'वेद धर्म के पालक शिवजी ने अपनी प्रतिज्ञा पूरी करते हुए सती का मन से त्याग कर दिया। फिर सती से कुछ न कहकर वे कैलाश की ओर बढे। मार्ग में सतीजी को सुनाने के लिए आकाशवाणी हुई कि महायोगी शिव आप धन्य हैं। आपके समान तीनों लोक में कोई भी प्रतिज्ञा-पालक नहीं है। इस आकाशवाणी को सुनते ही देवी सती शांत हो गयी। उनकी कांति फीकी पड़ गयी। तब उन्होंने भगवान शिव से पूछा - हे प्राणनाथ आपने कौनसी प्रतिज्ञा की है ? कृपया आप मुझे बताइये। परन्तु प्रतिज्ञाबद्ध भगवान शिव ने सती को कुछ नहीं बताया।'
'तब देवी सती ने भगवान शिव का ध्यान करके उन सभी कारणों को जान लिया, जिसके कारण भगवान शिव ने उनका त्याग किया था। त्याग देने कि बात जानकर देवी सती अत्यंत दुखी हो गई। दुःख बढ़ने के कारण उनकी आँखों में आंसू आ गए और वह सिसकने लगी। उनके मनोभावों को समझकर और देवी सती की ऐसी हालत देखकर भगवान शिव ने अपनी प्रतिज्ञा की बात उनके सामने नहीं कही। तब सती का मन बहलाने के लिए शिवजी उन्हें अनेकानेक कथाएं सुनाते हुए कैलाश की ओर चल दिए। कैलाश पर पहुंचकर, शिवजी अपने स्थान पर बैठकर समाधि लगाकर ध्यान करने लगे। सती ने दुखी मन से अपने धाम में रहना शुरू कर दिया।'
'भगवान शिव को समाधि में बैठे बहुत समय बीत गया। तत्पश्चात शिवजी ने अपनी समाधि तोड़ी। जब देवी सती को पता चला तो वे शिवजी के पास दौड़कर तुरंत चली आईं। वहां आकर उन्होंने शिवजी के चरणों में प्रणाम किया। भगवान शिव ने उन्हें अपने सम्मुख आसन दिया और उन्हें प्रेमपूर्वक बहुत सी कथाएं सुनाई। कथा सुनते हुए शिवजी ने देवी सती को एक पुरानी घटना का स्मरण करवाया।'
सूतजी कहते हैं - हे मुनियों ! मैं अब आपको वह कथा सुनाता हूँ जिसका स्मरण भगवान शिव देवी सती को करवा रहे हैं। यह कथा जो भी मनुष्य महाशिवरात्रि के दिन मन लगाकर सुनता है अथवा कहता है तो उसे करोड़ों पुण्यों के बराबर फल प्राप्त होता है।
यह कथा उस समय की है जब सत युग में भगवान शिव का विवाह प्रजापति दक्ष की पुत्री सती से हुआ था। एक बार महाशिवरात्रि के पावन अवसर पर माता सती सभी रुद्रगणों, देवी-देवताओं सहित भगवान शिव की कैलाश पर पूजा कर रही थी। उस समय स्वयं भगवान शिव अपने स्थान पर विराजमान थे और स्नेह पूर्वक भोग ग्रहण कर रहे थे। उसी समय नारद जी कैलाश आते है और माता सती एवं महादेव को प्रणाम करते हैं। देवर्षि नारद के मुख पर कुछ चिंता की लकीरें देख कर माता सती ने उनसे इसका कारण पूछा तब नारद जी बोले "हे महादेव! आप मेरी धृष्टता को क्षमा करें किन्तु अभी मैं पृथ्वी लोक से एक भील आदिवासी गुह ध्रुव को व्यथित देख कर आया हूँ, यह जानते हुए भी की इसमें भी आपकी लीला है, हे दयानिधान! उस भील पर कृपा करें।" नारद जी के मुख से उस भील का नाम सुनकर माता सती को सब कुछ जानने की इच्छा हुई। तब महादेव के आदेश पर नारद जी ने माता सती को भील का प्रसंग सुनाया "हे माता! गुह ध्रुव एक आदिवासी है जो वन में अपने दो बच्चों तथा अपनी पत्नी के साथ निवास करता है। वह अपने परिवार का भरण पोषण शिकार के माध्यम से ही करता है। आज प्रातः काल जब वह एक हिरणी का शिकार कर रहा था तो उसका पीछा करते-करते दूर तक आ गया। हिरणी के दिखाई न देने पर वह उसकी प्रतीक्षा करने के लिए विल्व वृक्ष के ऊपर बैठ गया। उसी वृक्ष के निचे एक प्राकृतिक शिव लिंग बना हुआ था। जिससे वह अनभिज्ञ था। हिरणी की प्रतीक्षा करते-करते अज्ञानता वश विल्व के पत्ते तोड़कर उस पवित्र शिव लिंग पर डाल रहा था।"
कुछ समय पश्चात तभी अचानक से शिव लिंग से एक
दिव्य ज्योति प्रकट होती है और उस शिकारी में समां जाती है। उसके बाद जैसे ही वह
हिरणी उस शिकारी के समीप आती है वह उस पर धनुष से लक्ष्य साधता है किन्तु चाहते
हुए भी बाण नहीं मार पाता है। तभी उसे दिव्य ज्योति के प्रभाव से हिरणी की भाषा
समझ आने लगती है। हिरणी शिकारी से कहती है "आप मुझ पर बाण नहीं चला रहे
कदाचित आपको मुझ पर दया आ गयी है। मैं आपकी बहुत आभारी हूँ की आपने मेरे बच्चों को
अनाथ होने से बचा लिया।" यह सब सुनकर भील आश्चर्यचकित हो जाता है और हिरणी से
कहता है की मुझे तुम पर कोई दया नहीं आती शिकार करना मेरा धर्म है और तुम्हे मारकर
मैं अपने परिवार का पेट भरता हूँ जिससे मेरे कर्त्तव्य का पालन होता है। मैं वही
करता हूँ जो एक पिता को करना चाहिए। शिकारी की बातें सुनकर हिरणी उससे प्रार्थना
करती है की तुम मुझे एक बार घर जाने दो मेरे बच्चे मेरी राह देखते होंगे। शिकारी
कहता है की यदि वो उसे छोड़ देगा तो उसके बच्चे भूख से तड़प कर मर जाएंगे और मैं ऐसा
नहीं होने दूंगा। तब हिरणी पुनः निवेदन करती है की एक बार मै अपने घर जाकर उनको
अंतिम दर्शन दे आती हूँ, मुझे तुम्हारी पीड़ा का अनुमान
है जिस प्रकार मैं अपने बच्चों के लिए तड़प रही हूँ उसी प्रकार तुम भी अपने बच्चों
को भूख से बिलखता नहीं देख सकते। अतः मैं तुम्हे वचन देती हूँ की उनसे मिलने के
बाद मैं स्वयं तुम्हारे सामने आ जाउंगी तब मुझे मार कर तुम अपनी इच्छा पूरी कर लेना। शिकारी को उस पर दया आ जाती है और वह
उसे इस शर्त पर छोड़ता है की उसे वापस आना होगा। हिरणी आभार प्रकट कर वहां से चली
जाती है। शिकारी सोचता है की उसे क्या हो गया अचानक उसके मन में ये दया भाव कैसे
जाग गया?
शिकारी हिरणी की प्रतीक्षा में पुनः पत्ते तोड़ता
है और अज्ञानता में शिवलिंग पर चढ़ाता है। बहुत प्रतीक्षा करने के बाद उसे एक ओर
हिरणी दिखती है। उसी क्षण वही दिव्य ज्योति फिर शिवलिंग से निकल कर उस शिकारी में
समां जाती है। जैसे ही शिकारी उस हिरणी को अपना शिकार बनाने के लिए तैयार होता है, हिरणी बोलती है मुझे मत मारो मैं यहाँ अपनी बहिन
को देखने आयी थी जो बहुत समय से घर नहीं लोटी है क्या तुमने उसे मार डाला है अथवा
उसे कही देखा है। इस पर शिकारी बोलता है की तुम्हारी बहिन यहाँ आयी थी पर वह मुझे
झूठा वचन देकर भाग गई अब मैं तुम्हे मार कर अपने बच्चों की भूख शांत करूंगा। हिरणी
बोली मैं भी तुमसे निवेदन करती हूँ और यह वचन देती हूँ की एक बार मैं अपनी बहिन को
घर देख कर आ जाऊ उसके बाद हम दोनों बहिने अपने घर से विदा लेकर स्वयं तुम्हारा
शिकार बनने के लिए यहाँ आ
जाएंगी। शिकारी का मन फिर पसीज जाता है और वह उसे भी वापस आने की शर्त पर छोड़ देता
है। शिकारी फिर सोचता है की आज उसे क्या हो रहा है यदि मैं इसी प्रकार इन जीव
जन्तुओ पर दया करता रहा तो मेरे परिवार वाले भूखे मर जाएंगे। एक पाप को छोड़कर मैं
दूसरा पाप तो नहीं कर सकता।
शिकारी फिर वही क्रिया दोहराता है। पत्ते तोड़कर
शिवलिंग पर फेंकता है। तीसरी बार भी दिव्य ज्योति निकलती है और उसके शरीर में समां
जाती है। इस बार एक हिरण वहां आता है उसे देख कर शिकारी यह सोचकर बाण का संधान
करता है की इस बार वह अपने शिकार को नहीं जाने दे सकता। यह देखकर हिरण बोला मुझे
मत मारो मैं अपनी पत्नी और बहिन को खोजने आया हूँ। वे दोनों घर से बाहर हैं, बच्चे उनकी प्रतीक्षा कर रहे हैं ऊपर से रात भी
होने को आयी है। हिरण की बाते सुन शिकारी ने कहा की तुम और तुम्हारा परिवार मुझे
झूठे वचनो में फसाकर बचाना चाहता है किन्तु तुम्हारे लिए मैं अपने परिवार की बलि
नहीं दे सकता। किन्तु इस बार शिकारी की आँखों से अश्रु बहने लगते हैं और चाहते हुए
भी वह उस हिरण को नहीं मार पाता। तब शिकारी उससे कहता है की जाओ यहाँ से इससे पहले
की मेरा मन बदल जाए अपने प्राणों की रक्षा करो। हिरण ने उसका धन्यवाद किया और पुनः
अपनी पत्नी तथा बहिन के साथ उसका शिकार बनने के लिए वापस आने को कहा।
हिरण के जाते ही शिकारी की दृष्टि वृक्ष के निचे
बने शिवलिंग पर जाती है। उसे देख कर वह निचे उतरता है और शिवलिंग के ऊपर जमा धुल
को साफ करता है तथा उससे लिपट कर रोता है। वह भगवान से कहता है की हे प्रभु! आज
मुझे क्या हो गया है यदि मैं दया करता हूँ तो अपने परिवार के प्रति मेरा कर्त्तव्य नष्ट होता है और यदि अपने कर्त्तव्य का
पालन करता हूँ तो निरपराध प्राणियों के वध का पाप लगता है। आप ही बताइये मैं क्या
करूँ?
नारद जी द्वारा भील की इस व्यथा को सुनने के बाद
माता सती महादेव से उसका मार्गदर्शन करने का आग्रह करती हैं। तब भगवान शिव माता
सती से पूछते हैं की तुम ही बताओ देवी हमे क्या करना चाहिए।" प्रभु भील के मन
में यह दया भाव आज महाशिवरात्रि के दिन उसके द्वारा भूखे रह कर अज्ञानता में पावन
विल्व वृक्ष के पत्तों से आपकी पूजा करने का प्रतिफल है। अब कृपा कर उसे दर्शन
देकर उसका मार्गदर्शन करें।" माता सती के वचन सुन कैलाशपति भील को दर्शन देते
हैं उस समय वे तीनो हिरण और हिरणी अपने वचनानुसार वहा पहुँच जाते हैं। भगवान शंकर
को अपने सामने देख कर शिकारी की वेशभूषा एक आदिवासी राजा की भांति हो जाती है और
वे तीनो हिरण भी जंतु से देव बन जाते हैं। यह देखकर शिकारी शिवजी क़े चरणों में गिर
पड़ता है तब महादेव उसे वरदान देते हैं की मेरे आशीर्वाद से आज महाशिवरात्रि के दिन
तुम्हारे सारे पाप धुल चुके हैं अब तुम श्रृंगवेरपुर क़े राजा बनोगे तथा त्रेता युग
तक जीवित रहोगे। त्रेता युग में जब भगवान विष्णु श्री राम क़े रूप में मनुष्य अवतार
लेंगे तब तुम उनके परम मित्र बनकर उनकी सेवा करोगे। इसी प्रकार उन तीनो हिरण-हिरणी
को महादेव वर देते हैं की तुम तीनो ने अपने प्राणो का भय छोड़कर अपने वचन का पालन
किया अतः मेरे आशीर्वाद से तुम स्वर्ग लोक में जाकर निवास करो।
इस प्रकार महादेव की लीला से एक घोर पापी शिकारी भी महाशिवरात्रि के व्रत का पुण्य प्राप्त करता है तथा निशादराज गुह बनकर श्री राम के मित्र के रूप में उनकी सेवा का पुण्य फल प्राप्त करता है। उस भील के इस पुण्य कर्म से केवल वही नहीं अपितु उसका परिवार भी शिव कृपा प्राप्त करता है। उसी तरह जंतुओं पर भी भोलेनाथ अपनी कृपा बरसाते हैं।इससे देवी सती का शौक दूर हो गया। परन्तु शिवजी ने अपनी प्रतिज्ञा नहीं तोड़ी।
कथा का महात्म्य
ऋषि मुनि आदि सभी शिव और सती कि इन कथाओं को उनकी लीला का ही रूप मानते हैं क्योंकि वे तो साक्षात् परमेश्वर हैं। एक दूसरे के पूरक हैं। भला उनमे वियोग कैसे संभव हो सकता है। उनकी इच्छाओं और लीलाओं से ही यह वियोग संभव है।
इस कथा से हमे यह शिक्षा मिलती है की यदि मनुष्य जब भगवान की शरण में जाने या अनजाने किसी भी प्रकार से जाता है तो उसे अपने सभी पाप कर्मो का बोध होने लगता है।तब भगवान के सामने प्रायश्चित करने से उसका ही नहीं वरन उसके पुरे परिवार का भला होता है और भोलेनाथ अपनी दया हम पर बरसाते हैं।
हे भोलेनाथ जिस प्रकार आपने उस भील पर कृपा की
वैसे ही हम पर भी कृपा करें।
ॐ नमः शिवाय! जय श्री राम!
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