सूतजी कहते हैं - हे ऋषियों! मान्धाता ने शरत बिन्दु की पुत्री बिन्दुमती से विवाह किया और उससे पुरुकुत्स, अम्बरीष और मुचुकुन्द नामक तीन पुत्र उप्तन्न किये तथा उसी बिन्दुमती से उनके पचास कन्याएँ हुई। उसी समय सौभरि नामक महर्षि ने बारह वर्ष तक जल में निवास किया। उस जलमें सम्मद् नामक एक बहुत - सी सन्तानों वाला और अति दीर्घकाय मत्स्यराज था। उसके पुत्र, पौत्र और दौहित्र आदि उसके आगे-पीछे तथा इधर- उधर पक्ष, पुच्छ और शिरके ऊपर घूमते हुए अति अनन्दित होकर रात-दिन उसी के साथ क्रिडा करते रहते थे तथा वह भी अपनी सन्तान के सुकमा स्पर्श से अत्यन्त हर्षयुक्त होकर उन मुनिश्वर के देखते-देखते अपने पुत्र, पौत्र और दौहित्र आदि के साथ अहर्निश क्रीडा करता रहता था।
'इस प्रकार जल में स्थित सौभरि ऋषि ने एकाग्रता रूप समाधि को छोड़कर रात दिन उस मत्स्यराज की अपने पुत्र, पौत्र और दौहित्र आदि के साथ अति रमणीय क्रीडाओं को देखकर विचार किया - अहो ! यह धन्य है, जो ऐसी अनिष्ट योनि में उप्तन्न होकर भी अपने इन पुत्र, पौत्र और दौहित्र आदि के साथ निरन्तर रमण करता हुआ हमारे हृदय में डाह उप्तन्न करता है। हम भी इस प्रकार अपने पुत्र के साथ अति ललित क्रीडाएँ करेंगे। ऐसी अभिलाषा करते हुए वे उस जल के भीतर से निकल आये और सन्तानार्थ गृहस्थाश्रम में प्रवेश करने की कामना से कन्या ग्रहण करने के लिये राजा मांधाता के पास आये।'
मुनिवरका आगमन सुन राजाने उठकर अर्ध्यदानादिसे उनका भली प्रकार पूजन किया। तदनन्तर सौभरि मुनि ने आसन ग्रहण करके राजा से कहा सौभारिजी बोले - हे राजन् ! मैं कन्या- परिग्रह का अभिलाषी हूँ, अतः आप मुझे अपनी एक कन्या दें; मेरा प्रणय भंग मत करें। ककुत्स्थवंशमें कार्यवश आया हुआ कोई भी प्रार्थी पुरुश कभी खाली हाथ नहीं लौटता।
'हे मान्धाता ! पृथ्वी तल में और भी अनेक राजा लोग हैं और उनके भी कन्याएँ उप्तन्न हूई हैं ; कितु याचकों को माँगी हुई वस्तु दान देने के नियम में दृढप्रतिज्ञ तो यह आपका प्रशंसनीय कुल ही है। हे राजन् ! आपके पचास कन्याएँ हैं, उनमें से आप मुझे केवल एक ही दे दो। नृपश्रेष्ठ ! मैं इस समय प्रार्थना भंग की आशंका से उप्तन्न अतिशय दुःख से भयभीत हो रहा हूँ।'
सूतजी बोले - ऋषि के ऐसे वचन सुनकर राजा उनके जराजीर्ण (बुढ़ापे की दशा) देह को देखकर शाप के भय से अस्वीकर करने में कातर हो उनसे भयभीत हुए कुछ नीचे को मुख करके मन - ही मन चिन्ता करने लगे।
सौभारिजी बोले - हे नरेन्द्र ! तुम चिन्तित क्यों होते हो ? मैंने इसमें कोई असह्य बात तो कही नहीं है, जो कन्या एक दिन तुम्हें अवश्य देनी ही है उससे ही यदि हम कृतार्थ हो सकें तो तुम क्या नहीं प्राप्त कर सकते हो ?
तब महर्षि सौभारि के शाप से भयभीत हो राजा मान्धाता ने नम्रतापूर्वक उनसे कहा - भगवन् ! हमारे कुलकी यह रीति है कि जिस सत्कुलोप्तन्न वरको कन्या पसन्द करती है वह उसी को दी जाती है । आपकी प्रार्थना तो हमारे मनोरथों से भी परे है । न जाने, किस प्रकार यह उप्तन्न हुई है? ऐसी अवस्थामें मैं नहीं जानता कि क्या करूँ? बस, मुझे यही चिन्ता है।
महाराज मान्धाता का ऐसा कहने पर मुनिवर सौभरि ने विचार किया - मुझको टाल देनेका यह एक और ही उपाय है। यह बूढा है, प्रौढ़ा स्त्रियाँ भी इसे पसन्द नहीं कर सकतीं , फिर कन्याओं की तो बात ही क्या है? ऐसा सोचकर ही राजा ने यह बात कही है। अच्छा, ऐसा ही सहीं, मैं भी ऐसा ही उपाय करूँगा।
यह सब सोचकर उन्होंने मान्धाता से कहा - यदि ऐसी बात है तो कन्याओं के अन्तःपुर - रक्षक नपुंसक को वहाँ मेरा प्रवेश कराने के लिये आज्ञा दो। यदि कोई कन्या ही मेरी इच्छा करेगी तो ही मैं स्त्री ग्रहण करूँगा नहीं तो इस ढलती अवस्था में मुझे इस व्यर्थ उद्योग का कोई प्रयोजन नहीं है। ऐसा कहकर वे मौन हो गये।
तब मुनि के शाप की आशंका से मान्धाता ने कन्याओं के अन्तःपुर-रक्षक को आज्ञा दे दी। उसके साथ अन्तःपुरमें प्रवेश करते हुए सौभारिजी ने अपना रूप सकल सिद्ध और गंधर्व से भी अतिशय मनोहर बना लिया। उन ऋषिवर को अन्तःपुर में ले जाकर अन्तःपुर - रक्षक ने उन कन्याओं से कहा - आपके पिता महाराज मान्धाता की आज्ञा है कि ये ब्रह्मास्मि हमारे पास एक कन्या के लिये पधारे हैं और मैंने इनसे प्रतिज्ञा की है कि मेरी जो कोई कन्या श्रीमान को वरण करेगी उसकी स्वच्छन्मता में मैं किसी प्रकार की बाधा नहीं डालूँगा। यह सुनकर उन सभी कन्याओं ने युथपति गजराज का वर्ण करने वाली हाथिनियों के समान अनुराग और आनन्दपूर्वक 'अकेली मैं ही - अकेली मैं ही वरण करती हूँ' ऐसी कहते हुए उन्हें वरण कर लिया।
वे परस्पर कहने लगीं - अरी बहिनो ! व्यर्थं चेष्टा क्यों करती हो? मै इनका वरण करती हूँ, ये तुम्हारे अनुरूप हैं भी नहीं। विधाता ने ही इन्हें मेरा भर्त्ता और मुझे इनकी भार्या बनाया है। अतः तुम शान्त हो जाओ। अन्तःपुर में आते ही सबसे पहले मैंने ही इन्हें वरण किया था, तुम क्यों मरी जाती हो ? इस प्रकार ' मैंने वरण किया है - पहले मैंने वरण किया है ऐसा कह कहकर उन राजकन्याओं में उनके लिये बड़ा कलह मच गया। जब उन समस्त कन्याओं ने अतिशय अनुरागवश उन अनिन्द्यकीर्ति मुनिवर को वरण कर लिया तो कन्या रक्षक ने नम्रतापूर्वक राजा को सम्पूर्ण वृतान्त ज्यों का - क्यों कह सुनाया।
सूतजी बोले - यह जानकर राजा ने 'यह क्या कहते हो?' यह कैसे हुआ?' 'मैं क्या करूँ?' 'मैंने क्यों उन्हें भीतर जाने के लिए कहा था ? इस प्रकार सोचते हुए अत्यन्त व्याकुल मंत्र से इच्छा न होते हुए भी जैसे - तैसे अपने वचन का पालन किया और अपने अनुरूप विवाह संस्कार के समाप्त होने पर महर्षि सौभारि उन समस्त कन्याओं को अपने आश्रम पर ले गये।
'वहाँ आकार उन्होंने दुसरे विधाता के समान अशेषशिल्प कल्प प्रणेता विश्वकर्मा को बुलाकर कहा कि इन समस्त कन्याओं में से प्रत्येक के लिये पृथक-पृथक महल बनाओ, जिनमें खिले हुए कमल और कूजते हुए सुन्दर हंस तथा कारण्डव आदि जल पक्षियों से सुशोभित जलाशय हों सुन्दर उपधान, शय्या और परिच्छद (ओंढ़नेके वस्त्र) हों तथा पर्याप्त खुला हुआ स्थान हो। तब सम्पूर्ण शिल्प - विद्याके विशेष आचार्य विश्वकर्मा ने भी उनकी आज्ञानुसार सब कुछ तैयार करके उन्हें दिखलाया। तदनन्तर महर्षि सौभारि की आज्ञा से उन महलों में अनिवार्यानन्द नाम की महानदी निवास करने लगी।'
'तब तो उन सम्पूर्ण महलों में नाना प्रकार के भक्ष्य, भोज्य और लेह्य आदि सामग्रियों से वे राजकन्याएँ आये हुए अतिथियों और अपने अनुगत भृत्यवर्गों को तृप्त करने लगीं एक दिन पुत्रियों के स्त्रेह से आकर्षित होकर राजा मान्धता यह देखने के लिये किवे अत्यन्त दुःखी हैं या सुखी? महर्षि सौभारि के आश्रम के निकट आये, तो उन्होंने वहाँ अति रमणीय उपवन और जलाशयों से युक्त स्फटिक शिला के महलों की पंक्ति देखी जो फैलती हुई मयूखमालाओं से अत्यन्त मनोहर मालूम पड़ती थी।'
तदनन्तर वे एक महल में जाकर अपनी कन्या का स्नेहपूर्वक आलिंगन कर आसन पर बैठे और फिर बढ़ते हुए प्रेम के कारण नयनों में जल भरकर बोले - पुत्री! तुमलोग यहाँ सुखपूर्वक हो न? तुम्हें किसी प्रकार का कष्ट तो नहीं है? महर्षि सौभारि तुमसे स्नेह करते है या नहीं ? क्यां तुम्हें हमारे घर की भी याद आती है ?
पिता के ऐसा कहने पर उस राजपुत्री ने कहा - पिताजी ! यह महल अति रमणीय है, ये उपवनादि भी अतिशय मनोहर है, खिले हुए कमलों से युक्त इन जलाशयों में जलपक्षिगण सुन्दर बोली बोलते रहते हैं, भक्ष्य, भोज्य आदि खाद्य पदार्थ, उबटन और वस्त्राभूषण आदि भोग तथा सुकमा शय्यासनादि सभी मनके अनुकूल है; इस प्रकार हमारा गार्हस्थ यद्यापि सर्वसम्पत्तिसम्पन्न है। तथापि अपनी जन्मभूमि की याद भला किसको नहीं आती? आपकी कृपा से यद्यपि सब कुछ मंगलमय है तथापि मुझे एक बड़ा दुख है कि हमारे पति ये महर्षि मेरे घरसे बाहर कभी नहीं जाते । अत्यन्त प्रीति के कारण ये केवल मेरे ही पास रहते है, मेरी अन्य बहिनों के पास ये जाते ही नहीं है। इस कारणसे मेरी बहिनें अति दूःखी होंगी । यहीं मेरे अति दूःखका कारण है।
'उसके ऐसा कहने पर राजा ने दुसरे महल में आकर अपनी कन्या का आलिंगन किया और आसन पर बैठने के पश्चात उससे भी इसी प्रकार पूछा उसने भी उसी प्रकार महल आदि सम्पूर्ण उपभोग के सुख का वर्णन किया और कहा कि अतिशय प्रीति के कारण महर्षि केवल मेरे ही पास रहते हैं और किसी बहन के पास नहीं जाते । इस प्रकार पूर्ववत सुनकर राजा एक एक करके प्रत्येक महल में गये और प्रत्येक कन्या से इसी प्रकार पूछा और उन सबने भी वैसा ही उत्तर दिया।
अन्त में आनन्द और विस्मय के भार से विवश होकर उन्होंने एकान्त में स्थित सौभारिजी की वंदना करने के बाद उनसे कहा - भगवन ! आपकी ही योगसिद्धि का यह महान् प्रभाव देखा है। इस प्रकार के महान् वैभव के साथ और किसी को भी विलास करते हुए हमने नहीं देखा; सो यह सब आपकी तपस्या का ही फल है ।
'इस प्रकार उनका अभिवादन कर वे कुछ कालतक उन मुनिवरके साथ ही अभिमत भोग भोगते रहे और अन्त में अपने नगर को चले आये। कालक्रम से उन राजकन्याओं से सौभारि मुनि के डेढ़ सौ पुत्र हुए। इस प्रकार दिन - दिन स्नेहक प्रसाद होने से उनका हृदय अतिशय ममतामय हो गया।'
वे सोचने लगे - क्या मेरे ये पुत्र मधुर बोली से बोलेंगे ? अपने पाँवों से चलेंगे ? क्या ये युवावस्था को प्राप्त होंगे ? उस समय क्या मैं इन्हें सपत्नीक देख सकूँगा? फिर क्या इनके पुत्र होगें और मैं इन्हें अपने पुत्र-पौत्रों से युक्त देखुँगा? इस प्रकार कालक्रम से दिनानुदिन बढ़ते हुए इन मनोरथों की उपेक्षा कर वे सोचने लगे - अहो ! मेरे मोहका कैसा विस्तार है ? इन मनोरथोंकी तो हजारों - लाखों वर्षों में भी समाप्ति नहीं हो सकती। उनमें से यदि कुछ पूर्ण भी हो जाते हैं तो उनके स्थान पर अन्य नये मनोरथों की उप्तत्ति हो जाती है। मेरे पुत्र पैरों से चलने लगे, फिर से युवा हुए, उनका विवाह हुआ तथा उनके सन्ताने हुई - यह सब तो मैं देख चुका; किन्तु अब मेरा चित्त उन पौत्रों के पुत्र जन्म को भी देखना चाहता है।
'यदि उनका जन्म भी मैंने देख लिया तो फिर मेरे चित्त में दुसरा मनोरथ उठेगा और यदि वह भी पुरा हो गया तो अन्य मनोरथ की उप्तत्ति को ही कौन रोक सकता है? मैंने अब भली प्रकार समझ लिया है कि मृत्युपर्यंन्त मनोरथों का अन्त तो होना नहीं है और जिस चित्त में मनोरथो की आसक्ति होती है वह कभी परमार्थ में लग नहीं सकता। अहो ! मेरी वह समाधि जलवास के साथी मत्स्य के संग से अकस्मात नष्ट हो गयी और उस संग के कारण ही मैंने स्त्री और धन आदि का परिग्रह किया तथा परिग्रह के कारण ही अब मेरी तृष्णा बढ़ गयी है।'
'एक शरीर का ग्रहण करना ही महान दुःख है और मैंने तो इन राजकन्याओं का परिग्रह करके उसे पचास गुना कर दिया है। तथा अनेक पुत्रों के कारण अब वह बहुत ही बढ़ गया है। अब आगे भी पुत्रों के पुत्र तथा उनके पुत्रों से और उनका पुनः - पुनः विवाह सम्बन्ध करने से वह और भी बढ़ेगा। यह ममता रूप विवाह सम्बन्ध अवश्य बड़े ही दुःख का कारण है। जलाशयमें रहकर मैंने जो तपस्या की थी उसकी फलस्वरूपा यह सम्पत्ति तपस्या की बाधक है। मत्स्य के संग से मेरे चित्त में जो पुत्र आदि का राग उप्तन्न हुआ था उसीने मुझे ठग लिया।'
'निस्संगता ही यतियों को मुक्ति देनेवाली है, सम्पूर्ण दोष संग से ही उप्तन्न होते है। संग के कारण तो योगारुढ यति भी पतित हो जाते हैं, फिर मन्दगति मनुष्यों की तो बात ही क्या है? परिग्रहरूपी ग्राह ने मेरी बुद्धि को पकड़ा हुआ है। इस समय मैं ऐसा उपाय करूँगा जिससे दोषों से मुक्त होकर फिर अपने कुटुम्बियों के दुःख से दुःखी न होऊँ। अब मैं सबके विधाता, अचिन्त्यरूप, अणु से भी अणु और सबसे महान् सत्त्व एवं तमः स्वरूप तथा ईश्वरों के भी ईश्वर भगवान विष्णु की तपस्या करके आराधना करूँगा।'
'उन सम्पूर्ण तेजोमय, सर्वस्वरूप, अव्यक्त, विस्पष्टशरीर, अनन्त श्री विष्णु भगवान में मेरा दोषरहित चित्त सदा निश्वल रहे जिससे मुझे फिर जन्म न लेना पड़े। जिस सर्वरूप, अमल, अनन्त, सर्वश्वर और आदि - मध्य-शून्य से पृथक और कुछ भी नहीं है उस गुरुजनों के भी परम गुरु भगवान विष्णु की मैं शरण लेता हूँ।'
सूतजी बोले - इस प्रकार मन - ही - मन सोचकर सौभारि मुनि पुत्र, गृह, आसन, परिच्छद आदि सम्पूर्ण पदार्थो को छोड़कर अपनी समस्त स्त्रियों के सहित वन में चले गये। वहाँ, वानप्रस्थों के योग्य समस्त क्रियाकलाप का अनुष्ठान करते हुए सम्पूर्ण पापों का क्षय हो जाने पर तथा मनोवृत्ति के राग - द्वेषहीन हो जाने पर, आहवनीयादि अग्नियों को अपने में स्थापित कर संन्यासी हो गये। फिर भगवान में आसक्त हो सम्पूर्ण कर्मकलाप का त्याग कर परमात्मा परायण पुरुषों के अच्युतपद (मोक्ष) को प्राप्त किया, जो अजन्मा, अनादि, अविनाशी, विकार और मरणादि धर्म से रहित, इन्द्रियांदि से अतीत तथा अनन्त है।
'इस प्रकार मान्धाता की कन्याओं के सम्बन्ध में मैंने इस चरित्र का वर्णन किया है। जो कोई इस सौभारि चरित्र का स्मरण करता है, अथवा पढ़ता - पढ़वाता, सुनता - सुनाता, धारण करता - कराता, लिखता-लिखवाता तथा सीखता-सिखाता अथवा उपदेश करता है उसके छः जन्मोंतक दुःसन्तति, असद्धर्म और वाणी अथवा मनकी कुमार्ग में प्रवृति तथा किसी भी पदार्थ में ममता नहीं होती।
इति श्रीमद् राम कथा वंश चरित्र अध्याय-२ का भाग-२१(21) समाप्त !
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