भाग-२०(20) इक्ष्वाकु के वंश का वर्णन, मान्धाता के जन्म की कथा

 


सूतजी कहते हैं - ऋषियों! अम्बरीष के तीन पुत्र थे- विरूप, केतुमान् और शम्भु। विरूप से पृषदश्व और उसका पुत्र रथीतर हुआ। रथीतर सन्तानहीन था। वंश परम्परा की रक्षा के लिये उसने अंगिरा ऋषि से प्रार्थना की, उन्होंने उसकी पत्नी से ब्रह्मतेज से सम्पन्न कई पुत्र उत्पन्न किये। यद्यपि ये सब रथीतर की भार्या से उत्पन्न हुए थे, इसलिये इनका गोत्र वही होना चाहिये था, जो रथीतर का था, फिर भी वे आंगिरस ही कहलाये। ये ही रथीतर-वंशियों के प्रवर (कुल में सर्वश्रेष्ठ पुरुष) कहलाये। क्योंकि ये क्षत्रोपेत ब्राह्मण थे-क्षत्रिय और ब्राह्मण दोनों गोत्रों से इनका सम्बन्ध था।

सूतजी कहते हैं - हे शौनकादि ऋषियों! एक बार मनु जी के छींकने पर उनकी नासिका से इक्ष्वाकु नाम का पुत्र उत्पन्न हुआ। इक्ष्वाकु के सौ पुत्र थे। उनमें सबसे बड़े तीन थे- विकुक्षि, निमि और दण्डक। उनसे छोटे पचीस पुत्र आर्यावर्त के पूर्वभाग के और पचीस पश्चिम भाग के तथा उपर्युक्त तीन मध्य भाग के अधिपति हुए। शेष सैंतालीस दक्षिण आदि अन्य प्रान्तों के अधिपति हुए।

'एक बार राजा इक्ष्वाकु अष्टका श्राद्ध का आरम्भ कर अपने पुत्र विकुक्षिको आज्ञा दी कि श्राद्धके योग्य मांस लाओ। उसने 'बहुत अच्छा' कह उनकी आज्ञाको शिरोधार्य किया और धनुष्य-बाण लेकर वनमें आ अनेकों मृगोंका वध किया, किंतु अति थका- मांदा और अत्यन्त भूखा होनेके कारण विकुक्षिने उनमेंसे एक शशक (खरगोश) खा लिया और बचा हुआ मांस लाकर अपने पिताको निवेदन किया।' 

उस मांस का प्रोक्षण (जल का छिड़काव) करनेके लिये प्रार्थना किये जाने पर इक्ष्वाकु के कुल - पुरोहित वशिष्ठ ने कहा 'इस अपवित्र मांसकी क्या आवश्यकता है? तुम्हारे दुरात्मा पुत्रने इसे भ्रष्ट कर दिया है, क्योंकि उसने इसमें से एक शशक खा लिया है। गुरुके ऐसा कहनेपर, तभीसे विकुक्षिका नाम शशाद पड़ा और पिताने उसको त्याग दिया। पिताके मरनेके अनन्तर उसने इस पृथ्वी धर्म धर्मानुसार शासन किया। उस शशाद के पुरंजय नामक पुत्र हुआ। उसका जन्म नाम पुत्रजया था।   

पूर्वकाल में त्रेता युग में एक बार अति भीषण देवासुर संग्राम हुआ उसमें महाबलवान् दैत्यगणसे पराजित हुए देवताओं ने भगवान विष्णु की आराधना की। तब आदि-अन्त-शून्य, अशेष जगत प्रतिपालक, श्री नारायण ने देवताओं से प्रसन्न होकर कहा - आप-लोगों का जो कुछ अभीष्ट है वह मैंने जान लिया है । उसके विषय में यह बात सुनिये - राजर्षि शशाद का जो पुत्रजया नामक पुत्र है उस क्षत्रिय श्रेष्ठ के शरीर में मैं अंशमात्र से स्वयं अवतीर्ण होकर उन सम्पूर्ण दैत्यों का नाश करूँगा अतः तुम लोग परिजन दैत्यों का वध के लिये तैयारी कर। 

यह सुनकर देवताओं ने विष्णु भगवान को प्रणाम किया और पुत्रजया के पास जाकर उससे कहा - हे क्षत्रिय श्रेष्ठ ! हमलोग चाहते हैं कि अपने शत्रुओं के वध में प्रवृत्त हम लोगों की आप सहायता करें । हम अभ्यागत जनों का आप मानभंग न करें । 

यह सुनकर पुत्रजया ने कहा - ‘यदि देवराज इन्द्र मेरे वाहन बनें तो मैं युद्ध कर सकता हूँ।’ पहले तो इन्द्र ने अस्वीकार कर दिया, परन्तु देवताओं के आराध्यदेव सर्वशक्तिमान् विश्वात्मा भगवान् की बात मानकर वे एक बड़े भारी बैल बन गये। सर्वान्तर्यामी भगवान् विष्णु ने अपनी शक्ति से पुत्रजया को भर दिया। उन्होंने कवच पहनकर दिव्य धनुष और तीखे बाण ग्रहण किये। इसके बाद बैल पर चढ़कर वे उसके ककुद् (डील) के पास बैठ गये। जब इस प्रकार वे युद्ध के लिये तत्पर हुए, तब देवता उनकी स्तुति करने लगे। देवताओं को साथ लेकर उन्होंने पश्चिम की ओर से दैत्यों का नगर घेर लिया।

'वीर पुत्रजया का दैत्यों के साथ अत्यन्त रोमांचकारी घोर संग्राम हुआ। युद्ध में जो-जो दैत्य उनके सामने आये पुत्रजया ने बाणों के द्वारा उन्हें यमराज के हवाले कर दिया। उनके बाणों की वर्षा क्या थी, प्रलयकाल की धधकती हुई आग थी। जो भी उसके सामने आता, छिन्न-भिन्न हो जाता। दैत्यों का साहस जाता रहा। वे रणभूमि छोड़कर अपने-अपने घरों में घुस गये। पुत्रजया ने उनके नगर, धन और ऐश्वर्य-सब कुछ जीतकर इन्द्र को दे दिया। इसी से उन राजर्षि को पुर जीतने के कारण ‘पुरंजय’, इन्द्र को वाहन बनाने के कारण ‘इन्द्रवाह’ और बैल के ककुद पर बैठने के कारण कुकुत्स्थ कहा जाता है।'

कुकुत्स्थ के अनेना नामक पुत्र हुआ। अनेना के पृथु, पृथु के विष्टराश्व, उनके चान्द्र युवनाश्व तथा उस चान्द्र युवनाश्व के शावस्त नामक पुत्र शावस्त के बृहदश्व तथा बृहदश्व के शावस्त नामक पुत्र हुआ जिसने श्रावस्ती पुरी बसायी थी। शावस्तके बृहदश्व तथा बृहदश्व के कुवलाश्व का जन्म हुआ, जिसने वैष्णव तेज से पूर्णता लाभ कर इन्होंने उतंक ऋषि को प्रसन्न करने के लिये अपने इक्कीस हजार पुत्रों को साथ लेकर धुन्धु नामक दैत्य का वध किया। इसी से उनका नाम हुआ ‘धुन्धुमार’। धुन्धु दैत्य के मुख की आग से उनके सब पुत्र जल गये। केवल तीन ही बच रहे थे। उनमें से केवल दृढ़ाश्व, चन्द्रश्व और कपिलाश्व - ये तीन ही बचे थे। 

'दृढाश्व से हर्यश्व, हर्यश्व से निकुम्भ, निकुम्भ से अमिताश्व, अमिताश्व से कृशाश्व, कृशाश्व से प्रसेनजित् और प्रसेनजित से युवनाश्व का जन्म हुआ।  युवनाश्व निःसन्तान होने के कारण खिन्न चित्त से मनुईश्वरों के आश्रमों मे रहा करता था; उसके दुःख से द्रवीभूत होकर दयालु मुनिजनों ने उसके पुत्र उप्तन्न होने के लिये यज्ञ अनुष्ठान किया।' 

'आधी रात के समय उस यज्ञ के समाप्त होने पर मुनि जन मन्त्र पूत जल का कलश वेद में रखकर सो गये। उनके सो जानेपर अत्यन्त प्यास लगने के कारण राजा ने उस स्थान में प्रवेश किया और सोये होने के कारण उन ऋषियों को उन्होंने नहीं जगाया तथा उस अपरिमित माहात्म्यशाली कलश के मन्त्न पूत जल को पी लिया।' 

जागनेपर ऋषियोंने पूछा - इस मन्त्न पुत जल को किसने पिया है? इसका पान करने पर ही युवनाश्व की पत्नी महाबलविक्रमशील पुत्र उप्तन्न करेगी  यह सुनकर राजा ने कहा - मैंने ही बिना जाने यह जल पी लिया है। अतः युवनाश्व के उदर में गर्भ स्थापित हो गया और क्रमशः बढ़ने लगा।  यथासमय बालक राजा की दायीं कोख फाड़कर निकल आया। किंतु इससे राजा की मृत्यु नहीं हुई। 

उसके जन्म लेने पर मुनियों ने कहा -  यह बालक क्या पान करके जीवित रहेगा ? यह किसका दूध पियेगा? उसी समय देवराज इन्द्रने आकर कहा - 'माँ धाता' अर्थात 'यह मेरे आश्रय - जीवित रहेगा।' अतः उसका नाम मान्धता हुआ। देवेन्द्र ने उसके मुख में अपनी तर्जनी (अंगूठे के पास की) अँगुली दे दी और वह उसे पीने लगा। उस अमृतमयी अँगुली का आस्वादन करने से वह एक ही दिन में बढ़ गया। इन्द्र ने उस बालक का नाम रखा त्रसद्दस्यु, क्योंकि रावण आदि दस्यु (लुटेरे) उससे उद्विग्न एवं भयभीत रहते थे। युवनाश्व के पुत्र मान्धाता (त्रसद्दस्यु) चक्रवर्ती राजा हुए। भगवान के तेज से तेजस्वी होकर उन्होंने अकेले ही सातों द्वीप वाली पृथ्वी का शासन किया। तभी से चक्रवर्ती मान्धाता सप्तद्वीपा पृथ्वी का राज्य भोगने लगा। इसके विषय में कहा जाता है  'जहां से सूर्योदय होता है और जहाँ अस्त होत है वह सभी क्षेत्र युवनाश्वके पुत्र मान्धाता का है'।  

वे यद्यपि आत्मज्ञानी थे, उन्हें कर्म-काण्ड की कोई विशेष आवश्यकता नहीं थी। फिर भी उन्होंने बड़ी-बड़ी दक्षिणा वाले यज्ञों से उन यज्ञ स्वरूप प्रभु की आराधना की जो स्वयंप्रकाश, सर्वदेवस्वरूप, सर्वात्मा एवं इन्द्रियातीत हैं। भगवान् के अतिरिक्त और है ही क्या? यज्ञ की सामग्री, मन्त्र, विधि-विधान, यज्ञ, यजमान, ऋत्विज्, धर्म, देश और काल-यह सब-का-सब भगवान् का ही स्वरूप तो है।'

इति श्रीमद् राम कथा वंश चरित्र अध्याय-२ का भाग-२०(20) समाप्त !

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