भाग-२२(22) पार्वती का अपनी माता मैना को समझाना तथा पृथ्वीपुत्र भौम (मंगल गृह) का जन्म

 


सूतजी बोले - नारदजी के स्वर्गलोक जाने के पश्चात कुछ समय तक सबकुछ ऐसे ही चलता रहा। एक दिन मैना अपने पति हिमालय के पास गई और उन्हें प्रणाम कर उनसे कहने लगी - हे प्राणनाथ! उस दिन जब देवर्षि नारद हमारे यहां पधारे थे और पार्वती का हाथ देखकर उसके विषय में अनेक बातें बता गए थे, तब मैंने उनकी बातों पर ध्यान दिया था। अब पार्वती बड़ी हो रही है। मेरी आपसे विनम्र प्रार्थना है कि आप उसके विवाह के लिए सुयोग्य व सुंदर वर की खोज शुरू कर दें। जिसके साथ हमारी पुत्री पार्वती सुख से अपना जीवन व्यतीत कर सके। वह शुभ लक्षणों वाला तथा कुलीन होना चाहिए क्योंकि मुझे अपनी पुत्री अपने प्राणों से भी अधिक प्यारी है। मैं सिर्फ पुत्री का सुख चाहती हूं।

'यह कहकर मैना की आंखों में आंसू आ गए और वे अपने पति के चरणों में गिर पड़ीं। तत्पश्चात हिमालय ने पत्नी मैना को प्रेमपूर्वक उठाया और उन्हें समझाने लगे।' 

वे बोले - हे देवी! तुम व्यर्थ की चिंता त्याग दो। मुनि नारद की बात कभी झूठ नहीं हो सकती। यदि तुम पार्वती को सुखी देखना चाहती हो तो उसे भगवान शिव की तपस्या के लिए प्रेरित करो। यदि शिवजी प्रसन्न हो गए तो वे स्वयं ही पार्वती का पाणिग्रहण कर लेंगे। तब सबकुछ शुभ ही होगा। सभी अनिष्ट और अशुभ लक्षणों का नाश होगा। भगवान शंकर सदा मंगलकारी हैं। इसलिए तुम पार्वती को शिवजी की कृपादृष्टि प्राप्त करने के लिए तपस्या करने की शिक्षा दो। हिमालय की बात सुनकर मैना प्रसन्नतापूर्वक अपनी पुत्री पार्वती को तपस्या के लिए कहने उनके पास चली गई।

'जब मैना पार्वती के पास पहुंची तो उन्हें देखकर सोचने लगीं कि मेरी पुत्री तो कोमल और नाजुक है। यह सदैव राजसी ठाठ-बाट में रही है। दुख और कष्टों को सहना तो दूर की बात है इनके बारे में भी यह सर्वथा अनजान है। पार्वती को उन्होंने बड़े ही लाड़ और प्यार से पाला है। तब कैसे मैं अपनी प्रिय पुत्री को कठोर तपस्या करने के लिए प्रेरित कर सकती हूं? यही सब सोचकर मैना अपनी पुत्री से तपस्या के लिए कुछ नहीं बोल सकीं।' 

'तब अपनी माता के चिंतित चेहरे को देखकर साक्षात जगदंबा का अवतार धारण करने वाली देवी पार्वती यह जान गईं कि उनकी माताजी क्या कहना चाहती हैं? तब सबकुछ जानने वाली देवी भगवती का साक्षात स्वरूप पार्वती बोलीं- हे माता! आप यहां कब आईं? आप बैठिए। माता, पिछली रात्रि के ब्रह्ममुहूर्त में मैंने एक स्वप्न देखा है। उसके विषय में मैं आपको बताती हूं। मेरे सपने में एक दयालु और तपस्वी ब्राह्मण आए। जब मैंने उन्हें हाथ जोड़कर नमस्कार किया तो वे मुस्कुराते हुए बोले कि तुम अवश्य ही भगवान शिव शंकर की प्राणवल्लभा बनोगी। इसलिए उन्हें प्रसन्न करने के लिए उनकी प्रेमपूर्वक तपस्या करो।'

'यह सुनकर मैना ने अपनी पुत्री के सिर पर प्रेम से हाथ फेरा और अपने पति हिमालय को वहां बुलाया। हिमालय के आने पर मैना ने पार्वती के सपने के बारे में उनको बताया। तब उनके मुख से पुत्री के सपने के विषय में जानकर हिमालय बहुत प्रसन्न हुए।' 

तब वे अपनी पत्नी से बोले - प्रिय मैना! मैंने भी पिछली रात को एक सपना देखा था। मैंने अपने सपने में एक बड़े उत्तम तपस्वी को देखा। वे नारद मुनि द्वारा बताए गए सभी लक्षणों से युक्त थे। वे उत्तम तपस्वी मेरे नगर में तपस्या करने के लिए आए थे। उन्हें देखकर मुझे बहुत प्रसन्नता हुई । मैं अपनी पुत्री पार्वती को साथ लेकर उनके दर्शनों के लिए उनके पास पहुंचा। तब मुझे ज्ञात हुआ कि वे नारद जी के बताए हुए वर भगवान शिव ही हैं। तब मैंने पार्वती को उनकी सेवा करने का उपदेश दिया परंतु उन्होंने मेरी बात नहीं मानी। 

'तभी वहां सांख्य और वेदांत पर विवाद छिड़ गया। तत्पश्चात उनकी आज्ञा पाकर पार्वती वहीं रहकर भक्तिपूर्वक उनकी सेवा करने लगीं। हे प्रिये! यही मेरा सपना था जिसे देखकर मुझे अत्यंत प्रसन्नता हुई। मैं सोचता हूं कि हमें कुछ समय तक इस सपने के सच होने की प्रतीक्षा करनी चाहिए। ऐसा कहकर हिमालय और मैना उस उत्तम सपने के सच होने की प्रतीक्षा करने लगे।'

सूतजी कहते हैं - बंधुजनों! भगवान शिव का यश परम पावन, मंगलकारी, भक्तिवर्द्धक और उत्तम है। दक्ष-यज्ञ से वे अपने निवास कैलाश पर्वत पर वापस आ गए थे। वहां आकर भगवान शिव अपनी पत्नी सती के वियोग से बहुत दुखी थे। उनका मन देवी सती का स्मरण कर रहा था और वे उन्हें याद करके व्याकुल हो रहे थे। तब उन्होंने अपने सभी गणों को वहां पर बुलाया और उनसे देवी सती के गुणों और उनकी सुशीलता का वर्णन करने लगे। 

'फिर गृहस्थ धर्म को त्यागकर वे कुछ समय तक सभी लोकों में सती को खोजते हुए घूमते रहे। इसके बाद वापस कैलाश पर्वत पर आ गए क्योंकि उन्हें कहीं भी सती का दर्शन नहीं हो सका था। तब अपने मन को एकाग्र करके वे समाधि में बैठ गए। भगवान शिव इसी प्रकार बहुत लंबे समय तक समाधि लगाकर बैठे रहे। असंख्य वर्ष बीत गए। समाधि के परिश्रम के कारण उनके मस्तक से पसीने की बूंद पृथ्वी पर गिरी और वह बूंद एक शिशु में परिवर्तित हो गई। उस बालक का रंग लाल था। उसकी चार भुजाएं थीं। उसका रूप मनोहर था।'

'वह बालक दिव्य तेज से संपन्न अनोखी शोभा पा रहा था। वह प्रकट होते ही रोने लगा। उसे देखकर संसारी मनुष्यों की भांति शिवजी उसके पालन-पोषण का विचार करके व्याकुल हो गए। उसी समय डरी हुई एक सुंदर स्त्री वहां आई। उसने उस बालक को अपनी गोद में उठा लिया और उसका मुख चूमने लगीं। तब उन्होंने उसे दूध पिलाकर उस बालक के रोने को शांत किया। फिर वह उसे खिलाने लगी। वह स्त्री और कोई नहीं स्वयं पृथ्वी माता थीं। संसार की सृष्टि करने वाले, सबकुछ जानने वाले महादेव जी यह देखकर हंसने लगे। वह पृथ्वी को पहचान चुके थे। 

वे पृथ्वी से बोले - हे धरिणी! तुम इस पुत्र का प्रेमपूर्वक पालन करो। यह शिशु मेरे पसीने की बूंद से प्रकट हुआ है। हे वसुधा! यद्यपि यह बालक मेरे पसीने से उत्पन्न हुआ है परंतु इस जगत में यह तुम्हारे ही पुत्र के रूप में जाना जाएगा। यह परम गुणवान और भूमि देने वाला होगा। यह मुझे भी सुख देने वाला होगा। हे देवी! तुम इसका धारण करो।

'यह कहकर भगवान शिव चुप हो गए। उनका दुखी हृदय थोड़ा शांत हो गया था। उधर शिवजी की आज्ञा का पालन करते हुए पृथ्वी अपने पुत्र को साथ लेकर अपने निवास स्थान पर चली गईं। बड़ा होकर यह बालक 'भौम' (पृथ्वी पुत्र जिसे मंगल गृह के नाम से जाना जाता है) नाम से प्रसिद्ध हुआ। युवा होने पर भौम काशी गया। वहां उसने बहुत लंबे समय तक भगवान शिव की सेवा-आराधना की। तब भगवान शंकर की कृपादृष्टि पाकर भूमि पुत्र भौम दिव्यलोक को चले गए।'

 इति श्रीमद् राम कथा रामायण माहात्म्य अध्याय का भाग-२२(22) समाप्त ! 

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