भाग-२०(20) कपटी मुनि और कालकेतु राक्षस के षड़यंत्र में राजा प्रतापभानु का फंसना

 


सूतजी कहते हैं - हे ऋषियों ! उस कपटी मुनि ने राजा को जब रात्रि तक आश्रम में विश्राम करने का आग्रह किया तो राजा प्रतापभानु मुनि से बोलै - हे नाथ! बहुत अच्छा, ऐसा कहकर और उसकी आज्ञा सिर चढ़ाकर, घोड़े को वृक्ष से बाँधकर राजा बैठ गया। राजा ने उसकी बहुत प्रकार से प्रशंसा की और उसके चरणों की वंदना करके अपने भाग्य की सराहना की। 

फिर सुंदर कोमल वाणी से कहा - हे प्रभो! आपको पिता जानकर मैं ढिठाई करता हूँ। हे मुनीश्वर! मुझे अपना पुत्र और सेवक जानकर अपना नाम व धाम विस्तार से बतलाइए। राजा ने उसको नहीं पहचाना, पर वह राजा को पहचान गया था। राजा तो शुद्ध हृदय था और वह कपट करने में चतुर था। एक तो वैरी, फिर जाति का क्षत्रिय, फिर राजा। वह छल-बल से अपना काम बनाना चाहता था। वह शत्रु अपने राज्य सुख को समझ करके (स्मरण करके) दुःखी था। उसकी छाती कुम्हार के आँवे की आग की तरह भीतर ही भीतर सुलग रही थी। राजा के सरल वचन कान से सुनकर, अपने वैर को यादकर वह हृदय में हर्षित हुआ। 

वह कपट में डुबोकर बड़ी युक्ति के साथ कोमल वाणी बोला - अब हमारा नाम भिखारी है, क्योंकि हम निर्धन और अनिकेत (घर-द्वारहीन) हैं। 

राजा ने कहा - जो आपके सदृश विज्ञान के निधान और सर्वथा अभिमानरहित होते हैं, वे अपने स्वरूप को सदा छिपाए रहते हैं, क्योंकि कुवेष बनाकर रहने में ही सब तरह का कल्याण है क्योंकि प्रकट संत वेश में मान होने की सम्भावना है और मान से पतन की। इसी से तो संत और वेद पुकारकर कहते हैं कि परम अकिंचन सर्वथा अहंकार, ममता और मानरहित ही भगवान को प्रिय होते हैं। आप सरीखे निर्धन, भिखारी और गृहहीनों को देखकर ब्रह्मा और शिवजी को भी संदेह हो जाता है कि वे वास्तविक संत हैं या भिखारी। आप जो हों सो हों (अर्थात्‌ जो कोई भी हों), मैं आपके चरणों में नमस्कार करता हूँ। हे स्वामी! अब मुझ पर कृपा कीजिए। 

अपने ऊपर राजा की स्वाभाविक प्रीति और अपने विषय में उसका अधिक विश्वास देखकर सब प्रकार से राजा को अपने वश में करके, अधिक स्नेह दिखाता हुआ वह कपट-तपस्वी बोला- हे राजन्‌! सुनो, मैं तुमसे सत्य कहता हूँ, मुझे यहाँ रहते बहुत समय बीत गया। अब तक न तो कोई मुझसे मिला और न मैं अपने को किसी पर प्रकट करता हूँ, क्योंकि लोक में प्रतिष्ठा अग्नि के समान है, जो तप रूपी वन को भस्म कर डालती है। इसी से मैं जगत में छिपकर रहता हूँ। श्री हरि को छोड़कर किसी से कुछ भी प्रयोजन नहीं रखता। प्रभु तो बिना जनाए ही सब जानते हैं। फिर कहो संसार को रिझाने से क्या सिद्धि मिलेगी। तुम पवित्र और सुंदर बुद्धि वाले हो, इससे मुझे बहुत ही प्यारे हो और तुम्हारी भी मुझ पर प्रीति और विश्वास है। हे तात! अब यदि मैं तुमसे कुछ छिपाता हूँ, तो मुझे बहुत ही भयानक दोष लगेगा। 

ज्यों-ज्यों वह तपस्वी उदासीनता की बातें कहता था, त्यों ही त्यों राजा को विश्वास उत्पन्न होता जाता था। जब उस बगुले की तरह ध्यान लगाने वाले कपटी मुनि ने राजा को कर्म, मन और वचन से अपने वश में जाना, तब वह बोला - हे भाई! हमारा नाम एकतनु है। यह सुनकर राजा ने फिर सिर नवाकर कहा- मुझे अपना अत्यन्त (अनुरागी) सेवक जानकर अपने नाम का अर्थ समझाकर कहिए। 

कपटी मुनि ने कहा - जब सबसे पहले सृष्टि उत्पन्न हुई थी, तभी मेरी उत्पत्ति हुई थी। तबसे मैंने फिर दूसरी देह नहीं धारण की, इसी से मेरा नाम एकतनु है। हे पुत्र! मन में आश्चर्य मत करो, तप से कुछ भी दुर्लभ नहीं है, तप के बल से ब्रह्मा जगत को रचते हैं। तप के ही बल से विष्णु संसार का पालन करने वाले बने हैं। तप ही के बल से रुद्र संहार करते हैं। संसार में कोई ऐसी वस्तु नहीं जो तप से न मिल सके। 

'यह सुनकर राजा को बड़ा अनुराग हुआ। तब वह तपस्वी पुरानी कथाएँ कहने लगा। कर्म, धर्म और अनेकों प्रकार के इतिहास कहकर वह वैराग्य और ज्ञान का निरूपण करने लगा। सृष्टि की उत्पत्ति, पालन (स्थिति) और संहार (प्रलय) की अपार आश्चर्यभरी कथाएँ उसने विस्तार से कही। राजा सुनकर उस तपस्वी के वश में हो गया और तब वह उसे अपना नाम बताने लगा।' 

तपस्वी ने कहा - राजन ! मैं तुमको जानता हूँ। तुमने कपट किया, वह मुझे अच्छा लगा। हे राजन्‌! सुनो, ऐसी नीति है कि राजा लोग जहाँ-तहाँ अपना नाम नहीं कहते। तुम्हारी वही चतुराई समझकर तुम पर मेरा बड़ा प्रेम हो गया है। तुम्हारा नाम प्रतापभानु है, महाराज सत्यकेतु तुम्हारे पिता थे। हे राजन्‌! गुरु की कृपा से मैं सब जानता हूँ, पर अपनी हानि समझकर कहता नहीं। हे तात! तुम्हारा स्वाभाविक सीधापन (सरलता), प्रेम, विश्वास और नीति में निपुणता देखकर मेरे मन में तुम्हारे ऊपर बड़ी ममता उत्पन्न हो गई है, इसीलिए मैं तुम्हारे पूछने पर अपनी कथा कहता हूँ। अब मैं प्रसन्न हूँ, इसमें संदेह न करना। हे राजन्‌! जो मन को भावे वही माँग लो। 

सुंदर (प्रिय) वचन सुनकर राजा हर्षित हो गया और मुनि के पैर पकड़कर उसने बहुत प्रकार से विनती की - हे दयासागर मुनि! आपके दर्शन से ही चारों पदार्थ (अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष) मेरी मुट्ठी में आ गए। तो भी स्वामी को प्रसन्न देखकर मैं यह दुर्लभ वर माँगकर (क्यों न) शोकरहित हो जाऊँ। मेरा शरीर वृद्धावस्था, मृत्यु और दुःख से रहित हो जाए, मुझे युद्ध में कोई जीत न सके और पृथ्वी पर मेरा सौ कल्पतक एकछत्र अकण्टक राज्य हो। 

तपस्वी ने कहा - हे राजन्‌! तथास्तु (ऐसा ही हो), पर एक बात कठिन है, उसे भी सुन लो। हे पृथ्वी के स्वामी! केवल ब्राह्मण कुल को छोड़ काल भी तुम्हारे चरणों पर सिर नवाएगा। तप के बल से ब्राह्मण सदा बलवान रहते हैं। उनके क्रोध से रक्षा करने वाला कोई नहीं है। हे नरपति! यदि तुम ब्राह्मणों को वश में कर लो, तो ब्रह्मा, विष्णु और महेश भी तुम्हारे अधीन हो जाएँगे। ब्राह्मण कुल से जोर जबर्दस्ती नहीं चल सकती, मैं दोनों भुजा उठाकर सत्य कहता हूँ। हे राजन्‌! सुनो, ब्राह्मणों के शाप बिना तुम्हारा नाश किसी काल में नहीं होगा। 

राजा उसके वचन सुनकर बड़ा प्रसन्न हुआ और कहने लगा- हे स्वामी! मेरा नाश अब नहीं होगा। हे कृपानिधान प्रभु! आपकी कृपा से मेरा सब समय कल्याण होगा। 

'एवमस्तु' (ऐसा ही हो) कहकर वह कुटिल कपटी मुनि फिर बोला- (किन्तु) तुम मेरे मिलने तथा अपने राह भूल जाने की बात किसी से कहना नहीं, यदि कह दोगे, तो हमारा दोष नहीं। हे राजन्‌! मैं तुमको इसलिए मना करता हूँ कि इस प्रसंग को कहने से तुम्हारी बड़ी हानि होगी। छठे कान में यह बात पड़ते ही तुम्हारा नाश हो जाएगा, मेरा यह वचन सत्य जानना। हे प्रतापभानु! सुनो, इस बात के प्रकट करने से अथवा ब्राह्मणों के शाप से तुम्हारा नाश होगा और किसी उपाय से, चाहे ब्रह्मा और शंकर भी मन में क्रोध करें, तुम्हारी मृत्यु नहीं होगी। 

राजा ने मुनि के चरण पकड़कर कहा- हे स्वामी! सत्य ही है। ब्राह्मण और गुरु के क्रोध से, कहिए, कौन रक्षा कर सकता है? यदि ब्रह्मा भी क्रोध करें, तो गुरु बचा लेते हैं, पर गुरु से विरोध करने पर जगत में कोई भी बचाने वाला नहीं है। यदि मैं आपके कथन के अनुसार नहीं चलूँगा, तो भले ही मेरा नाश हो जाए। मुझे इसकी चिन्ता नहीं है। मेरा मन तो हे प्रभो! केवल एक ही डर से डर रहा है कि ब्राह्मणों का शाप बड़ा भयानक होता है। वे ब्राह्मण किस प्रकार से वश में हो सकते हैं, कृपा करके वह भी बताइए। हे दीनदयालु! आपको छोड़कर और किसी को मैं अपना हितू नहीं देखता। 

तपस्वी ने कहा - हे राजन्‌ !सुनो, संसार में उपाय तो बहुत हैं, पर वे कष्ट साध्य हैं बड़ी कठिनता से बनने में आते हैं और इस पर भी सिद्ध हों या न हों उनकी सफलता निश्चित नहीं है हाँ, एक उपाय बहुत सहज है, परन्तु उसमें भी एक कठिनता है। हे राजन्‌! वह युक्ति तो मेरे हाथ है, पर मेरा जाना तुम्हारे नगर में हो नहीं सकता। जब से पैदा हुआ हूँ, तब से आज तक मैं किसी के घर अथवा गाँव नहीं गया। परन्तु यदि नहीं जाता हूँ, तो तुम्हारा काम बिगड़ता है। आज यह बड़ा असमंजस आ पड़ा है। 

यह सुनकर राजा कोमल वाणी से बोला - हे नाथ! वेदों में ऐसी नीति कही है कि बड़े लोग छोटों पर स्नेह करते ही हैं। पर्वत अपने सिरों पर सदा तृण (घास) को धारण किए रहते हैं। अगाध समुद्र अपने मस्तक पर फेन को धारण करता है और धरती अपने सिर पर सदा धूलि को धारण किए रहती है। 

ऐसा कहकर राजा ने मुनि के चरण पकड़ लिए और कहा - हे स्वामी! कृपा कीजिए। आप संत हैं। दीनदयालु हैं। अतः हे प्रभो! मेरे लिए इतना कष्ट अवश्य सहिए। 

राजा को अपने अधीन जानकर कपट में प्रवीण तपस्वी बोला - हे राजन्‌! सुनो, मैं तुमसे सत्य कहता हूँ, जगत में मुझे कुछ भी दुर्लभ नहीं है। मैं तुम्हारा काम अवश्य करूँगा, क्योंकि तुम, मन, वाणी और शरीर तीनों से मेरे भक्त हो। पर योग, युक्ति, तप और मंत्रों का प्रभाव तभी फलीभूत होता है जब वे छिपाकर किए जाते हैं। हे नरपति! मैं यदि रसोई बनाऊँ और तुम उसे परोसो और मुझे कोई जानने न पावे, तो उस अन्न को जो-जो खाएगा, सो-सो तुम्हारा आज्ञाकारी बन जाएगा। यही नहीं, उन भोजन करने वालों के घर भी जो कोई भोजन करेगा, हे राजन्‌! सुनो, वह भी तुम्हारे अधीन हो जाएगा। हे राजन्‌! जाकर यही उपाय करो और वर्षभर भोजन कराने का संकल्प कर लेना। नित्य नए एक लाख ब्राह्मणों को कुटुम्ब सहित निमंत्रित करना। मैं तुम्हारे सकंल्प के काल अर्थात एक वर्ष तक प्रतिदिन भोजन बना दिया करूँगा। 

'हे राजन्‌! इस प्रकार बहुत ही थोड़े परिश्रम से सब ब्राह्मण तुम्हारे वश में हो जाएँगे। ब्राह्मण हवन, यज्ञ और सेवा-पूजा करेंगे, तो उस प्रसंग (संबंध) से देवता भी सहज ही वश में हो जाएँगे। मैं एक और पहचान तुमको बताए देता हूँ कि मैं इस रूप में कभी न आऊँगा। हे राजन्‌! मैं अपनी माया से तुम्हारे पुरोहित को हर लाऊँगा। तप के बल से उसे अपने समान बनाकर एक वर्ष यहाँ रखूँगा और हे राजन्‌! सुनो, मैं उसका रूप बनाकर सब प्रकार से तुम्हारा काम सिद्ध करूँगा। हे राजन्‌! रात बहुत बीत गई, अब सो जाओ। आज से तीसरे दिन मुझसे तुम्हारी भेंट होगी। तप के बल से मैं घोड़े सहित तुमको सोते ही में घर पहुँचा दूँगा। मैं वही पुरोहित का वेश धरकर आऊँगा। जब एकांत में तुमको बुलाकर सब कथा सुनाऊँगा, तब तुम मुझे पहचान लेना।'

'राजा ने आज्ञा मानकर शयन किया और वह कपट-ज्ञानी आसन पर जा बैठा। राजा थका था, उसे खूब गहरी नींद आ गई। पर वह कपटी कैसे सोता। उसे तो बहुत चिन्ता हो रही थी। उसी समय वहाँ कालकेतु राक्षस आया, जिसने सूअर बनकर राजा को भटकाया था। वह तपस्वी राजा का बड़ा मित्र था और खूब छल-प्रपंच जानता था। उसके सौ पुत्र और दस भाई थे, जो बड़े ही दुष्ट, किसी से न जीते जाने वाले और देवताओं को दुःख देने वाले थे। ब्राह्मणों, संतों और देवताओं को दुःखी देखकर राजा ने उन सबको पहले ही युद्ध में मार डाला था।'

'उस दुष्ट ने पिछला बैर याद करके तपस्वी राजा से मिलकर सलाह विचारी षड्यंत्र किया और जिस प्रकार शत्रु का नाश हो, वही उपाय रचा। भावीवश राजा प्रतापभानु कुछ भी न समझ सका। तेजस्वी शत्रु अकेला भी हो तो भी उसे छोटा नहीं समझना चाहिए। जिसका सिर मात्र बचा था, वह राहु आज तक सूर्य-चन्द्रमा को दुःख देता है।'

तपस्वी राजा अपने मित्र को देख प्रसन्न हो उठकर मिला और सुखी हुआ। उसने मित्र को सब कथा कह सुनाई, तब राक्षस आनंदित होकर बोला - वाह ! मित्र आज तुमने अपने कपट जाल में इस राजा को जिस प्रकार लपेटा है हम राक्षसों को भी मात दे दी। हमारा यह घौर शत्रु कदापि नहीं जान पाएगा की हमने इसके सम्पूर्ण वंश के विनाश के लिए ही यह षड़यंत्र रचा है। हे राजन्‌! सुनो, जब तुमने मेरे कहने के अनुसार इतना काम कर लिया, तो अब मैंने शत्रु को वश में कर ही लिया समझो। तुम अब चिन्ता त्याग सो रहो। विधाता ने बिना ही दवा के रोग दूर कर दिया। कुल सहित शत्रु को जड़-मूल से उखाड़-बहाकर, आज से चौथे दिन मैं तुमसे आ मिलूँगा। 

इति श्रीमद् राम कथा रावण चरित्र अध्याय-३ का भाग-२०(20) समाप्त ! 


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