ने कहा - जो मैं तुम्हे इस समय दे सकती थी वह पहले ही दे चुकी, ब्रह्मर्षि बनने के लिए तुम्हे अपने अहंकार और प्रतिशोध का नाश करना ही होगा तभी परमपिता ब्रह्माजी तुम्हे इच्छित वर प्रदान करेंगे। तुम्हारा कल्याण हो यही आशीर्वाद मैं तुम्हे प्रदान करती हूँ। इस तरह माता गायत्री अंतर्ध्यान हो गयी। 

सूतजी बोले - इक्ष्वाकु वंश में राजा त्रिबन्धन के पुत्र हुए जिनका नाम सत्यव्रत था। सत्यव्रत अपने नाम के ही अनुरूप सत्यवादी और धर्म परायण राजा थे। उनके राज्य में प्रजा अत्यंत सुखी थी। चहुँ ओर शांति ही शांति थी। सम्पूर्ण अयोध्या राज्य अपने राजा का गुणगान करते नहीं थकता था। राज कार्य सँभालते हुए सत्यव्रत अब वृद्ध हो चले थे। अपनी आयु को देखकर उन्होंने वानप्रस्थ जाने का निर्णय किया। इस हेतु उन्होंने अपने कुल गुरु ब्रह्मर्षि वशिष्ठ को बुलावा भेजा की वे दरबार में उपस्थित होकर अपने नए राजा का राजतिलक करे। 

'राजा के बुलावे पर वशिष्ठ जी राज दरबार में अपने अनुयायिओं सहित पहुँच गए। पूरा राजदरबार सज चूका था क्योंकि आज उनके युवराज का एक राजा के रूप में राजतिलक होने जा रहा था। सभी प्रजा जन अपने नए राजा का स्वागत और वर्तमान राजा को वानप्रस्थ की विदाई देने के लिए आ पहुंचे।' 

राजा सत्यव्रत ने दरबार में घोषणा की - 'मैं अब वृद्ध हो चुके हैं, अब केवल प्रभु भक्ति करना चाहता हूँ।' उन्होंने कुलगुरु कि आज्ञा लेकर अपने पुत्र हरिश्चंद्र को अयोध्या का राजा बना दिया। राजतिलक कि प्रक्रिया पूर्ण होने के बाद राजा हरिश्चंद्र ने अपने पिता सत्यव्रत तथा कुल गुरु वशिष्ठ से आशीर्वाद लिया। राजा हरिश्चंद्र ने सबके सामने प्रतिज्ञा कि - मैं राजा सत्यव्रत का पुत्र हरिश्चंद्र अपने पिता तथा कुल कि कीर्ति को कभी कलंकित नहीं करूँगा, अपने पिता कि भांति कभी भी अपने सत्य वचनों से नहीं हटूंगा। हमेशा सत्य का साथ दूंगा, सत्य के लिए ही जीऊंगा और सत्य के लिए ही मरूंगा। यदि सत्य के लिए मुझे अपने राजसिंहासन, परिवार, पत्नी, यहाँ तक कि अपने पुत्र का भी त्याग करना पड़े तो कर दूंगा। जब तक शरीर में प्राण रहेंगे मेरा एक ही संकल्प होगा 'सत्यमेव जयते'।" अपने पुत्र के इस विश्वास को देखकर राजा सत्यव्रत प्रसन्न थे। 

'तत्पश्चात सत्यव्रत ने वानप्रस्थ के लिए प्रस्थान किया। इस प्रकार कई दिवस बीत गए। एक दिन राजा सत्यव्रत वन में बैठे किसी विचार में खोये हुए थे। उसी समय वन में रहने वाले कुछ वनवासी उन्हें चिंतित देखकर उनके पास पहुंचे तथा उनको प्रणाम कर चिंता का कारण पूछा। राजा सत्यव्रत एक धार्मिक पुरुष थे इसलिए उनकी आत्मा स्वर्ग के योग्य थी परंतु उनकी इच्छा स-शरीर (अर्थात बिना मृत्यु के) स्वर्ग जाने की थी। उनकी इच्छा जानकर वनवासियों ने उन्हें कुलगुरु वशिष्ठ से सहायता मांगने को कहा। सत्यव्रत को लगा कि कुलगुरु ब्रह्मर्षि हैं, उनका तपोबल अपार है वह अवश्य मेरी इच्छा पूर्ण करेंगे।'

इस इच्छा की पूर्ति के लिए उन्होने अपने गुरु ऋषि वशिष्ठ को आवश्यक यज्ञ करने की प्रार्थना की। ऋषि वशिष्ठ ने यज्ञ करने से यह समझाते हुये मना कर दिया कि स-शरीर स्वर्ग प्रवेश प्रकृति के नियम के विरुद्ध है। उन्होंने आगे कहा - हे राजन! आप तो धर्मात्मा कि मूर्ति हैं फिर ऐसी प्रकृति विरुद्ध बात क्यों करते हैं? आप अपना शेष जीवन भगवान कि तपस्या में लगाइये। इसके उपरांत आपको स्वर्ग जाना ही है। 

सत्यव्रत अपने हठ पर अड़े रहे। तब उन्हें ऋषि वशिष्ठ के ज्येष्ठ पुत्र शक्ति का स्मरण हुआ और इच्छा की पूर्ति के लिए शक्ति के पास अपनी याचना लेकर पहुंचे। शक्ति ने पूछा - महाराज! क्या पिताश्री! के कथन आपको समझ नहीं आये? उनके समझाने के उपरांत भी आप अपना हठ क्यों नहीं छोड़ पा रहे हैं। 

सत्यव्रत ने कहा - मेरी स-शरीर स्वर्ग जाने कि इच्छा निराधार नहीं है। जिन पुण्य कर्मों के कारण मै स्वर्ग जाऊंगा वह पुण्य कर्म मेरे शरीर ने मेरी आत्मा के साथ किये हैं, तो फिर केवल आत्मा ही स्वर्ग में क्यों जाए? मेरा शरीर भी इसका अधिकारी है। जब सत्यव्रत को लगा कि शक्ति इस प्रकार नहीं मानने वाले तब उन्होंने ऋषिपुत्र शक्ति को आवश्यक यज्ञ करने के लिए धन एवं प्रसिद्धि का लालच दिया। सत्यव्रत के इस दुस्साहस ने शक्ति को क्रोधित कर दिया और शक्ति ने सत्यव्रत को त्रिशंकु (चांडाल जो अधर में अर्थात आकाश और पृथ्वी के मध्य उल्टा लटका रहे)  होने का श्राप दे दिया। इस प्रकार सत्यव्रत शाप के प्रभाव से एक बुरे वेश वाले अत्यंत दरिद्र चांडाल बन गए। तभी से उनका नाम त्रिशंकु हुआ तथा अब उन्हें वन में भटकने के लिए विवश होना पड़ा।

इति श्रीमद् राम कथा वंश चरित्र अध्याय-२ का भाग-२४(24) समाप्त !

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