यह सारी पृथ्वी पूर्वकाल में प्रजापति मनु से लेकर अब तक जिस वंश के विजयशाली नरेशों के अधिकार में रही है, जिन्होंने समुद्र को खुदवाया था और जिन्हें यात्राकाल में साठ हजार पुत्र घेरकर चलते थे, वे महाप्रतापी राजा सगर जिनके कुल में उत्पन्न हुए, इन्हीं इक्ष्वाकुवंशी महात्मा राजाओं की कुलपरम्परा में रामायण नाम से प्रसिद्ध इस महान् ऐतिहासिक काव्य की अवतारणा हुई है। इसके द्वारा धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष चारों पुरुषार्थों की सिद्धि होती है; अत: आप लोग दोषदृष्टि का परित्याग करके इसका श्रवण करें।
कोशल नाम से प्रसिद्ध एक बहुत बड़ा जनपद है, जो सरयू नदी के किनारे बसा हुआ है। वह प्रचुर धनधान्य से सम्पन्न, सुखी और समृद्धिशाली है। उसी जनपद में अयोध्या नाम की एक नगरी है, जो समस्त लोकों में विख्यात है। उस पुरी को स्वयं महाराज मनु ने बनवाया और बसाया था। वह शोभाशालिनी महापुरी बारह योजन लम्बी और तीन योजन चौड़ी थी। वहाँ बाहर के जनपदों में जाने का जो विशाल राजमार्ग था, वह उभयपार्श्व में विविध वृक्षावलियों से विभूषित होने के कारण सुस्पष्ट तया अन्य मार्गों से विभक्त जान पड़ता था।
सुन्दर विभाग पूर्वक बना हुआ महान् राजमार्ग उस पुरी की शोभा बढ़ा रहा था। उसपर खिले हुए फूल बिखेरे जाते थे तथा प्रतिदिन उस पर जल का छिड़काव होता था। जैसे स्वर्ग में देवराज इन्द्र ने अमरावती पुरी बसायी थी, उसी प्रकार धर्म और न्याय के बल से अपने महान् राष्ट्र की वृद्धि करने वाले राजा दशरथ ने अयोध्यापुरी को पहले की अपेक्षा विशेष रूप से बसाया था। वह पुरी बड़े-बड़े फाटकों और किवाड़ों से सुशोभित थी। उसके भीतर पृथक्-पृथक् बाजारें थीं। वहाँ सब प्रकार के यन्त्र और अस्त्र-शस्त्र संचित थे। उस पुरी में सभी कलाओं के शिल्पी निवास करते थे।
स्तुति - पाठ करने वाले सूत और वंशावली का बखान करने वाले मागध वहाँ भरे हुए थे। वह पुरी सुन्दर शोभा से सम्पन्न थी। उसकी सुषमा की कहीं तुलना नहीं थी। वहाँ ऊँची-ऊँची अट्टालिकाएँ थीं, जिनके ऊपर ध्वज फहराते थे। सैकड़ों शतनियों (तोपों) से वह पुरी व्याप्त थी। उस पुरी में ऐसी बहुत-सी नाटक - मण्डलियाँ थीं, जिनमें केवल स्त्रियाँ ही नृत्य एवं अभिनय करती थीं। उस नगरी में चारों ओर उद्यान तथा आमों के बगीचे थे। लम्बाई और चौड़ाई की दृष्टि से वह पुरी बहुत विशाल थी तथा साखू के वन उसे सब ओर से घेरे हुए थे।
उसके चारों ओर गहरी खाई खुदी थी, जिसमें प्रवेश करना या जिसे लाँघना अत्यन्त कठिन था। वह नगरी दूसरोंके लिये सर्वथा दुर्गम एवं दुर्जय थी। घोड़े, हाथी, गाय-बैल, ऊँट तथा गदहे आदि उपयोगी पशुओं से वह पुरी भरी-पूरी थी। कर देने वाले सामन्त नरेशों के समुदाय उसे सदा घेरे रहते थे। विभिन्न देशों के निवासी वैश्य उस पुरी की शोभा बढ़ाते थे।
वहाँ के महलों का निर्माण नाना प्रकार के रत्नों से हुआ था। वे गगनचुम्बी प्रासाद पर्वतों के समान जान पड़ते थे। उनसे उस पुरी की बड़ी शोभा हो रही थी। बहुसंख्यक कूटागारों (गुप्तगृहों अथवा स्त्रियों के क्रीड़ाभवनों) से परिपूर्ण वह नगरी इन्द्र की अमरावती के समान जान पड़ती थी। उसकी शोभा विचित्र थी। उसके महलों पर सोने का पानी चढ़ाया गया था अथवा वह पुरी द्यूतफलक के- आकार में बसायी गयी थी। श्रेष्ठ एवं सुन्दरी नारियों के समूह उस पुरी की शोभा बढ़ाते थे। वह सब प्रकार के रत्नोंसे भरी-पूरी तथा सतमहले प्रासादों से सुशोभित थी।
पुरवासियों के घरों से उसकी आबादी इतनी घनी हो गयी थी कि कहीं थोड़ा-सा भी अवकाश नहीं दिखायी देता था। उसे समतल भूमि पर बसाया गया था। वह नगरी जड़हन धान के चावलों से भरपूर थी । वहाँ का जल इतना मीठा या स्वादिष्ट था, मानो ईख का रस हो। भूमण्डल की वह सर्वोत्तम नगरी दुन्दुभि, मृदंग, वीणा, पणव आदि वाद्यों की मधुर ध्वनि से अत्यन्त गूँजती रहती थी। देवलोक में तपस्या॒ से प्राप्त हुए सिद्धों के विमान की भाँति उस पुरी का भूमण्डल में सर्वोत्तम स्थान था। वहाँ के सुन्दर महल बहुत अच्छे ढंग से बनाये और बसाये गये थे। उनके भीतरी भाग बहुत ही सुन्दर थे। बहुत से श्रेष्ठ पुरुष उस पुरी में निवास करते थे।
जो अपने समूह से बिछुड़कर असहाय हो गया हो, जिसके आगे-पीछे कोई न हो (अर्थात् जो पिता और पुत्र दोनोंसे हीन हो) तथा जो शब्दवेधी बाण द्वारा बेधने योग्य हों अथवा युद्ध से हारकर भागे जा रहे हों, ऐसे पुरुषों पर जो लोग बाणों का प्रहार नहीं करते, जिनके सधे सधाये हाथ शीघ्रतापूर्वक लक्ष्यवेध करने में समर्थ हैं, अस्त्र-शस्त्रों के प्रयोग में कुशलता प्राप्त कर चुके हैं तथा जो वन में गर्जते हुए मतवाले सिंहों, व्याघ्रों और सूअरों को तीखे शस्त्रों से एवं भुजाओं के बल से भी बलपूर्वक मार डालने में समर्थ हैं, ऐसे सहस्रों महारथी वीरों से अयोध्यापुरी भरी-पूरी थी।
उसे महाराज दशरथ ने बसाया और पाला था। अग्निहोत्री, शम-दम आदि उत्तम गुणों से सम्पन्न तथा छहों अंगों सहित सम्पूर्ण वेदों के पारंगत विद्वानु श्रेष्ठ ब्राह्मण उस पुरी को सदा घेरे रहते थे। वे सहस्रों का दान करनेवाले और सत्य में तत्पर रहनेवाले थे। ऐसे महर्षिकल्प महात्माओं तथा ऋषियों से अयोध्यापुरी सुशोभित थी तथा राजा दशरथ उसकी रक्षा करते थे।
उस अयोध्यापुरी में रहकर राजा दशरथ प्रजावर्ग का पालन करते थे। वे वेदों के विद्वान् तथा सभी उपयोगी वस्तुओं का संग्रह करनेवाले थे। दूरदर्शी और महान् तेजस्वी थे। नगर और जनपद की प्रजा उनसे बहुत प्रेम रखती थी। वे इक्ष्वाकुकुल के अतिरथी - वीर थे। यज्ञ करनेवाले, धर्मपरायण और जितेन्द्रिय थे। महर्षियों के समान दिव्य गुणसम्पन्न राजर्षि थे। उनकी तीनों लोकों में ख्याति थी। वे बलवान्, शत्रुहीन, मित्रों से युक्त एवं इन्द्रियविजयी थे। धन और अन्य वस्तुओं के संचय की दृष्टि से इन्द्र और कुबेर के समान जान पड़ते थे। जैसे महातेजस्वी प्रजापति मनु सम्पूर्ण जगत की रक्षा करते थे, उसी प्रकार महाराज दशरथ भी करते थे।
धर्म, अर्थ और काम का सम्पादन करने वाले कर्मों का अनुष्ठान करते हुए वे सत्यप्रतिज्ञ नरेश उस श्रेष्ठ अयोध्यापुरी का उसी तरह पालन करते थे, जैसे इन्द्र अमरावतीपुरी का। उस उत्तम नगर में निवास करनेवाले सभी मनुष्य प्रसन्न, धर्मात्मा, बहुश्रुत, निर्लोभ, सत्यवादी तथा अपने- अपने धन से संतुष्ट रहनेवाले थे। उस श्रेष्ठ पुरी में कोई भी ऐसा कुटुम्बी नहीं था, जिसके पास उत्कृष्ट वस्तुओं का संग्रह अधिक मात्रा में न हो, जिसके धर्म, अर्थ और काममय पुरुषार्थ सिद्ध न हो गये हों तथा जिसके पास गाय-बैल, घोड़े, धनधान्य आदि का अभाव हो।
अयोध्या में कहीं भी कोई कामी, कृपण, क्रूर, मूर्ख और नास्तिक मनुष्य देखने को भी नहीं मिलता था। वहाँ के सभी स्त्री-पुरुष धर्मशील, संयमी, सदा प्रसन्न रहनेवाले तथा शील और सदाचार की दृष्टि से महर्षियों की भाँति निर्मल थे। वहाँ कोई भी कुण्डल, मुकुट और पुष्पहार से शून्य नहीं था। किसी के पास भोग सामग्री की कमी नहीं थी। कोई भी ऐसा नहीं था, जो नहा-धोकर साफ-सुथरा न हो, जिसके अंगों में चन्दन का लेप न हुआ हो तथा जो सुगन्ध से वञ्चित हो।
अपवित्र अन्न भोजन करनेवाला, दान न देनेवाला तथा मन को काबू में न रखने वाला मनुष्य तो वहाँ कोई दिखायी ही नहीं देता था। कोई भी ऐसा पुरुष देखने में नहीं आता था, जो बाजूबन्द, निष्क (स्वर्णपदक या मोहर) तथा हाथ का आभूषण (कड़ा आदि) धारण न किये हो। अयोध्या में कोई भी ऐसा नहीं था, जो अग्निहोत्र और यज्ञ न करता हो; जो क्षुद्र, चोर, सदाचारशून्य अथवा वर्णसंकर हो। वहाँ निवास करने वाले ब्राह्मण सदा अपने कर्मों में लगे रहते, इन्द्रियों को वश में रखते, दान और स्वाध्याय करते तथा प्रतिग्रह से बचे रहते थे।
वहाँ कहीं एक भी ऐसा द्विज नहीं था, जो नास्तिक, असत्यवादी, अनेक शास्त्रों के ज्ञान से रहित, दूसरों के दोष ढूँढने वाला, साधन में असमर्थ और विद्याहीन हो। उस पुरी में वेद के छहों अंगों को न जानने वाला, व्रतहीन, सहस्रों से कम दान देनेवाला, दीन, विक्षिप्तचित्त अथवा दुःखी भी कोई नहीं था। अयोध्या में कोई भी स्त्री या पुरुष ऐसा नहीं देखा जा सकता था, जो श्रीहीन, रूपरहित तथा राजभक्ति से शून्य हो।
ब्राह्मण आदि चारों वर्णों के लोग देवता और अतिथियों के पूजक, कृतज्ञ, उदार, शूरवीर और पराक्रमी थे। उस श्रेष्ठ नगर में निवास करने वाले सब मनुष्य दीर्घायु तथा धर्म और सत्य का आश्रय लेने वाले थे। वे सदा स्त्री- पुत्र और पौत्र आदि परिवार के साथ सुख से रहते थे। क्षत्रिय ब्राह्मणों का मुँह जोहते थे, वैश्य क्षत्रियों की आज्ञा का पालन करते थे और शूद्र अपने कर्तव्य का पालन करते हुए उपर्युक्त तीनों वर्णों की सेवा में संलग्न रहते थे। इक्ष्वाकुकुल के स्वामी राजा दशरथ अयोध्यापुरी की रक्षा उसी प्रकार करते थे, जैसे बुद्धिमान् महाराज मनु ने पूर्वकाल में उसकी रक्षा की थी।
शौर्य की अधिकता के कारण अग्नि के समान दुर्धर्ष, कुटिलता से रहित, अपमान को सहन करने में असमर्थ तथा अस्त्र-शस्त्रों के ज्ञाता योद्धाओं के समुदाय से वह पुरी उसी तरह भरी-पूरी रहती थी, जैसे पर्वतों की गुफा सिंहों के समूह से परिपूर्ण होती है।
काम्बोज और बाह्लीक देश में उत्पन्न हुए उत्तम घोड़ों से, वनायु देश के अश्वों से तथा सिन्धुनदी के निकट पैदा होनेवाले दरियाई घोड़ों से, जो इन्द्र के अश्व उच्चैःश्रवा के समान श्रेष्ठ थे, अयोध्यापुरी भरी रहती थी। विन्ध्य और हिमालय पर्वतों में उत्पन्न होनेवाले अत्यन्त बलशाली पर्वताकार मदमत्त गजराजों से भी वह नगरी परिपूर्ण रहती थी। ऐरावतकुल में उत्पन्न, महापद्म के वंश में पैदा हुए तथा अञ्जन और वामन नामक दिग्गजों से भी प्रकट हुए हाथी उस पुरी की पूर्णता में सहायक हो रहे थे।
हिमालय पर्वत पुर उत्पन्न भद्रजाति के, विन्ध्यपर्वत पर उत्पन्न हुए मन्द्रजाति के तथा सह्यपर्वत पर पैदा हुए मृग हाथी भी वहाँ मौजूद थे। भद्र, मन्द्र और मृग- इन तीनों के मेल से उत्पन्न हुए संकरजाति के, भद्र और मन्द्र- इन दो जातियों के मेल से पैदा हुए संकर जाति के, भद्र और मृग जाति के संयोग से उत्पन्न संकरजाति के तथा मृग और मन्द्र - इन दो जातियों के सम्मिश्रण से पैदा हुए पर्वताकार गजराज भी, जो सदा मदोन्मत्त रहते थे, उस पुरी में भरे हुए थे। (तीन योजन विस्तारवाली अयोध्यामें) दो योजन की भूमि तो ऐसी थी, जहाँ पहुँचकर किसी के लिये भी युद्ध करना असम्भव था, इसलिये वह पुरी 'अयोध्या' इस सत्य एवं सार्थक नाम से प्रकाशित होती थी; जिसमें रहते हुए राजा दशरथ इस जगत का (अपने राज्य का) पालन करते थे।
जैसे चन्द्रमा नक्षत्रलोक का शासन करते हैं, उसी प्रकार महातेजस्वी महाराज दशरथ अयोध्यापुरी का शासन करते थे। उन्होंने अपने समस्त शत्रुओं को नष्ट कर दिया था। जिसका अयोध्या नाम सत्य एवं सार्थक था, जिसके दरवाजे और अर्गला सुदृढ़ थे, जो विचित्र गृहों से सदा सुशोभित होती थी, सहस्रों मनुष्यों से भरी हुई उस कल्याणमयी पुरी का इन्द्रतुल्य तेजस्वी राजा दशरथ न्यायपूर्वक शासन करते थे।
इक्ष्वाकुवंशी वीर महामना महाराज दशरथ के मन्त्रिजनोचित गुणों से सम्पन्न आठ मन्त्री थे, जो मन्त्र के तत्त्व को जानने वाले और बाहरी चेष्टा देखकर ही मन के भाव को समझ लेने वाले थे। वे सदा ही राजा के प्रिय एवं हित में लगे रहते थे। इसीलिये उनका यश बहुत फैला हुआ था। वे सभी शुद्ध आचार-विचार से युक्त थे और राजकीय कार्यों में निरन्तर संलग्न रहते थे। उनके नाम इस प्रकार हैं- धृष्टि, जयन्त, विजय, सुराष्ट्र, राष्ट्रवर्धन, अकोप, धर्मपाल और आठवें सुमन्त्र, जो अर्थशास्त्र के ज्ञाता थे।
ऋषियों में श्रेष्ठतम वसिष्ठ और वामदेव – ये दो महर्षि राजा के माननीय ऋत्विज् (पुरोहित) थे। इनके सिवा सुयज्ञ, जाबालि, कश्यप, गौतम, दीर्घायु मार्कण्डेय और विप्रवर कात्यायन भी महाराज के मन्त्री थे। इन ब्रह्मर्षियों के साथ राजा के पूर्वपरम्परागत ऋत्विज् भी सदा मन्त्री का कार्य करते थे। वे सब-के-सब विद्वान् होने के कारण विनयशील, सलज्ज, कार्यकुशल, जितेन्द्रिय, श्रीसम्पन्न, महात्मा, शस्त्रविद्या के ज्ञाता, सुदृढ़ पराक्रमी, यशस्वी, समस्त राजकार्यों में सावधान, राजा की आज्ञा के अनुसार कार्य करने वाले, तेजस्वी, क्षमाशील, कीर्तिमान् तथा मुसकुराकर बात करनेवाले थे। वे कभी काम, क्रोध या स्वार्थ के वशीभूत होकर झूठ नहीं बोलते थे।
अपने या शत्रुपक्ष के राजाओं की कोई भी बात उनसे छिपी नहीं रहती थी। दूसरे राजा क्या करते हैं, क्या कर चुके हैं और क्या करना चाहते हैं- ये सभी बातें गुप्तचरों द्वारा उन्हें मालूम रहती थीं। वे सभी व्यवहारकुशल थे। उनके सौहार्द की अनेक अवसरों पर परीक्षा ली जा चुकी थी। वे मौका पड़ने पर अपने पुत्र को भी उचित दण्ड देने में भी नहीं हिचकते थे। शाह संचय तथा चतुरंगिणी सेना के संग्रह में सदा लगे रहते थे। शत्रु ने भी यदि अपराध न किया हो तो वे उसकी हिंसा नहीं करते थे।
उन सब में सदा शौर्य एवं उत्साह भरा रहता था। वे राजनीति के अनुसार कार्य करते तथा अपने राज्य के भीतर रहने वाले सत्पुरुषों की सदा रक्षा करते थे। ब्राह्मणों और क्षत्रियों को कष्ट न पहुँचाकर न्यायोचित धन से राजा का खजाना भरते थे। वे अपराधी पुरुष के बलाबल को देखकर उसके प्रति तीक्ष्ण अथवा मृदु दण्ड का प्रयोग करते थे। उन सबके भाव शुद्ध और विचार एक थे। उनकी जानकारी में अयोध्यापुरी अथवा कोसलराज्य के भीतर कहीं एक भी मनुष्य ऐसा नहीं था, जो मिथ्यावादी, दुष्ट और परस्त्रीलम्पट हो । सम्पूर्ण राष्ट्र और नगर में पूर्ण शान्ति छाई रहती थी।
उन मन्त्रियों के वस्त्र और वेष स्वच्छ एवं सुन्दर होते थे। वे उत्तम व्रत का पालन करनेवाले तथा राजा के हितैषी थे। नीतिरूपी नेत्रों से देखते हुए सदा सजग रहते थे। अपने गुणों के कारण वे सभी मन्त्री गुरुतुल्य समादरणीय राजा के अनुग्रहपात्र थे। अपने पराक्रमों के कारण उनकी सर्वत्र ख्याति थी। विदेशों में भी सब लोग उन्हें जानते थे। वे सभी बातों में बुद्धि द्वारा भलीभाँति विचार करके किसी निश्चयपर पहुँचते थे। समस्त देशों और कालों में वे गुणवान् ही सिद्ध होते थे, गुणहीन नहीं। संधि और विग्रह के उपयोग और अवसर का उन्हें अच्छी तरह ज्ञान था। वे स्वभाव से ही सम्पत्तिशाली (दैवी सम्पत्ति से युक्त) थे।
उनमें राजकीयमन्त्रणा को गुप्त रखने की पूर्ण शक्ति थी। वे सूक्ष्मविषय का विचार करने में कुशल थे। नीतिशास्त्र में उनकी विशेष जानकारी थी तथा वे सदा ही प्रिय लगने वाली बात बोलते थे। ऐसे गुणवान् मन्त्रियों के साथ रहकर निष्पाप राजा दशरथ उस भूमण्डल का शासन करते थे। वे गुप्तचरों के द्वारा अपने और शत्रु राज्य के वृत्तान्तों पर दृष्टि रखते थे, प्रजा का धर्मपूर्वक पालन करते थे तथा प्रजा पालन करते हुए अधर्म से दूर ही रहते थे। उनकी तीनों लोकों में प्रसिद्धि थी। वे उदार और सत्यप्रतिज्ञ थे। पुरुष सिंह राजा दशरथ अयोध्या में ही रहकर इस पृथ्वी का शासन करते थे।
उन्हें कभी अपने से बड़ा अथवा अपने समान भी कोई शत्रु नहीं मिला। उनके मित्रों की संख्या बहुत थी। सभी सामन्त उनके चरणों में मस्तक झुकाते थे। उनके प्रताप से राज्य के सारे कण्टक (शत्रु एवं चोर आदि) नष्ट हो गये थे। जैसे देवराज इन्द्र स्वर्ग में रहकर तीनों लोकों का पालन करते हैं, उसी प्रकार राजा दशरथ अयोध्या में रहकर सम्पूर्ण जगत का शासन करते थे। उनके मन्त्री मन्त्रणा को गुप्त रखने तथा राज्य के हित साधन में संलग्न रहते थे। वे राजा के प्रति अनुरक्त, कार्यकुशल और शक्तिशाली थे। जैसे सूर्य अपनी तेजोमयी किरणों के साथ उदित होकर प्रकाशित होते हैं, उसी प्रकार राजा दशरथ उन तेजस्वी मन्त्रियों से घिरे रहकर बड़ी शोभा पाते थे।
इति श्रीमद् राम कथा बालकाण्ड अध्याय-५ का भाग-१ समाप्त!
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