सूतजी कहते हैं - हे ऋषियों! मैंने अपनी बुद्धि के अनुसार प्रभु के अवतार लेने के वे सभी प्रमुख कारण बताये जिन्हे मेरे परम पूजनीय गुरु श्रीवेदव्यासजी ने मुझे कहा अथवा जिनका वर्णन कई बुद्धिजीवियों ने अपने समय और कल्प के अनुसार किया हैं। वैसे तो भगवान के धरती पर पूर्ण मानव अवतार लेने के बहुत से कारण हैं सभी का वर्णन करना या उन्हें समझना ठीक वैसा ही है जैसे सम्पूर्ण महासागर को अंजलि में समेटना। अपने भक्तों के हितार्थ प्रभु प्रत्येक कल्प में श्रीराम रूप में आते हैं तथा दुरात्माओं का संहार करते हुए पुनः धर्म की स्थापना करते हैं।
हे ऋषिगणों ! अब मैं आप सभी को श्रीराम के प्रिय पार्षद जय और विजय के रावण और कुम्भकर्ण के चरित्र की कथा सुनाता हूँ जिसे आदिकवि महर्षि वाल्मीकि ने अपनी कल्याणकारी रामायण में बतलाया है। उसी के अनुसार मैं रावण चरित्र की कथा सुनाता हूँ। इसे आप सभी मन लगा कर सुनें।
'राक्षसों का संहार करने के अनन्तर जब भगवान् श्रीराम ने अपना राज्य प्राप्त कर लिया, तब सम्पूर्ण ऋषि- महर्षि श्रीरघुनाथजी का अभिनन्दन करने के लिये अयोध्यापुरी में आये। जो मुख्यत: पूर्व दिशा में निवास करते हैं, वे कौशिक, यवक्रीत, गार्ग्य, गालव और मेधातिथि के पुत्र कण्व वहाँ पधारे। स्वस्त्यात्रेय, भगवान् नमुचि, प्रमुचि, अगस्त्य, भगवान् अत्रि, सुमुख और विमुख – ये दक्षिण दिशा में रहनेवाले महर्षि अगस्त्यजी के साथ वहाँ आये।'
'जो प्राय: पश्चिम दिशा का आश्रय लेकर रहते हैं, वे नृषङ्गु, कवष, धौम्य और महर्षि कौशेय भी अपने शिष्यों के साथ वहाँ आये। इसी तरह उत्तर दिशा के नित्य निवासी वसिष्ठ, कश्यप, अत्रि, विश्वामित्र, गौतम, जमदग्नि और भरद्वाज - ये सात ऋषि जो सप्तर्षि कहलाते हैं, अयोध्यापुरीमें पधारे। ये सभी अग्नि के समान तेजस्वी, वेद-वेदाङ्गों के विद्वान् तथा नाना प्रकार के शास्त्रों का विचार करने में प्रवीण थे। वे महात्मा मुनि श्रीरघुनाथजी के राजभवन के पास पहुँचकर अपने आगमन की सूचना देने के लिये ड्योढ़ी पर खड़े हो गये।'
उस समय धर्मपरायण मुनिश्रेष्ठ अगस्त्य ने द्वारपाल से कहा - तुम दशरथनन्दन भगवान् श्रीराम को जाकर सूचना दो कि हम अनेक ऋषि-मुनि आपसे मिलने के लिये आये हैं।
महर्षि अगस्त्य की आज्ञा पाकर द्वारपाल तुरंत महात्मा श्रीरघुनाथजी के समीप गया। वह नीतिज्ञ, इशारे से बात को समझनेवाला, सदाचारी, चतुर और धैर्यवान् था। पूर्ण चन्द्रमा के समान कान्तिमान् श्रीराम का दर्शन करके उसने सहसा बताया - प्रभो! मुनिश्रेष्ठ अगस्त्य अनेक ऋषियों के साथ पधारे हुए हैं।
प्रात: काल के सूर्य की भाँति दिव्य तेज से प्रकाशित होनेवाले उन मुनीश्वरों के पदार्पण का समाचार सुनकर श्रीरामचन्द्रजी ने द्वारपाल से कहा – तुम जाकर उन सब लोगों को यहाँ सुखपूर्वक ले आओ।
'आज्ञा पाकर द्वारपाल गया और सबको साथ ले आया। उन मुनीश्वरों को उपस्थित देख श्रीरामचन्द्रजी हाथ जोड़कर खड़े हो गये। फिर पाद्य-अर्घ्य आदि के द्वारा उनका आदरपूर्वक पूजन किया। पूजन से पहले उन सबके लिये एक-एक गाय भेंट की। श्रीराम ने शुद्धभाव से उन सबको प्रणाम करके उन्हें बैठने के लिये आसन दिये। वे आसन सोने के बने हुए और विचित्र आकार-प्रकार वाले थे। सुन्दर होने के साथ ही वे विशाल और विस्तृत भी थे। उनपर कुश के आसन रखकर ऊपर से मृगचर्म बिछाये गये थे। उन आसनों पर वे श्रेष्ठ मुनि यथायोग्य बैठ गये।
तब श्रीराम ने शिष्यों और गुरुजनों सहित उन सबका कुशल-समाचार पूछा। उनके पूछने पर वे वेदवेत्ता महर्षि इस प्रकार बोले - महाबाहु रघुनन्दन! हमारे लिये तो सर्वत्र कुशल - ही कुशल है । सौभाग्य की बात है कि हम आपको सकुशल देख रहे हैं और आपके सारे शत्रु मारे जा चुके हैं। राजन्! आपने सम्पूर्ण लोकों को रुलाने वाले रावण का वध किया, यह सबके लिये बड़े सौभाग्य की बात है। श्रीराम! पुत्र-पौत्रों सहित रावण आपके लिये कोई भार नहीं था। आप धनुष लेकर खड़े हो जायें तो तीनों लोकों पर विजय पा सकते हैं; इसमें संशय नहीं है। रघुनन्दन राम! आपने राक्षस राज रावण का वध कर दिया और सीता के साथ आप विजयी वीरों को आज हम सकुशल देख रहे हैं, यह कितने आनन्द की बात है । धर्मात्मा नरेश! आपके भाई लक्ष्मण सदा आपके हित में लगे रहनेवाले हैं। आप इनके, भरत शत्रुघ्न के तथा माताओं के साथ अब यहाँ सानन्द विराज रहे हैं और इस रूप में हमें आपका दर्शन हो रहा है, यह हमारा अहोभाग्य है।
‘प्रहस्त, विकट, विरूपाक्ष, महोदर तथा दुर्धर्ष अकम्पन - जैसे निशाचर आपलोगों के हाथ से मारे गये, यह बड़े आनन्द की बात है। श्रीराम! शरीर की ऊँचाई और स्थूलता में जिससे बढ़कर दूसरा कोई है ही नहीं, उस कुम्भकर्ण को भी आपने समराङ्गण में मार गिराया, यह हमारे लिये परम सौभाग्य की बात है। श्रीराम ! त्रिशिरा, अतिकाय, देवान्तक तथा नरान्तक - ये महापराक्रमी निशाचर भी हमारे सौभाग्य से ही आपके हाथों मारे गये।'
‘रघुवीर! जो देखने में भी बड़े भयंकर थे, वे कुम्भकर्ण के दोनों पुत्र कुम्भ और निकुम्भ नामक राक्षस भी भाग्यवश युद्ध में मारे गये। प्रलयकाल के संहारकारी यमराज की भाँति भयानक युद्धोन्मत्त और मत्त भी काल के गाल में चले गये। बलवान् यज्ञकोप और धूम्राक्ष नामक राक्षस भी यमलोक के अतिथि हो गये।'
‘ये समस्त निशाचर अस्त्र-शस्त्रों के पारंगत विद्वान् थे। इन्होंने जगत में भयंकर संहार मचा रखा था; परंतु आपने अन्तकतुल्य बाणोंद्वारा इन सबको मौत के घाट उतार दिया; यह कितने हर्ष की बात है। राक्षस राज रावण देवताओं के लिये भी अवध्य था, उसके साथ आप द्वन्द्वयुद्ध में उतर आये और विजय भी आपको ही मिली; यह बड़े सौभाग्य की बात है। युद्ध में आपके द्वारा जो रावण का पराभव (संहार) हुआ, वह कोई बड़ी बात नहीं है; परंतु द्वन्द्वयुद्ध में लक्ष्मण के द्वारा जो रावण पुत्र इंद्रजीत का वध हुआ है, वही सबसे बढ़कर आश्चर्य की बात है।'
'महाबाहु वीर! काल के समान आक्रमण करने वाले उस देवद्रोही राक्षस के नागपाश से मुक्त होकर आपने विजय प्राप्त की, यह महान् सौभाग्य की बात है। इंद्रजीत के वध का समाचार सुनकर हम सब लोग बहुत प्रसन्न हुए हैं और इसके लिये आपका अभिनन्दन करते हैं। वह महामायावी राक्षस युद्ध में सभी प्राणियों के लिये अवध्य था। वह इंद्रजीत भी मारा गया, यह सुनकर हमें अधिक आश्चर्य हुआ है।'
‘रघुकुल की वृद्धि करनेवाले श्रीराम ! ये तथा और भी बहुत-से इच्छानुसार रूप धारण करनेवाले वीर राक्षस आपके द्वारा मारे गये, यह बड़े आनन्द की बात है। वीर! ककुत्स्थ कुलभूषण! शत्रुसूदन श्रीराम ! आप संसार को यह परम पुण्यमय सौम्य अभयदान देकर अपनी विजय के कारण बधाई के पात्र हो गये हैं - निरन्तर बढ़ रहे हैं, यह कितने हर्ष की बात है !'
उन पवित्रात्मा मुनियों की वह बात सुनकर श्रीरामचन्द्रजी को बड़ा आश्चर्य हुआ। वे हाथ जोड़कर पूछने लगे - पूज्यपाद महर्षियो ! निशाचर रावण तथा कुम्भकर्ण दोनों ही महान् बल - पराक्रम से सम्पन्न थे। उन दोनों को लाँघकर आप रावण पुत्र इन्द्रजीत की ही प्रशंसा क्यों करते हैं ? महोदर, प्रहस्त, विरूपाक्ष, मत्त, उन्मत्त तथा दुर्धर्ष वीर देवान्तक और नरान्तक - इन महान् वीरों का उल्लङ्घन करके आपलोग रावण कुमार इन्द्रजीत की ही प्रशंसा क्यों कर रहे हैं? अतिकाय, त्रिशिरा तथा निशाचर धूम्राक्ष – इन महापराक्रमी वीरों का अतिक्रमण करके आप रावण पुत्र इन्द्रजीत की ही प्रशंसा क्यों करते हैं?
‘उसका प्रभाव कैसा था? उसमें कौन-सा बल और पराक्रम था? अथवा किस कारण से यह रावण से भी बढ़कर सिद्ध होता है। यदि यह मेरे सुनने योग्य हो, गोपनीय न हो तो मैं इसे सुनना चाहता हूँ। आप लोग बताने की कृपा करें। यह मेरा विनम्र अनुरोध है। मैं आपलोगों को आज्ञा नहीं दे रहा हूँ। उस रावणपुत्र ने इन्द्र को भी किस तरह जीत लिया? कैसे वरदान प्राप्त किया? पुत्र किस प्रकार महाबलवान् हो गया और उसका पिता रावण क्यों वैसा बलवान् नहीं हुआ? मुनीश्वर! वह राक्षस इंद्रजीत महासमर में किस तरह पिता से भी अधिक शक्तिशाली एवं इन्द्रपर भी विजय पानेवाला हो गया? तथा किस तरह उसने बहुत से वर प्राप्त कर लिये? इन सब बातों को मैं जानना चाहता हूँ; इसलिये बारम्बार पूछता हूँ। आज आप ये सारी बातें मुझे बताइये।
इति श्रीमद् राम कथा रावण चरित्र अध्याय-३ का भाग-२२(22) समाप्त !
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