भाग-२२(22) मान्धाता की संतानों का वर्णन तथा राजा विश्वरथ के जन्म की कथा

 


सूतजी कहते हैं - ऋषिगणों! अब हम मान्धाता के पुत्रों की सन्तान का वर्णन करते हैं। मान्धाता के पुत्र अम्बरीष के यौवनाश्व नामक पुत्र हुआ। उससे हारीत हुआ जिससे अंगिरा- गोत्रीय हरीतगण हुए। पूर्वकाल में रसातल में मौनेय नामक छः करोड़ गन्धर्व रहते थे। उन्होंने समस्त नागकुलों के प्रधान - प्रधान रत्न और अधिकार छीन लिये थे। गन्धर्वो के पराक्रम से अपमानित नागेश्वरों द्वारा स्तुति किये जाने पर उसके श्रवण करने से निद्रा के अन्त में जगे हुए उन भगवान् सर्वदेवेश्वर श्रीनारायण को प्रणाम कर उनसे नागगण ने कहा - भगवान ! इन गन्धर्वोंसे उप्तन्न हुआ हमारा भय किस प्रकार शान्त होगा ? 

तब आदि अन्तरहित भगवान् पुरुषोत्तमने कहा - ' युवनाश्वके पुत्र मान्धाता का जो पुरुकुत्स नामक पुत्र है उसमें प्रविष्ट होकर मैं उन सम्पूर्णं दुष्ट गन्धर्वों का नाश कर दूँगा। यह सुनकर भगवान् को प्रणाम कर समस्त नागाधिपतिगण नागलोक में लौट आये। नागों ने अपनी बहिन नर्मदा का विवाह पुरुकुत्स से कर दिया था। नागराज वासुकि की आज्ञा से नर्मदा अपने पति को रसातल में ले गयी। 

'तदनन्तर नर्मदा पुरुकुत्स को रसातलमें ले आयी। रसातल में पहूँचनेपर पुरुकुत्स ने भगवान्‌ के तेज से अपने शरीर का बल बढ़ जाने से सम्पूर्ण गन्धवों को मार डाला और फिर अपने नगर में लौट आये। इस पर नागराज ने प्रसन्न होकर पुरुकुत्स को वर दिया कि जो इस प्रसंग का स्मरण करेगा, वह सर्पों से निर्भय हो जायेगा।

इस विषयमें यह श्लोक भी है - 

नर्मदायै नमः प्रातर्नर्मदायै नमो निशि। 

नमोःस्तु नर्मदे तुभ्यं त्राहि मां विषसर्पतः।। 

अर्थात: 

'नर्मदाको प्रातः काल नमस्कार है और रात्रिकाल में भी नर्मदा को नमस्कार है । हे नर्मदे ! तुमको बारम्बार नमस्कार है, तुम मेरी विष और सर्प से रक्षा करो'॥

'इसका उच्चरण करते हुए दिन अथवा रात्रि में किसी समय भी अन्धकार में जाने से सर्प नहीं काटता तथा इसका स्मरण करके भोजन करने वाले का खाया हुआ विष भी घातक नहीं होता।' 

'राजा पुरुकुत्स का पुत्र त्रसद्दस्यु था। उसके पुत्र हुए अनरण्य जिसे दिग्विजय के समय रावण ने मारा था। अनरण्य के हर्यश्व, उसके अरुण और अरुण के त्रिबन्धन हुए। त्रिबन्धन के पुत्र सत्यव्रत हुए। यही सत्यव्रत 'त्रिशंकु' के नाम से विख्यात हुए। यद्यपि त्रिशंकु अपने पिता और गुरु के शाप से चाण्डाल हो गये थे, परन्तु विश्वामित्र जी के प्रभाव से वे सशरीर स्वर्ग में चले गये। देवताओं ने उन्हें वहाँ से ढकेल दिया और वे नीचे को सिर किये हुए गिर पड़े; परन्तु विश्वामित्र जी ने अपने तपोबल से उन्हें आकाश में ही स्थिर कर दिया। वे अब भी आकाश में लटके हुए दीखते हैं।'

त्रिशंकु के पुत्र थे हरिश्चन्द्र। उनके लिये विश्वामित्र और वसिष्ठ बहुत वर्षों तक लड़ते रहे।'

ऋषियों ने पूछा - हे श्रेष्ठ सूतजी! जैसा की आपने कहा सत्यव्रत 'त्रिशंकु' के नाम से विख्यात हुए। जहाँ तक हम जानते हैं वे चांडाल भी हो गए थे। तब ब्रह्मर्षि विश्वामित्र ने ही उन्हें इस शाप से मुक्ति दिलायी थी। फिर भी उन्ही (सत्यव्रत) के पुत्र हरिश्चंद्र को मुनि विश्वामित्र ने राज्य से निकला और वे कई वर्षों तक दीनहीन अवस्था में भटकते रहे। हे महात्मन! कृपा कर हमे यह पूरा वृतांत वर्णन कीजिये। इस प्रसंग को विस्तार से सुनने की हमारे मन में बड़ी लालसा है। 

सूतजी कहते हैं - हे ऋषियों ! प्रजापति के पुत्र कुश, कुश के पुत्र कुशनाभ और कुशनाभ के पुत्र राजा गाधि थे। राजा गाधि का राज्य क्षेत्र महोदया (वर्तमान में भारत के उत्तर प्रदेश राज्य के कन्नौज जिले के आसपास का क्षेत्र) कहलाता था। राजा विश्वरथ उन्हीं गाधि के पुत्र थे। राजा विश्वरथ की माता का नाम उर्वि था। कुशिक वंश का होने के कारण इनको कौशिक भी कहा जाता था। यहीं विश्वरथ आगे चलकर ब्रह्मर्षि हुए। 

'राजा गाधि के सत्यवती नाम की एक अत्यन्त रूपवती कन्या थी। राजा गाधि ने सत्यवती का विवाह भृगुनन्दन ऋषीक के साथ कर दिया। सत्यवती के विवाह के पश्‍चात् वहाँ भृगु ऋषि ने आकर अपनी पुत्रवधू को आशीर्वाद दिया और उससे वर माँगने के लिये कहा। इस पर सत्यवती ने श्‍वसुर को प्रसन्न देखकर उनसे अपनी माता उर्वि के लिये एक पुत्र की याचना की क्योंकि सत्यवती के अतिरिक्त उन्हें कोई पुत्र न था।  सत्यवती की याचना पर भृगु ऋषि ने उसे दो चरु (हवन या यज्ञ की आहुति के लिये पकाया हुआ अन्न) पात्र देते हुये कहा कि जब तुम और तुम्हारी माता ऋतु स्नान कर चुकी हो तब तुम्हारी माँ पुत्र की इच्छा लेकर पीपल का आलिंगन करना और तुम उसी कामना को लेकर गूलर का आलिंगन करना।' 

'फिर मेरे द्वारा दिये गये इन चरुओं का सावधानी के साथ अलग अलग सेवन कर लेना। इधर जब सत्यवती की माँ ने देखा कि भृगु ने अपनी पुत्रवधू को उत्तम सन्तान होने का चरु दिया है तो उसने अपने चरु को अपनी पुत्री के चरु के साथ बदल दिया। इस प्रकार सत्यवती ने अपनी माता वाले चरु का सेवन कर लिया।' 

योगशक्‍ति से ब्रह्मर्षि भृगु को इस बात का ज्ञान हो गया और वे अपनी पुत्रवधू के पास आकर बोले कि पुत्री! तुम्हारी माता ने तुम्हारे साथ छल करके तुम्हारे चरु का सेवन कर लिया है। इसे सुनकर सत्यवती ने कहा - भगवन! इसमें आश्चर्य कैसा? भले ही माता ने चरु बदल दिए हों किन्तु हम दोनों को होना तो पुत्र ही है। 

तब महर्षि भृगु समझाते हैं की पुत्री चूँकि तुम्हारी माता एक क्षत्रीय कुल की रानी है अतः हमने उसे वही चरु दिया था जिससे उसे एक महाप्रतापी क्षत्रीय पुत्र की प्राप्ति हो तथा तुम्हारा विवाह मेरे ही पुत्र के साथ हुआ है अतः तुम्हे हमने ऐसा चरु प्रदान किया था जिससे तुम्हे ब्राह्मण पुत्र की प्राप्ति हो परन्तु तुम्हारी माता ने चरु बदल दिए इसलिये अब तुम्हारी सन्तान ब्राह्मण होते हुये भी क्षत्रिय जैसा आचरण करेगी और तुम्हारी माता की सन्तान क्षत्रिय होकर भी ब्राह्मण जैसा आचरण करेगी। 

'इस पर सत्यवती ने मुनि भृगु से विनती की कि आप आशीर्वाद दें कि मेरा पुत्र ब्राह्मण का ही आचरण करे, भले ही मेरा पौत्र क्षत्रिय जैसा आचरण करे। मुनि ने प्रसन्न होकर उसकी विनती स्वीकार कर ली। इस तरह समय आने पर सत्यवती के गर्भ से जमदग्नि का जन्म हुआ। जमदग्नि अत्यन्त तेजस्वी थे। बड़े होने पर उनका विवाह प्रसेनजित की कन्या रेणुका से हुआ। रेणुका से उनके पाँच पुत्र हुए जिनके नाम थे - रुक्मवान, सुखेण, वसु, विश्‍वानस और परशुराम। जमदग्नि भगवान परशुराम के पिता थे। जमदग्नि का जन्म महर्षि भृगु (जो आगे चलकर ब्रह्मर्षि की उपाधि प्राप्त करते हैं) के वंश में हुआ था इसलिए वह भी अपने ज्ञान और तप के बल पर अपने पितामह ब्रह्मर्षि भृगु की भाँती ब्रह्मर्षि का पद प्राप्त करते हैं।' 

'वहीँ दूसरी ओर सत्यवती की माता को चरु बदलने के कारण ऐसी संतान की प्राप्ति होती है जिसका जन्म क्षत्रीय वंश में होता है किन्तु विधि के विधान का लेख ऐसा था की विश्वरथ क्षत्रीय होकर भी ब्राह्मणों जैसा आचरण करते हैं तथा अपने भानजे जमदग्नि की भांति ब्रह्मर्षि की उपाधि प्राप्त करते हैं।'

इति श्रीमद् राम कथा वंश चरित्र अध्याय-२ का भाग-२२(22) समाप्त !

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