सूतजी कहते हैं - ऋषियों! विश्वरथ के पिता गाधि ने अपनी आयु को ज्यादा देखकर वानप्रस्थ जाने का निर्णय किया और अपने पुत्र विश्वरथ का राजतिलक कर दिया । वह खुद वानप्रस्थ को चले गए । उसके बाद विश्वरथ ने बहुत अच्छे से राज काज को सम्भाला उनकी प्रजा भी बहुत प्रसन्न थी। एक समय वह अपनी पत्नी दृषद्वती के साथ सरक पासा खेल रहे थे। उस खेल में उनकी पत्नी की विजय होने पर उनकी पत्नी हंसने लगी। विश्वरथ जी को यह अच्छा नही लगा तो गुस्से के कारण सरक पासो को तुरंत तोड़ कर फेंक दिया।
'पत्नी ने उनके इस प्रकार क्रोधित होने का कारण जानना चाहा तब विश्वरथ ने कहा मुझे हार सहन नहीं होती चाहे वह क्रीड़ा (खेल) हो अथवा युद्ध। वह अपने राजदरबार में गए वहां उनकी राज्य सभा के मंत्री तथा अन्य दरबारी जयकार करने लगे। अपनी जयकार सुनकर विश्वरथ ने उन सभी से एक प्रश्न किया कि मेरी जयकार किस लिए की जा रही है? जब के अभी तक मेरे द्वारा कोई भी जयकार करने वाला कार्य नही किया गया है।'
'उसी समय उन्होंने आदेश दिया कि अपने राज्य के जितने भी अठारह से पचास वर्ष तक की आयु के पुरुष नागरिक हैं वे सभी सेना के साथ युद्ध के लिए मेरे साथ चले। मैं अपने राज्य का विस्तार करने का निर्णय कर चुका हूं। अब सभी अठारह से पचास वर्ष तक की आयु के पुरुष नागरिक सैनिकों के साथ युद्ध मे चले गए। विश्वरथ बारह वर्ष तक अपने राज्य का विस्तार करते रहे। जिस राजा ने आत्मसमर्पण किया तो ठीक नही तो युद्ध द्वारा जीत कर बहुत से राजाओं के राज्य अपने अधीन कर लिए।'
'फिर वह अपने राज्य की तरफ वापिस आते समय श्री वशिष्ठ ऋषि के आश्रम के नजदिक में सेना सहित शिविर डालकर रुके। ब्रह्मर्षि वशिष्ठ के शिष्यों ने ऋषिवर को सूचना दी की राजा विश्वरथ अपने आश्रम के नजदिक में शिविर डालकर रुके हैं और उनके साथ बहुत बड़ी सेना भी आकर रूकी है। ब्रह्मर्षि ने अपने शिष्यों को आज्ञा दी की विश्वरथ को आतिथ्य ग्रहण के लिए बुलाये। विश्वरथ ने यह निमंत्रण ग्रहण किया। राजा विश्वरथ सेना सहित आश्रम में पहुंचते हैं तथा ब्रह्मर्षि वशिष्ठ को प्रणाम करके वहीं बैठ गये।
'वशिष्ठ जी ने विश्वामित्र जी का यथोचित आदर सत्कार किया और उनसे कुछ दिन आश्रम में ही रह कर आतिथ्य ग्रहण करने का अनुरोध किया। इस पर यह विचार करके कि मेरे साथ विशाल सेना है और सेना सहित मेरा आतिथ्य करने में वशिष्ठ जी को कष्ट होगा, विश्वरथ ने नम्रतापूर्वक अपने जाने की अनुमति माँगी किन्तु वशिष्ठ जी के अत्यधिक अनुरोध करने पर थोड़े दिनों के लिये उनका आतिथ्य स्वीकार कर लिया।'
'वशिष्ठ जी ने नंदिनी गौ का आह्वान करके विश्वरथ तथा उनकी सेना के लिये छः प्रकार के व्यंजन तथा समस्त प्रकार के सुख सुविधा की व्यवस्था करवाई। वशिष्ठ जी के आतिथ्य से विश्वरथ और उनके साथ आये सभी लोग बहुत प्रसन्न हुये। नंदिनी गौ का चमत्कार देखकर राजा विश्वरथ अचंभित थे क्योंकि आज से पहले उन्होंने ऐसी चमत्कारी गौ नहीं देखी थी। इसके बाद राजा विश्वरथ ने ब्रह्मर्षि से जाने की आज्ञा मांगी और वे अपने समस्त सैनिकों सहित राज्य पहुँच गए।'
राज दरबार में पहुंचकर उन्होंने अपने मंत्रियों को आदेश दिया की वह पुरे नगर में डुगडुगी फिरा दे की सभी नागरिक अपने स्तर पर विजय उत्सव मनाये। मंत्री ने राजा से कहा - महाराज! आपके साथ नगर के सभी अठारह से पचास वर्ष तक की आयु के पुरुष युद्ध में चले जाने से खेतों में श्रम करने के लिए कोई युवक नहीं बचा। पुरे नगर में बच्चों, बूढ़ों और अबला औरतों के सिवाय कौन था जो खेतों में अपना श्रम कर सके। युवकों की भारी कमी के कारण नगर में बारह वर्षों से भयंकर अकाल पड़ गया। यदि यही स्थिति बनी रही तो सारी प्रजा भूख से बिलख कर मर जाएगी। आपको उत्सव के बजाय प्रजा के कल्याण की बात सोचनी चाहिए।'
मंत्री की बातें सुनकर राजा विश्वरथ सोच में डूब गए। तभी अचानक उन्हें नंदिनी गौ का ध्यान आया और उन्होंने अपने मंत्री को वशिष्ठ जी के पास जाकर नंदिनी गौ लेकर आने को कहा। मंत्री ने उस गौ को वशिष्ठ जी से माँगा पर वशिष्ठ जी बोले - यह गौ इस आश्रम की धरोहर है इसी के कारण मैं अपने दस हजार शिष्यों तथा कार्यकर्ताओं का भरण पौषण करता हूँ। अतः इसे मैं किसी भी कीमत पर किसी को नहीं दे सकता। मंत्री को विवश होकर वापस लौटना पड़ा।
राजा विश्वरथ क्रोधित हो गए और वह अपने सौ पुत्रों तथा सेना सहित वशिष्ठ के आश्रम नंदिनी को लेने पहुंचे। राजा ने ब्रह्मर्षि को चेतावनी दे डाली की यदि उन्होंने नंदिनी नहीं सौंपी तो वह इस आश्रम को शमशान बना देंगे। वशिष्ठजी ने कहा - यह आप नहीं आपका अहंकार बोल रहा है, जिस कारण आपका विवेक नष्ट हो गया है। एक महान वंश के क्षत्रिय राजा होकर भी आप अपना और अपने कुल का विनाश मत करवाएं। नंदिनी पुरे राष्ट्र की धरोहर है इसे स्वयं परमपिता ने मुझे सौपां था। आप केवल एक राजा हैं राष्ट्र नहीं हैं।
वशिष्ठ जी के इस प्रकार कहने पर विश्वरथ ने बलात् उस गौ को पकड़ लेने का आदेश दे दिया और उसके सैनिक उस गौ को डण्डे से मार मार कर हाँकने लगे। नंदिनी गौ ने क्रोधित होकर उन सैनिकों से अपना बन्धन छुड़ा लिया और वशिष्ठ जी के पास आकर विलाप करने लगी। वशिष्ठ जी बोले - हे नंदिनी! यह राजा मेरा अतिथि है इसलिये मैं इसको शाप भी नहीं दे सकता और इसके पास विशाल सेना होने के कारण इससे युद्ध में भी विजय प्राप्त नहीं कर सकता। मैं स्वयं को विवश अनुभव कर रहा हूँ।
उनके इन वचनों को सुन कर नंदिनी ने कहा - हे ब्रह्मर्षि! आप मुझे आज्ञा दीजिये, मैं एक क्षण में इस क्षत्रिय राजा को उसकी विशाल सेनासहित नष्ट कर दूँगी। ओर कोई उपाय न देख कर वशिष्ठ जी ने नंदिनी को अनुमति दे दी। आज्ञा पाते ही नंदिनी ने योगबल से अत्यंत मारक अस्त्रों और शस्त्रों से युक्त पराक्रमी योद्धाओं को उत्पन्न किया जिन्होंने शीघ्र ही शत्रु सेना को गाजर मूली की भाँति काटना आरम्भ कर दिया। अपनी सेना का नाश होते देख विश्वरथ के सौ पुत्र अत्यन्त कुपित हो वशिष्ठ जी को मारने दौड़े। वशिष्ठ जी ने उनमें से एक पुत्र को छोड़ कर शेष सभी को भस्म कर दिया।
'अपनी सेना तथा पुत्रों के नष्ट हो जाने से विश्वरथ बड़े दुःखी हुये। तब उन्होंने ब्रह्मर्षि वशिष्ठ से प्रतिशोध लेने की ठान ली। अपने बचे हुये पुत्र हारीत को राज सिंहासन सौंप कर वे तपस्या करने के लिये हिमालय की कन्दराओं में चले गये। कठोर तपस्या करके विश्वरथ ने ब्रह्माजी को प्रसन्न कर लिया ओर उनसे ब्रह्माण्ड के समस्त दिव्यास्रों, शक्तियों के साथ सम्पूर्ण धनुर्विद्या के ज्ञान का वरदान प्राप्त कर लिया।'
सूतजी बोले - हे मुनियों! भगवान ब्रह्मा से समस्त दिव्यास्त्रों, शक्ति तथा धनुर्विद्या का वरदान प्राप्त करने के पश्चात राजा विश्वरथ ब्रह्मर्षि वशिष्ठ से प्रतिशोध लेने के लिए उनके आश्रम में जा पहुंचे। घोर तप करने और समस्त शक्तियों का ज्ञान प्राप्त कर लेने के कारण ब्रह्माजी द्वारा राजा विश्वरथ को राजर्षि की उपाधि प्राप्त हुई। इस वरदान के मद में चूर विश्वरथ ने महर्षि वशिष्ठ को युद्ध की चुनौती दे डाली। विश्वरथ ने कहा की आज उसे नंदिनी को ले जाने से कोई नहीं रोक सकता। जो भी उसके सामने आया वह मृत्यु को प्राप्त करेगा।
राजा के हठ और अहंकार की पराकाष्ठा को देखकर वशिष्ठजी ने उन्हें फिर समझाने का प्रयास किया - राजन! तपोबल के प्रभाव से आपका सम्पूर्ण शरीर पवित्र हो गया है। आपकी इस घोर तपस्या का साक्षी समस्त ब्रह्माण्ड है। आपने अपने तप की शक्ति से वह प्राप्त कर लिया जो देवताओं को भी दुर्लभ है। आपके पास संसार की समस्त शक्तियों का ज्ञान और अस्त्र-शस्त्रों का भंडार है। अब आप एक राजा से राजर्षि बन गए हैं। किन्तु बड़े दुःख की बात है इतना सब प्राप्त कर लेने के बाद भी आपका अहंकार नष्ट नहीं हुआ। इसी अहंकार ने आपको प्रतिशोध की अग्नि में झुलसा रखा है। हे राजन ! उखाड़ फेंकिए इस अभिमान के वृक्ष को और अपने ज्ञान का उपयोग जन कल्याण में कीजिये।
मुनि की बातें सुनकर भी विश्वरथ का क्रोध शांत नहीं हुआ और अत्यंत भावावेश में बोले - वशिष्ठ मैं जान गया हूँ की तुम ऐसा क्यों कह रहे हो? क्योंकि अब तुम मेरे अपार शौर्य का सामना नहीं कर सकते इसलिए भय के मारे मेरी प्रसंशा कर रहे हो यदि अपनी पराजय से इतना भय है तो मेरे चरणों में गिरकर मुझसे क्षमा मांग लो और नंदिनी मुझे दे दो। मैं अपने ९९(99) पुत्रों की मृत्यु के लिए भी तुम्हे क्षमा कर दूंगा।
ब्रह्मर्षि वशिष्ठ ने कहा - कदाचित प्रभु तुम्हारे समस्त पापों को नष्ट करना चाहते हैं इसलिए तुम्हारा हठ चरम पर है, मैं एक ब्राह्मण हूँ युद्ध करना मेरा कार्य नहीं है। मैं तुम्हारे सामने खड़ा हूँ तुम अपनी शक्ति चलाओ यदि मुझे इस मार्ग से हटा सको तो नंदिनी को ले जाना अन्यथा इस आश्रम से लौट जाना।
इति श्रीमद् राम कथा वंश चरित्र अध्याय-२ का भाग-२३(23) समाप्त !
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