भाग-२४(24) विश्रवा से वैश्रवण (कुबेर) की उत्पत्ति, उनकी तपस्या, वरप्राप्ति तथा लङ्का में निवास

 


महामुनि अगस्त्यजी ने कहा - हे रघुनंदन ! धर्म के ज्ञाता मुनिवर विश्रवा ने बड़ी प्रसन्नता के साथ धर्मानुसार भरद्वाज की कन्या इडविडा का पाणिग्रहण किया और प्रजा का हित-चिन्तन करनेवाली बुद्धि के द्वारा लोककल्याण का विचार करते हुए उन्होंने उसके गर्भ से एक अद्भुत और पराक्रमी पुत्र उत्पन्न किया। उसमें सभी ब्राह्मणोचित गुण विद्यमान थे। उसके जन्म से पितामह पुलस्त्य मुनि को बड़ी प्रसन्नता हुई। 

उन्होंने दिव्य दृष्टि से देखा - इस बालक में संसार का कल्याण करने की बुद्धि है तथा यह आगे चलकर धनाध्यक्ष होगा। तब उन्होंने बड़े हर्ष से भरकर देवर्षियों के साथ उसका नामकरण संस्कार किया। वे बोले - विश्रवा का यह पुत्र विश्रवा के ही समान उत्पन्न हुआ है; इसलिये यह वैश्रवण (कुबेर) नाम से विख्यात होगा। 

'कुमार वैश्रवण वहाँ तपोवन में रहकर उस समय आहुति डालने से प्रज्वलित हुई अग्नि के समान बढ़ने लगे और महान् तेज से सम्पन्न हो गये। 

आश्रम में रहने के कारण उन महात्मा वैश्रवण के मन में भी यह विचार उत्पन्न हुआ कि मैं उत्तम धर्म का आचरण करूँ; क्योंकि धर्म ही परमगति है। यह सोचकर उन्होंने तपस्या का निश्चय करने के पश्चात् महान् वन के भीतर सहस्रों वर्षों तक कठोर नियमों से बँधकर बड़ी भारी तपस्या की। 

वे एक-एक सहस्र वर्ष पूर्ण होने पर तपस्या की नयी-नयी विधि ग्रहण करते थे। पहले तो उन्होंने केवल जल का आहार किया। तत्पश्चात् वे हवा पीकर रहने लगे; फिर आगे चलकर उन्होंने उसका भी त्याग कर दिया और वे एकदम निराहार रहने लगे। इस तरह उन्होंने कई सहस्र वर्षों को एक वर्ष के समान बिता दिया। 

तब उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर महातेजस्वी ब्रह्माजी इन्द्र आदि देवताओं के साथ उनके आश्रम पर पधारे और इस प्रकार बोले -  उत्तम व्रत का पालन करनेवाले वत्स! मैं तुम्हारे इस कर्म से–तपस्या से बहुत संतुष्ट हूँ। महामते ! तुम्हारा भला हो। तुम कोई वर माँगो; क्योंकि वर पाने के योग्य हो। अतः यह सुनकर वैश्रवण ने अपने निकट खड़े हुए पितामह से कहा – भगवन्! मेरा विचार लोक की रक्षा करने का है, मैं लोकपाल होना चाहता हूँ। 

वैश्रवण की इस बात से ब्रह्माजी के चित्त को और भी संतोष हुआ। उन्होंने सम्पूर्ण देवताओं के साथ प्रसन्नतापूर्वक कहा - अति उत्तम (बहुत अच्छा)! इसके बाद वे फिर बोले - वत्स ! मैं चौथे लोकपाल की सृष्टि करने के लिये उद्यत था। यम, इन्द्र और वरुण को जो पद प्राप्त है, वैसा ही लोकपाल पद तुम्हें भी प्राप्त होगा, जो तुमको अभीष्ट है। धर्मज्ञ! तुम प्रसन्नतापूर्वक उस पद को ग्रहण करो और अक्षय निधियों के स्वामी कुबेर बनो। इन्द्र, वरुण और यम के साथ तुम चौथे लोकपाल कहलाओगे। यह सूर्यतुल्य तेजस्वी पुष्पक विमान हम तुम्हे प्रदान करते हैं। इसे अपनी सवारी के लिये ग्रहण करो और देवताओं के समान हो जाओ। तात! तुम्हारा कल्याण हो। अब हम सब लोग जैसे आये हैं, वैसे लौट जायेंगे। तुम्हें ये दो वर देकर हम अपने को कृतकृत्य समझते हैं। 

ऐसा कहकर ब्रह्माजी देवताओं के साथ अपने स्थान को चले गये। ब्रह्मा आदि देवताओं के आकाश में चले जाने पर अपने मन को संयम में रखने वाले धनाध्यक्ष कुबेर ने पिता से हाथ जोड़कर कहा - 'भगवन्! मैंने पितामह ब्रह्माजी से मनोवाञ्छित फल प्राप्त किया है। परंतु उन प्रजापतिदेव ने मेरे लिये कोई निवास स्थान नहीं बताया। अतः भगवन्! अब आप ही मेरे रहने के योग्य किसी ऐसे स्थान की खोज कीजिये, जो सभी दृष्टियों से अच्छा हो । प्रभो ! वह स्थान ऐसा होना चाहिये, जहाँ रहने से किसी भी प्राणी को कष्ट न हो। 

अपने पुत्रके ऐसा कहनेपर मुनिवर विश्रवा थोड़ी देर तो मौन और चिंतित रहे फिर वे बोले - 'धर्मज्ञ! साधुशिरोमणे! सुनो जब तुम तपस्या के लिए वन चले गए और कई सहस्र वर्षों तक नहीं आये तब तक बहुत कुछ घटित हुआ। पुत्र! तुम मेरे प्रिय हो इसलिए मैं तुम्हे सब सत्य कहता हूँ। उसे सुनो तथा मेरी चिंता का निवारण करो। 

मुनि अगस्त्यजी बोले - हे रघुनन्दन! इसके उपरांत मुनिवर विश्रवा ने अपने पुत्र कुबेर को बताना प्रारम्भ किया। 

विश्रवा बोले - पुत्र एक समय माता पार्वती अत्यंत गंभीर मुद्रा में कुछ सोचती हुई भगवान शंकर के साथ गगन विहार कर रही थी। प्रभु महादेव जो भी प्रश्न करते उसका उत्तर वह बड़े ही असहज भाव से देती। यह देख कर महादेवजी ने माता से इसका कारण जानना चाहा। 

वे कुछ देर तो मौन रही किन्तु भगवान रूद्र के बार-बार आग्रह करने पर वे बोली - हे विश्वनाथ! हे अखिल ब्रह्माण्ड के आधार ! हे अजन्मा ! परम तपस्वी अजर-अमर भगवन् ! मेरी धृष्टता क्षमा करना। किन्तु आज मैं आपसे अपनी एक पीड़ा का निवारण चाहती हूँ। 

तब भगवान शंकर ने हंसकर कहा - सम्पूर्ण जगत की माता जो सभी की पीड़ा का निवारण करती है वह आज स्वयं पीड़ा से कैसे ग्रसित है और उस पर भी उसका निवारण उपाय नहीं खोज पा रही। देवी ! कहीं आज तुम हमसे कोई विनोद तो नहीं कर रही। 

भगवान शंकर के वचन सुनकर देवी पार्वती ने कहा - हे देव! विनोद तो आपने मुझसे किया है। आपने मुझे जगतमाता कहा किन्तु आप भी तो विश्वनाथ हैं। हे प्रभु ! आप त्रिदेवों में महादेव हैं। जिस समय समुद्र मंथन हुआ तब सभी ने अपने-अपने मनोभाव के अनुसार उसमे से निकली सुन्दर और मूल्यवान वस्तुओं को आपस में बाँट लिया। किन्तु आपने अपने हिस्से में भयंकर हलाहल को चुना। सारे संसार के कष्टों का विवरण करने वाले आप सबसे अलग रहते हैं। देवराज इंद्र अमरावती में, ब्रह्माजी ब्रह्मलोक में, श्रीहरि वैकुण्ठ में निवास करते हैं जिसकी भव्यता का वर्णन कोई नहीं कर सकता। किन्तु आपने ऐसा क्या सोचा जो इन पाषाणों, पर्वतों और श्मशान में भस्म रमाये बड़ी प्रसन्नता से  निवास करते हैं। जिस प्रकार अन्य देवता उत्तम स्थानों पर निवास करते हैं उसी प्रकार आप क्यों नहीं? 

तब भगवान शंकर ने बड़े ही विनम्र भाव से देवी पार्वती को कहा - देवी! तुम जिस भव्यता की बात कर रही हो वह एक तपस्वी के लिए मिथ्या के सिवाय कुछ भी नहीं। तुमने यह सब पहले से ही जान रखा है कि हम वैरागी कि भांति ही रहने वाले हैं और इसके बाद भी मुझे प्राप्त करने के लिए तुमने वह तपस्या की जिसे कोई नहीं कर सकता। अपने पिता के महल में सुख भोगने वाली तुम स्वयं ने ही हमारी अर्धांगिनी बनना स्वीकार किया था। क्या तुम वह सब भूल गयी हो ? 

देवी पार्वती बोली - हे देव ! मुझे सब स्मरण है। आपकी अर्धांगिनी होने का गौरव मुझे मिला मैं स्वयं को सर्वदा भाग्यवंती मानती हूँ। किन्तु इसका अर्थ यह तो नहीं कि मैं आपसे कुछ माँगने का अधिकार भी न रख सकूँ। हे त्रिपुरारी ! समस्त संसार को मनोवांछित वर देने वाले आप मुझे भी यह वर दे कि मैं आपके साथ स्वयं के बने भव्य महल में निवास कर सकूँ। 

महादेव देवी पार्वती से कहते हैं - हे भवानी ! तुम तो शक्ति स्वरूपा हो फिर भी तुम्हारे मन में इच्छा का विकार प्रकट होना इस बात का संकेत करता है कि सतयुग के बाद प्रारम्भ होने वाले इस त्रेता युग में अवश्य ही तुम्हारी इस लीला में कोई गूढ़ रहस्य छिपा हुआ है। जिस प्रकार सतयुग में मनुष्य कोई कामना नहीं रखते उसी प्रकार अब इसके उलट होगा। प्राणी अपनी इच्छाओं की पूर्ति को पूर्ण करने के लिए न जाने कौन-कौन सी विधियां अपनाएगा फिर चाहे उनका परिणाम अच्छा हो या बुरा। 

विश्रवा बोले - हे पुत्र! इस प्रकार महादेव जी ने देवी पार्वती को कई प्रकार से समझाना चाहा किन्तु उनके हठ के कारण देवादिदेव ने उनकी इच्छा को पूर्ण करने के लिए देव-शिल्पी विश्वकर्मा तथा दानव शिल्पी मय को आमंत्रित किया और उन्हें आज्ञा दी कि वे माता पार्वती के कहे अनुसार एक ऐसी भव्य नगरी और सुन्दर महल का निर्माण करे जो पुरे त्रिभुवन में कही नहीं हो। 

'इसके उपरांत विश्वकर्मा और मय ने दक्षिण समुद्र के तट पर एक त्रिकूट नामक पर्वत है। उसे चुना जो पृथ्वी लोक पर अत्यंत रमणीय स्थान है। उन दोनों ने मिलकर उसके शिखर पर एक विशाल पुरी का निर्माण किया। जो देवराज इन्द्र की अमरावती पुरी के समान शोभा पाती है। उसका नाम लङ्का है। उसके चारों ओर चौड़ी खाइयाँ खुदी हुई हैं और वह अनेकानेक यन्त्रों तथा शस्त्रों से सुरक्षित है। वह पुरी बड़ी ही रमणीय है। उसके फाटक सोने और नीलम के बने हुए हैं। उसकी चारदीवारी सोने की बनी हुई है।

'उसकी शोभा देखकर देवी पार्वती को बहुत प्रसन्नता हुई। तब महादेव ने गृह प्रवेश के लिए एक पुरोहित के रूप में मुझे चुना और नारदजी को मुझे निमंत्रित करने के लिए मेरे पास भेजा। यह जानकर की स्वयं त्रिलोकीनाथ ने अपने नए महल के गृह प्रवेश के लिए मुझे चुना है मैं बेहद प्रसन्न  हुआ और अपने साथ अन्य सहायकों को लेकर उस भव्य लंका नगरी में पहुंचा।'

'वहां समस्त देवता, ब्रह्माजी, श्रीहरि, लोकपाल, दिक्पाल, सप्तऋषि गण आदि अनेक गणमान्य उपस्थित हुए। मैंने स्वयं अपने हाथों से पवित्र यज्ञ किया और महादेव तथा माता पार्वती का गृह प्रवेश भी करवाया। इसके उपरांत महल में बने भव्य राजसिंहासन पर दोनों को विराजित करवाया। इस सब से मैं बहुत प्रसन्न था। अंत में जो हुआ मैंने उसकी कल्पना नहीं की थी। अपना भाग्य बटोरते-बटोरते मैंने दुर्भाग्य बटोर लिया। महल की चमक ने मेरी बुद्धि को भ्रमित कर दिया। कदाचित यह भगवान् शिव की ही लीला थी जिसने मुझसे ऐसा करवा दिया जो नहीं होना चाहिए था।'

'जब दक्षिणा लेने का समय आया तो मैं मूढ़ होनहार वश उस लंका नगरी को ही मांग बैठा। तब महादेव ने बिना विलम्ब किये लंका नगरी मुझे प्रदान कर दी। यह देखकर माता पार्वती अत्यंत क्रोधित हुई। उन्हें क्रोध में देखकर मैं बहुत डर गया।'

माता ने मुझे शाप दिया - अरे मूढ़ विश्रवा! तुझे भगवान् शिव ने इतना सम्मान दिया और तूने उनकी उदारता का लाभ उठाकर लालसा के विवश होकर मेरी प्रिय लंका को मांग बैठा। यदि तू ब्राह्मण नहीं होता तो मेरे क्रोध की अग्नि तुझे जलाकर भस्म कर डालती। किन्तु मैं तुझे कभी क्षमा नहीं करुँगी। मैं तुझे शाप देती हूँ कि इस लंका नगरी में रहने वाले तेरे सम्पूर्ण वंश का नाश हो जाएगा। महादेव का ही एक अंश इस लंका नगर को भस्म करेगा।'

'इस तरह भयंकर शाप देकर महादेव और माता पार्वती सहित सभी वहां से चले गए। मैंने भी भय के मारे उस लंका को छोड़ दिया। उसके बाद उस लंका को सुना पाकर राक्षसों ने उस पर अधिकार कर लिया। पूर्वकाल देवासुर संग्राम में भगवान् विष्णु के भय से पीड़ित हुए राक्षसों ने उस पुरी को त्याग दिया था। पुत्र! तुम्हारा कल्याण हो। तुम निःसंदेह उस लङ्कापुरीमें ही जाकर रहो। क्योंकि माता के शाप को वरदान में परिवर्तित करने की शक्ति तुम्हारे अंदर समाहित है। ऐसा मेरा विश्वास है। तुम महादेव के प्रिय मित्र भी हो तथा भक्त भी तथा अब तुम देवतुल्य लोकपाल बन गए हो।'

मुनि अगस्त्य बोले - हे रघुनन्दन ! अपने पिता की बाते सुनकर वैश्रवण कुबेर ने कहा - पिताश्री! आप किसी प्रकार कि चिंता नहीं करें। मैं परम आदरणीय महान तेजस्वी ब्रह्मर्षि पुलस्त्य का पौत्र हूँ। आप दोनों के आशीर्वाद से वह शापित लंका नगरी अवश्य ही पवित्र हो जाएगी।       

तब विश्रवा बोले - पुत्र! वे समस्त राक्षस रसातल को चले गये थे, इसलिये लङ्कापुरी सूनी हो गयी। इस समय भी लङ्कापुरी सूनी ही है, उसका कोई स्वामी नहीं है। अत: वत्स! तुम वहाँ निवास करने के लिये सुखपूर्वक जाओ। वहाँ रहने में किसी प्रकार का दोष या खटका नहीं है। वहाँ किसी की ओर से कोई विघ्न-बाधा नहीं आ सकती।' 

मुनि अगस्त्य बोले - हे परम सुजान श्रीराम ! अपने पिता के धर्मयुक्त वचन को सुनकर धर्मात्मा वैश्रवण कुबेर ने त्रिकूट पर्वत के शिखर पर बनी हुई लङ्कापुरी में निवास किया। उनके निवास करने पर थोड़े ही दिनों में वह पुरी सहस्रों यक्षों से भर गयी। उनकी आज्ञा से वे यक्ष वहाँ आकर आनन्दपूर्वक रहने लगे। समुद्र जिसके लिये खाई का काम देता था, उस लङ्कानगरी में विश्रवा के धर्मात्मा पुत्र वैश्रवण कुबेर यक्षों के राजा हो बड़ी प्रसन्नता के साथ निवास करने लगे। 

'धर्मात्मा धनेश्वर समय- समय पर पुष्पकविमान के द्वारा आकर अपने माता- पिता से मिल जाया करते थे। उनका हृदय बड़ा ही विनीत था। देवता और गन्धर्व उनकी स्तुति करते थे। उनका भव्य भवन अप्सराओं के नृत्य से सुशोभित होता था। वे धनपति कुबेर अपनी किरणों से प्रकाशित होने वाले सूर्य की भाँति सब ओर प्रकाश बिखेरते हुए अपने पिता के समीप गये। 

इति श्रीमद् राम कथा रावण चरित्र अध्याय-३ का भाग-२४(24) समाप्त !

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