सूतजी कहते हैं - हे ज्ञानीजनों! श्रीराम की महिमा अपार है उनके रूप भी अनेक हैं। वे संत, साधुजनों, असहाय के लिए पालनहार हैं तथा अभिमानी, दुराचारी, असंतों के लिए महाकाल हैं। जब-जब धर्म की हानि होती है तथा राक्षसों का अत्याचार अपने चरम पर होता है तब प्रभु अपने विभिन्न रूपों में आकर राक्षसों का संहार तथा अधर्म का नाश करते हैं। वैसे तो प्रभु के अवतार के बहुत से कारण बतलाये गए हैं, फिर भी मैं उन प्रभु के अवतार लेने के कुछ कारण यहाँ कहता हूँ। आप उसे ध्यान पूर्वक सुने।
'ऋषियों ! श्रीहरि के भी मुख्य 16 पार्षद अर्थात सहायक हैं, जन-कल्याण हेतु समय-समय पर जिनको सार्थक संदेश देने के लिए श्रीहरि पृथ्वी पर भेजते रहते हैं। आज भी उनमें से कुछ पृथ्वी पर भ्रमण करते हैं और श्रीहरि के भक्तों को संकटों से बचाते हैं, धर्म पथ पर चलाते हैं। वे निर्दिष्ट कार्य करने के लिए हमेशा तत्पर रहते हैं। सबकी अपनी-अपनी भूमिकाएं हैं, जिन्हें वे पूरी निष्ठा के साथ निभाते हैं। इनके नाम हैं –
विश्वक्सेन, जय, विजय, प्रबल और बल। ये भक्तों का मंगल करते हैं और श्रीहरि के प्रति शत्रु भाव रख कर भी उनकी लीला में सहयोग करते हैं। जैसे कुंभकर्ण व रावण, श्रीहरि के जय व विजय नामक पार्षद ही थे।'
'नन्द, सुनन्द, सुभद्र,भद्र ये रोगों को नष्ट करते हैं।
चंड, प्रचंड, कुमुद और कुमुदाक्ष श्रीहरि के भक्तों के लिए परम विनीत व अति कृपालु बन कर सेवा करते हैं।
शील, सुशील व सुषेण श्रीहरि के भावुक भक्तों का ध्यान रखते हैं।'
'ये सोलह पार्षद श्रीहरि की सेवा में बड़े ही कुशल हैं और इसी कारण माना जाता है कि नारायण के पास इनकी सेवा से जल्दी पहुंचा जा सकता है। ये सभी भगवन विष्णु के समान ही चतुर्भुज होते हैं। इनकी सूरत बड़ी ही मोहिनी होती है।'
सूतजी बोले - हे शौनकादि ऋषियों ! जय और विजय दोनों भाई और भगवान विष्णु के द्वारपाल हैं। इनकी मूर्खता के कारण इनको शाप मिला। पुराणों के अनुसार जय, विजय श्रीधर नाम के ब्राह्मण के पुत्र थे यह हमेशा धर्म के नाम पर लोगों से धन आदि बहुमूल्य वस्तुएं एकत्रित करते थे। एक समय सनकादिक मुनि स्नान कर रहे थे तभी जय विजय ने उनके वस्त्र चुरा लिए। फिर सनकादिक ने उन दोनों को भगवान विष्णु का द्वादश अक्षर मंत्र 'ॐ नमो भगवते वासुदेवाय' दिया। उसके प्रभाव को पाकर जय विजय ने भगवान विष्णु की कठोर आराधना की और उनके धाम वैकुंठ को प्राप्त कर लिया और वहां के द्वारपाल बन गए एक समय सनकादिक प्रभु के दर्शन के लिए वहां पर आए तो उनको उन्होंने प्रवेश करने से वर्जित किया फिर सनकादिक ने तीन जन्मों तक प्रभु के हाथों मरने का शाप दे दिया।
ऋषियों ने पूछा - हे महात्मन ! जय और विजय को शाप जिस प्रकार मिला उसे हमे विस्तार से बताने की कृपा करें।
सूतजी बोले - मुनिजनों ! एक बार सनक, सनन्दन, सनातन और सनत्कुमार चारों सनकादिक ऋषि सम्पूर्ण लोकों से विरक्त होकर चित्त की शान्ति के लिये भगवान विष्णु के दर्शन करने हेतु उनके बैकुण्ठ लोक में गये। बैकुण्ठ के द्वार पर जय और विजय नाम के दो द्वारपाल पहरा दिया करते थे। जय और विजय ने इन सनकादिक ऋषियों को द्वार पर ही रोक लिया और बैकुण्ठ लोक के भीतर जाने से मना करने लगे।
उनके इस प्रकार मना करने पर सनकादिक ऋषियों ने कहा - अरे मूर्खों! हम तो भगवान विष्णु के परम भक्त हैं। हमारी गति कहीं भी नहीं रुकती है। हम जगदीश्वर के दर्शन करना चाहते हैं। तुम हमें उनके दर्शनों से क्यों रोकते हो? तुम लोग तो भगवान की सेवा में रहते हो, तुम्हें तो उन्हीं के समान समदर्शी होना चाहिये। भगवान का स्वभाव परम शान्तिमय है, तुम्हारा स्वभाव भी वैसा ही होना चाहिये। हमें भगवान विष्णु के दर्शन के लिये जाने दो।
ऋषियों के इस प्रकार कहने पर भी जय और विजय उन्हें बैकुण्ठ के अन्दर जाने से रोकने लगे। जय और विजय के इस प्रकार रोकने पर सनकादिक ऋषियों ने क्रुद्ध होकर कहा - भगवान विष्णु के समीप रहने के बाद भी तुम लोगों में अहंकार आ गया है और अहंकारी का वास बैकुण्ठ में नहीं हो सकता। इसलिये हम तुम्हें शाप देते हैं कि तुम लोग पाप योनि में जाओ और अपने पाप का फल भुगतो।
'उनके इस प्रकार शाप देने पर जय और विजय भयभीत होकर उनके चरणों में गिर पड़े और क्षमा माँगने लगे। यह जान कर कि सनकादिक ऋषिगण भेंट करने आये हैं भगवान विष्णु स्वयं लक्ष्मी जी एवं अपने समस्त पार्षदों के साथ उनके स्वागत के लिय पधारे।'
भगवान विष्णु ने उनसे कहा - हे मुनीश्वरों! ये जय और विजय नाम के मेरे पार्षद हैं। इन दोनों ने अहंकार बुद्धि को धारण कर आपका अपमान करके अपराध किया है। आप लोग मेरे प्रिय भक्त हैं और इन्होंने आपकी अवज्ञा करके मेरी भी अवज्ञा की है। इनको शाप देकर आपने उत्तम कार्य किया है। इन अनुचरों ने तपस्वियों का तिरस्कार किया है और उसे मैं अपना ही तिरस्कार मानता हूँ। मैं इन पार्षदों की ओर से क्षमा याचना करता हूँ। सेवकों का अपराध होने पर भी संसार स्वामी का ही अपराध मानता है। अतः मैं आप लोगों की प्रसन्नता की भिक्षा चाहता हूँ।
भगवान के इन मधुर वचनों से सनकादिक ऋषियों का क्रोध तत्काल शान्त हो गया। भगवान की इस उदारता से वे अति आनन्दित हुये और बोले - आप धर्म की मर्यादा रखने के लिये ही सबको इतना आदर देते हैं। हे नाथ! हमने इन निरपराध पार्षदों को क्रोध के वश में होकर शाप दे दिया है इसके लिये हम क्षमा चाहते हैं। आप उचित समझें तो इन द्वारपालों को क्षमा करके हमारे शाप से मुक्त कर सकते हैं।
भगवान विष्णु ने कहा - हे मुनिगण! मै सर्वशक्तिमान होने के बाद भी ब्राह्मणों के वचन को असत्य नहीं करना चाहता क्योंकि इससे धर्म का उल्लंघन होता है। आपने जो शाप दिया है वह मेरी ही प्रेरणा से हुआ है। ये अवश्य ही इस दण्ड के भागी हैं। तुम लोगों को ये श्राप मेरी इच्छा से ही प्राप्त हुआ है।
'तुम लोग इसके ताप से तपकर ही चमकोगे, यह परीक्षा है इसे ग्रहण करो। एक बात और तुम मेरे बड़े प्रिय हो। द्वारपालों इस श्राप से मुक्ति के लिए हम तुम्हे दो उपाय बतलाते हैं तुम्हे जो उचित लगे वहीं ग्रहण करो। पहला तुम सात जन्मो तक दैत्य योनि में जन्म लेकर हमारे मित्र बनो अथवा दूसरा तुम तीन जन्म तक दैत्य योनि में हमारे शत्रु बनो। भगवान की बाते सुनकर दोनों द्वारपालों ने दूसरा उपाय ही श्रेष्ठ समझा क्योंकि वह अधिक समय तक श्राप नहीं भोगना चाहते थे।'
तब भगवान बोले - ये तीन जन्म असुर योनि को प्राप्त करेंगे और तीनों बार मैं स्वयं इनका संहार करूंगा। ये मुझ से शत्रु भाव रखते हुए भी मेरे ही ध्यान में लीन रहेंगे। मेरे द्वारा इनका संहार होने के बाद ये पुनः इस धाम में वापस आ जायेंगे।
सूतजी बोले - हे बंधुजनों ! इस प्रकार सतयुग में अपने प्रथम जन्म में जय और विजय ने हिरण्यकशिपु और हिरण्याक्ष नामक दो असुरों के रूप में दिति के गर्भ से महर्षि कश्यप के पुत्रों के रूप में जन्म लिया था। हिरण्यकशिपु का वध भगवान विष्णु ने नरसिंह रूप लेकर और हिरण्याक्ष का वध भगवान विष्णु ने वराह रूप लेकर किया था।
'अपने दूसरे जन्म में जय ने रावण और विजय ने कुम्भकर्ण के रूप में महर्षि विश्रवा के पुत्रों के रूप में जन्म लिया था। उस समय में ये दोनों असुर कन्या कैकसी के गर्भ से उत्पन्न हुए थे और भगवान विष्णु ने राम रूप लेकर दोनों का वध किया था।'
'अपने तीसरे और अंतिम जन्म में जय चेदि देश की रानी सुतसुभा के गर्भ से उत्पन्न हुआ था और चेदि नरेश दमघोष का पुत्र शिशुपाल कहलाया। विजय ने उस समय में श्रुतदेवी के गर्भ से जन्म लिया और राजा वृद्धशर्मा का पुत्र दंतवक्र कहलाया। उस जन्म में भगवान विष्णु ने कृष्ण रूप धरकर दोनों का संहार किया था।'
'इसके पश्चात सनक, सनंदन, सनातन और सनतकुमार ने अपने क्रोध की अग्नि को शांत करने के लिए चार कुएं खोदे जिन्हे सनकुआं कहा जाता है और वहीं तपस्या लीन हो गए। सनकुआं (मध्यप्रदेश के दतिया जिले के सेंवढ़ा नगर के पास स्थित है) में स्नान करने पर वैकुंठ की प्राप्ति होती है।'
इति श्रीमद् राम कथा रावण चरित्र अध्याय-३ का भाग-१(1) समाप्त !
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