यदि आपने किसी भी धर्मग्रन्थ या व्रत कथाओं को पढ़ा है तो आपके सामने पौराणिक "सूत जी" का नाम अवश्य आया होगा। कारण ये है कि सूत जी कदाचित हिन्दू धर्म के सबसे प्रसिद्ध वक्ता हैं। कारण ये कि पुराणों की कथा का प्रसार जिस स्तर पर उन्होंने किया है वैसा किसी और ने नहीं किया। किन्तु ये "सूत जी" वास्तव में हैं कौन?
सूतजी की कथा
सूत जी का वास्तविक नाम "रोमहर्षण" था। उनका रोमहर्षण नाम इसीलिए पड़ा क्योंकि उनका सत्संग पाकर श्रोताओं का रोम-रोम हर्ष से भर जाता था। उन्हें सूत जी इसीलिए कहते हैं क्योंकि वे सूत समुदाय से थे। उनकी माता ब्राह्मणी और पिता क्षत्रिय थे जिस कारण वे सूत के रूप में जन्में। हालाँकि पुराणों की एक अन्य कथा के अनुसार उनका जन्म यज्ञ की अग्नि से हुआ था।
एक बार सम्राट पृथु ने एक महान यज्ञ का आयोजन किया जिसके अंत में सभी देवताओं को हविष्य (हवन की सामग्री) दिया जा रहा था। ब्राह्मणों ने भूल से देवराज इंद्र को अर्पित किये जाने वाले सोमरस में देवगुरु बृहस्पति के हविष्य का अंश मिला दिया। जब उस हविष्य को अग्नि में डाला गया तो उसी से रोमहर्षण की उत्पत्ति हुई। चूँकि उनका जन्म इंद्र (क्षत्रिय गुण) और बृहस्पति (ब्राह्मण गुण) के मेल से हुआ था, इसलिए उन्हें "सूत" माना गया।
जब महर्षि वेदव्यास ने महापुराणों की रचना की तो उनके मन में चिंता हुई कि इस ज्ञान को कैसे सहेजा जाये। उनके कई शिष्य थे किन्तु कोई भी उन सभी 18 पुराणों को सम्पूर्ण रूप से आत्मसात नहीं कर पाए। जब सूत जी किशोरावस्था में पहुंचे तो एक योग्य गुरु की खोज करते हुए महर्षि वेदव्यास के पास पहुंचे। आज ये माना जाता है कि सूत कुल के व्यक्ति को वेदाभ्यास का अधिकार नहीं था, ये बिलकुल गलत है। क्योंकि महर्षि वेदव्यास ने रोमहर्षण को अपने शिष्य के रूप में स्वीकार कर लिया।
उनके आश्रम में सूत जी की विशेष रूप से वेदव्यास के एक अन्य शिष्य शौनक ऋषि से घनिष्ठ मित्रता हो गयी। ये दोनों महर्षि व्यास के सर्वश्रेष्ठ शिष्यों में से एक माने जाते हैं। रोमहर्षण ने अपनी प्रतिभा से व्यास रचित सभी 18 महापुराणों को कंठस्थ कर लिया। ये देख कर व्यास मुनि बड़े प्रसन्न हुए और उन्होंने रोमहर्षण से उस अथाह ज्ञान का प्रसार करने को कहा।
तत्पश्चात रोमहर्षण ने अपने गुरु महर्षि व्यास से अपने पुत्र उग्रश्रवा को उनका शिष्य बनाने का अनुरोध किया। उग्रश्रवा अपने पिता के समान ही तेजस्वी थे जिसे देख कर व्यास जी ने उन्हें भी अपना शिष्य बना लिया। रोमहर्षण सभी वेद पुराणों का अध्ययन तो कर ही चुके थे, वे और अधिक ज्ञान प्राप्त करने के लिए परमपिता ब्रह्माजी की तपस्या करते हैं। ब्रह्मदेव ने प्रसन्न होकर उन्हें अलौकिक ज्ञान से परिपूर्ण कर दिया।
रोमहर्षण ने उनसे पूछा कि मुझे अपने गुरु से सभी पुराणों का ज्ञान प्राप्त हुआ है और आपने भी मुझे अलौकिक ज्ञान प्रदान किया है। अब मैं किस प्रकार इस ज्ञान का प्रसार करूँ? इस पर ब्रह्मदेव ने उन्हें एक दिव्य चक्र दिया और कहा कि इसे चलाओ और जिस स्थान पर ये रुक जाये वही अपना आश्रम स्थापित कर इस ज्ञान का प्रसार करो।
ब्रह्मा जी की आज्ञा पाकर रोमहर्षण ने उस चक्र को चलाया और वो जाकर "नैमिषारण्य" नामक स्थान पर रुक गया जो ८८०००(88000) तपस्वियों का स्थल था। इसी स्थल पर भगवान विष्णु ने निमिष (आंख झपकने में लगने वाला समय) भर में सहस्त्रों दैत्यों का संहार कर दिया था। इसी कारण उस प्रदेश का नाम नैमिषारण्य पड़ा। उसी पवित्र तीर्थ में रोमहर्षण ने अपना आश्रम स्थापित किया और प्रतिदिन सत्संग करने लगे।
कहा जाता है कि उनकी कथा कहने की शैली इतनी रोचक थी कि मनुष्य तो मनुष्य, जीव-जंतु भी उसे सुनने के लिए वहां आ जाते थे। उसी स्थान पर वे "सूत जी" के नाम से प्रसिद्ध हुए। उधर उनके पुत्र उग्रश्रवा भी महर्षि व्यास से शिक्षा लेकर पारंगत हो गए। उन्होंने अपने पिता से भी अधिक शीघ्रता से समस्त पुराणों का अध्ययन कर लिया और वे अपने पिता की भांति ही उस ज्ञान का प्रसार करने लगे।
एक बार नैमिषारण्य के सभी ८८०००(88000) ऋषियों ने महर्षि व्यास से ये अनुरोध किया कि वे उन्हें सभी महापुराणों की सम्पूर्ण कथाओं से अवगत कराएं। ये सुनकर महर्षि व्यास ने कहा कि इसके लिए आपको मेरी क्या आवश्यकता है? नैमिषारण्य में मेरे शिष्य रोमहर्षण हैं जो इन सभी कथाओं को सुना सकते है। आप सभी उन्हें "व्यास पद" पर आसीन कर पुराणों का ज्ञान प्राप्त करें। इस पर ऋषियों ने पूछा कि एक सूत को व्यास पद पर कैसे बिठाया जा सकता है? ये सुनकर महर्षि ने सभी को तत्वज्ञान दिया और बताया कि योग्यता जन्म से नहीं बल्कि कर्म से आती है।
ये सुनकर सभी ८८०००(88000) ऋषि नैमिषारण्य लौटे और सूत जी को व्यास गद्दी पर बिठा कर पुराणों का ज्ञान देने का अनुरोध किया। इसपर सूत जी ने १२ वर्षों का विशाल यज्ञ सत्र आयोजित किया जिसे सुनने उनके बाल सखा शौनक जी भी पधारे और यजमान का पद ग्रहण किया। सभी ऋषि शौनक जी के नेतृत्व पर उनसे प्रश्न करते थे और सूत जी उत्तर देते थे।
ऋषियों ने कहा - सूतजी ! आप निष्पाप हैं आपने समस्त इतिहास, पुराण और धर्मशास्त्रों का विधिपूर्वक अध्ययन किया है तथा उनकी भलीभांति व्याख्या भी की है। वेदवक्ताओं में श्रेष्ठ भगवान वेदव्यास ने एवं सगुण-निर्गुण रूप को जानने वाले दूसरे मुनियों ने जो कुछ जाना है - उन्हें जिन विषयों का ज्ञान है, वह सब आप वास्तविक रूप में जानते हैं। आपका हृदय बड़ा ही सरल और शुद्ध है, इसीसे आप उनकी कृपा और अनुग्रह के पात्र हुए हैं। गुरुजन अपने प्रेमी शिष्य को गुप्त से गुप्त बात भी बता दिया करते हैं। आयुष्मन ! आप कृपा करके यह बतलाइये कि उन सब शास्त्रों, पुराणों और गुरुजनों के उपदेशों में कलियुगी जीवों के परम कल्याण का सहज साधन आपने क्या निश्चय किया है। आप संत समाज के भूषण हैं। इस कलियुग में प्रायः लोगों कि आयु कम हो गयी है। साधन करने में लोगों कि रूचि और प्रवृति भी नहीं है। लोग आलसी हो गये हैं। उनका भाग्य तो मंद है ही, समझ भी थोड़ी है। इसके साथ ही वे नाना प्रकार की विघ्न बाधाओं से भी घिरे रहते हैं। शास्त्र तो बहुत से हैं किन्तु उनमे निश्चित साधन का नहीं अनेक कर्मों का वर्णन है। साथ ही वे इतने बड़े हैं कि उनका एक अंश भी सुनना कठिन है। आप परोपकारी हैं अतः अपनी बुद्धि से हमे वह सुनाइये जो समस्त प्राणियों के कल्याण के लिए सहज और सरल हो।
सूतजी कहते हैं- श्री रामचंद्रजी समस्त संसार को शरण देने वाले हैं। श्रीराम के बिना दूसरी कौनसी गति है। श्रीराम कलियुग के समस्त दोषों को नष्ट कर देते हैं; अतः श्रीरामचन्द्रजी को नमस्कार करना चाहिये। श्रीराम से कालरूपी भयंकर सर्प भी डरता है। जगत का सबकुछ भगवान श्रीराम के वश में है। श्रीराम में मेरी अखंड भक्ति बनी रहे। हे राम ! आप ही मेरे आधार हैं।
'चित्रकूट में निवास करने वाले, भगवती लक्ष्मी (सीता) के आनंद निकेतन और भक्तों को अभय देने वाले परमानन्द स्वरुप भगवान श्रीरामचन्द्रजी को मैं नमस्कार करता हूँ।'
'सम्पूर्ण जगत के अभीष्ट मनोरथों को सिद्ध करनेवाले (अर्थात सृष्टि, पालन एवं संहार के द्वारा जगत की व्यावहारिक सत्ता को सिद्ध करने वाले), ब्रह्मा, विष्णु और महेश आदि देवता जिनके अभिन्न अंशमात्र हैं, उन परम विशुद्ध सच्चिदानंमय परमात्म देव श्रीरामचन्द्रजी को मैं नमस्कार करता हूँ तथा उन्ही के भजन चिंतन में मन लगता हूँ।'
'मैं श्री रघुनाथजी के नाम 'राम' की वंदना करता हूँ, जो कृशानु (अग्नि), भानु (सूर्य) और हिमकर (चन्द्रमा) का हेतु अर्थात् 'र' 'आ' और 'म' रूप से बीज है। वह 'राम' नाम ब्रह्मा, विष्णु और शिवरूप है। वह वेदों का प्राण है, निर्गुण, उपमारहित और गुणों का भंडार है।'
'जो महामंत्र है, जिसे महेश्वर श्री शिवजी जपते हैं और उनके द्वारा जिसका उपदेश काशी में मुक्ति का कारण है तथा जिसकी महिमा को गणेशजी जानते हैं, जो इस 'राम' नाम के प्रभाव से ही सबसे पहले पूजे जाते हैं।'
'आदिकवि श्री वाल्मीकिजी रामनाम के प्रताप को जानते हैं, जो उल्टा नाम ('मरा', 'मरा') जपकर पवित्र हो गए। श्री शिवजी के इस वचन को सुनकर कि एक राम-नाम सहस्र नाम के समान है, पार्वतीजी सदा अपने पति (श्री शिवजी) के साथ राम-नाम का जप करती रहती हैं।'
ऋषिगण कहते हैं - हे सर्व तत्वों के ज्ञाता सूतजी ! अभी आपने जो कहा उसे सुनकर हमारे मन में सर्वप्रथम तो यह जानने की इच्छा है कि राम नाम की महिमा कितनी विशाल है। जितना भी आप इसके विषय में जानते हैं कृपा कर हमे बतलायें।
'दूसरा हमे यह बताने कि कृपा करें कि भगवान विश्वनाथ और जगद्जननी माता पार्वती भी इस राम नाम का जाप किस प्रकार करते हैं ?'
'और इसके उपरांत हमे यह बतलायें कि भगवान वाल्मीकि जिन्होंने सम्पूर्ण रामायण को सर्वप्रथम काव्यबद्ध किया उनकी 'मरा-मरा' जपने के पीछे क्या लीला थी ?'
इति श्रीमद् राम कथा रामायण माहात्म्य अध्याय का भाग-१ समाप्त !
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