महात्मा रघुनाथजी का वह प्रश्न सुनकर महातेजस्वी कुम्भयोनि अगस्त्य ने उनसे इस प्रकार कहा - श्रीराम ! इन्द्रजीत महान् बल और तेज के उद्देश्य से जो वृत्तान्त घटित हुआ है, उसे बताता हूँ, सुनो। जिस बल के कारण वह तो शत्रुओं को मार गिराता था, परंतु स्वयं किसी शत्रु के हाथ से मारा नहीं जाता था; उसका परिचय दे रहा हूँ। रघुनन्दन! इस प्रस्तुत विषय का वर्णन करने के लिये मैं पहले आपको रावण के कुल, जन्म तथा वरदान - प्राप्ति आदि का प्रसङ्ग सुनाता हूँ।
'श्रीराम! प्राचीन काल - सत्ययुग की बात है, प्रजापति ब्रह्माजी के एक प्रभावशाली पुत्र हुए, जो ब्रह्मर्षि पुलस्त्य के नाम से प्रसिद्ध हैं। वे साक्षात् ब्रह्माजी के समान ही तेजस्वी हैं। उनके गुण, धर्म और शील का पूरा-पूरा वर्णन नहीं किया जा सकता। उनका इतना ही परिचय देना पर्याप्त होगा कि वे प्रजापति के पुत्र हैं। प्रजापति ब्रह्मा के पुत्र होने के कारण ही देवता लोग उनसे बहुत प्रेम करते हैं। वे बड़े बुद्धिमान् हैं और अपने उज्ज्वल गुणों के कारण ही सब लोगों के प्रिय हैं।'
‘एक बार मुनिवर पुलस्त्य धर्माचरण के प्रसङ्ग से महागिरि मेरु के निकटवर्ती राजर्षि तृणबिन्दु के आश्रम में गये और वहीं रहने लगे। उनका मन सदा धर्म में ही लगा रहता था। वे इन्द्रियों को संयम में रखते हुए प्रतिदिन वेदों का स्वाध्याय करते और तपस्या में लगे रहते थे। परंतु कुछ कन्याएँ उनके आश्रम में जाकर उनकी तपस्या में विघ्न डालने लगीं। ऋषियों, नागों तथा राजर्षियों की कन्याएँ और जो अप्सराएँ हैं, वे भी प्राय: क्रीडा करती हुई उनके आश्रम की ओर आ जाती थीं।'
'वहाँ का वन सभी ऋतुओं में उपभोग में लाने के योग्य और रमणीय था, इसलिये वे कन्याएँ प्रतिदिन उस प्रदेश में जाकर भाँति-भाँति की क्रीडाएँ करती थीं। जहाँ ब्रह्मर्षि पुलस्त्य रहते थे, वह स्थान तो और भी रमणीय था; इसलिये वे सती-साध्वी कन्याएँ प्रतिदिन वहाँ आकर गाती, बजाती तथा नाचती थीं। इस प्रकार उन तपस्वी मुनि के तप में विघ्न डाला करती थीं।
इससे वे महातेजस्वी महामुनि पुलस्त्य कुछ रुष्ट हो गये और बोले - कलसे जो कन्या यहाँ मेरे दृष्टिपथ में आयेगी, वह निश्चय ही गर्भ धारण कर लेगी। उन महात्मा की यह बात सुनकर वे सब कन्याएँ ब्रह्मशाप के भय से डर गयीं और उन्होंने उस स्थान पर आना छोड़ दिया। परंतु राजर्षि तृणबिन्दु की कन्या हविर्भूवा ने इस शाप को नहीं सुना था; इसलिये वह दूसरे दिन भी बेखटके आकर उस आश्रम में विचरने लगी। वहाँ उसने अपनी किसी सखी को आयी हुई नहीं देखा। उस समय प्रजापति के पुत्र महातेजस्वी महर्षि पुलस्त्य अपनी तपस्या से प्रकाशित हो वहाँ वेदों का स्वाध्याय कर रहे थे।
'उस वेदध्वनि को सुनकर वह कन्या उसी ओर गयी और उसने तपोनिधि पुलस्त्यजी का दर्शन किया। महर्षि की दृष्टि पड़ते ही उसके शरीर पर पीलापन छा गया और गर्भ के लक्षण प्रकट हो गये। अपने शरीर में यह दोष देखकर वह घबरा उठी और 'मुझे यह क्या हो गया?" इस प्रकार चिन्ता करती हुई पिता के आश्रम पर जाकर खड़ी हुई।'
अपनी कन्या को उस अवस्था में देखकर तृणबिन्दु ने पूछा - तुम्हारे शरीर की ऐसी अवस्था कैसे हुई? तुम अपने शरीर को जिस रूप में धारण कर रही हो, यह तुम्हारे लिये सर्वथा अयोग्य एवं अनुचित है।
वह बेचारी कन्या हाथ जोड़कर उन तपोधन मुनि से बोली - पिताजी! मैं उस कारण को नहीं समझ पाती, जिससे मेरा रूप ऐसा हो गया है। अभी थोड़ी देर पहले मैं पवित्र अन्तःकरण वाले महर्षि पुलस्त्य के दिव्य आश्रम पर अपनी सखियों को खोजने के लिये अकेली गयी थी। वहाँ देखती हूँ तो कोई भी सखी उपस्थित नहीं है। साथ ही मेरा रूप पहले से विपरीत अवस्था में पहुँच गया है; यह सब देखकर मैं भयभीत हो यहाँ आ गयी हूँ।'
राजर्षि तृणबिन्दु अपनी तपस्या से प्रकाशमान थे। उन्होंने ध्यान लगाकर देखा तो ज्ञात हुआ कि यह सब कुछ महर्षि पुलस्त्य के ही करने से हुआ है। उन पवित्रात्मा महर्षि के उस शाप को जानकर वे अपनी पुत्री को साथ लिये पुलस्त्यजी के पास गये और इस प्रकार बोले - भगवन्! मेरी यह कन्या अपने गुणों से ही विभूषित है। महर्षे! आप इसे स्वयं प्राप्त हुई भिक्षा के रूपमें ग्रहण कर लें। आप तपस्या में लगे रहने के कारण थक जाते होंगे; अत: यह सदा साथ रहकर आपकी सेवा-शुश्रूषा किया करेगी, इसमें संशय नहीं है।
ऐसी बात कहते हुए उन धर्मात्मा राजर्षि को देखकर उनकी कन्या को ग्रहण करने की इच्छा से उन ब्रह्मर्षि ने कहा - बहुत अच्छा ! तब उन महर्षि को अपनी कन्या देकर राजर्षि तृणबिन्दु अपने आश्रम पर लौट आये और वह कन्या अपने गुणों से पति को संतुष्ट करती हुई वहीं रहने लगी।
उसके शील और सदाचार से वे महातेजस्वी मुनिवर पुलस्त्य बहुत संतुष्ट हुए और प्रसन्नतापूर्वक यों बोले - सुन्दरी ! मैं तुम्हारे गुणों के वैभव से अत्यन्त प्रसन्न हूँ। देवी ! इसीलिये आज मैं तुम्हें अपने समान पुत्र प्रदान करता हूँ, जो माता और पिता दोनों के कुल की प्रतिष्ठा बढ़ायेगा और पौलस्त्य नामसे विख्यात होगा। देवी! मैं यहाँ वेद का स्वाध्याय कर रहा था, उस समय तुमने आकर उसका विशेष रूप से श्रवण किया, इसलिये तुम्हारा वह पुत्र विश्रवा या विश्रवण कहलायेगा; इसमें संशय नहीं है।
पति के प्रसन्नचित्त होकर ऐसी बात कहने पर उस देवी ने बड़े हर्ष के साथ थोड़े ही समय में विश्रवा नामक पुत्र को जन्म दिया, जो यश और धर्म से सम्पन्न होकर तीनों लोकों में विख्यात हुआ। विश्रवा मुनि वेद विद्वान्, समदर्शी, व्रत और आचार का पालन करनेवाले तथा पिता के समान ही तपस्वी हुए।
पुलस्त्य के पुत्र मुनिवर विश्रवा थोड़े ही समय में पिता की भाँति तपस्या में संलग्न हो गये। वे सत्यवादी, शीलवान्, जितेन्द्रिय, स्वाध्यायपरायण, बाहर-भीतर से पवित्र, सम्पूर्ण भोगों में अनासक्त तथा सदा ही धर्म में तत्पर रहनेवाले थे।
विश्रवा के इस उत्तम आचरण को जानकर महामुनि भरद्वाज ने अपनी कन्या इडविडा का, जो देवाङ्गना के समान सुन्दरी थी, उनके साथ विवाह कर दिया।
इति श्रीमद् राम कथा रावण चरित्र अध्याय-३ का भाग-२३(23) समाप्त !
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