भाग-१(1) वाली और सुग्रीव की जन्म कथा

 


रावण के चरित्र और लक्ष्मण के अद्भुत पराक्रम को सुनकर तब भगवान् श्रीराम ने हाथ जोड़कर दक्षिण दिशा में निवास करने वाले अगस्त्य मुनि से विनयपूर्वक यह अर्थयुक्त बात कही - महर्षे! इसमें संदेह नहीं कि वाली और रावण के इस बल की कहीं तुलना नहीं थी; परंतु मेरा ऐसा विचार है कि इन दोनों का बल भी हनुमानजी के बल की बराबरी नहीं कर सकता था। शूरता, दक्षता, बल, धैर्य, बुद्धिमत्ता, नीति, पराक्रम और प्रभाव-इन सभी सद्गुणों ने हनुमानजी के भीतर घर कर रखा है। 

‘समुद्र को देखते ही वानर सेना घबरा उठी है - यह देख ये महाबाहु वीर उसे धैर्य बँधाकर एक ही छलाँग में सौ योजन समुद्र को लाँघ गये। फिर लङ्कापुरी के आधिदैविक रूप को परास्त कर रावण के अन्तःपुर में गये, सीताजी से मिले, उनसे बातचीत की और उन्हें धैर्य बँधाया। वहाँ अशोक वन में इन्होंने अकेले ही रावण के सेनापतियों, मन्त्रिकुमारों, किंकरों तथा रावणपुत्र अक्षकुमार को मार गिराया।' 

‘फिर ये मेघनाद के नागपाश से बँधे और स्वयं ही मुक्त हो गये। तत्पश्चात् इन्होंने रावण से वार्तालाप किया। जैसे प्रलयकाल की आग ने यह सारी पृथ्वी जलायी थी, उसी प्रकार लङ्कापुरी को जलाकर भस्म कर दिया। युद्ध में हनुमानजी के जो पराक्रम देखे गये हैं, वैसे वीरतापूर्ण कर्म न तो काल के, न इन्द्र के, न भगवान् विष्णु के और न वरुण के ही सुने जाते हैं।' 

'मुनीश्वर! मैंने तो इन्हीं के बाहुबल से विभीषण के लिये लङ्का, शत्रुओं पर विजय, अयोध्या का राज्य तथा सीता, लक्ष्मण, मित्र और बन्धुजनों को प्राप्त किया है। यदि मुझे वानर राज सुग्रीव के सखा हनुमान न मिलते तो जानकी का पता लगाने में भी कौन समर्थ हो सकता था? जिस समय वाली और सुग्रीव में विरोध हुआ, उस समय सुग्रीव का प्रिय करने के लिये इन्होंने जैसे दावानल वृक्ष को जला देता है, उसी प्रकार वाली को क्यों नहीं भस्म कर डाला? यह समझ में नहीं आता।' 

‘मैं तो ऐसा मानता हूँ कि उस समय हनुमानजी को अपने बल का पता ही नहीं था। इसी से ये अपने प्राणों से भी प्रिय वानर राज सुग्रीव को कष्ट उठाते देखते रहे। देववन्द्य महामुने! भगवन्! आप हनुमानजी के विषय में ये सब बातें यथार्थरूप से विस्तारपूर्वक बताइये।'  

श्रीरामचन्द्रजीके ये युक्तियुक्त वचन सुनकर महर्षि अगस्त्यजी हनुमानजी के सामने ही उनसे इस प्रकार बोले - रघुकुलतिलक श्रीराम! हनुमानजी के विषय में आप जो कुछ कहते हैं, यह सब सत्य ही है। बल, बुद्धि और गति में इनकी बराबरी करनेवाला दूसरा कोई नहीं है। शत्रुसूदन रघुनन्दन ! जिनका शाप कभी व्यर्थ नहीं जाता, ऐसे मुनियों ने पूर्वकाल में इन्हें यह शाप दे दिया था कि बल रहने पर भी इनको अपने पूरे बल का पता नहीं रहेगा। महाबली श्रीराम! इन्होंने बचपन में भी जो महान् कर्म किया था, उसका वर्णन नहीं किया जा सकता। उन दिनों वे बालभाव से-अनजान की तरह रहते थे। 

'रघुनन्दन! यदि हनुमानजी का चरित्र सुनने के लिये आपकी हार्दिक इच्छा हो तो चित्त को एकाग्र करके सुनिये। मैं सारी बातें बता रहा हूँ। किन्तु उससे पहले मैं आपको वाली, सुग्रीव, नल, नील जैसे अन्य पराक्रमी वानर वीरों की उत्पत्ति सुनाता हूँ। इन सभी की उत्पत्ति की कथा बड़ी ही रोचक है।'

'श्रीराम ! पूर्वकाल में एक बार ब्रह्माजी देवताओं और दानवों के मध्य हुए युद्ध से अत्यंत विचलित हो गए। उन्होंने विचार किया कि मेरे ही द्वारा बनाये गए देवता और दानव एक-दूसरे के शत्रु बन गए हैं। मैंने एक ऐसी सृष्टि का निर्माण चाहा था जिसमें सभी प्राणी बिना किसी बैर के आपस में मिलजुल कर रहें। किन्तु मैं अपने इस कार्य में असफल रहा। तब विचलित ब्रह्माजी ने महादेव की आराधना प्रारम्भ की।'

सृष्टिकर्ता की आराधना से प्रसन्न हो महादेव ने उन्हें दर्शन दिए और उनसे उनकी व्यग्रता का कारण पूछा तब ब्रह्माजी ने हाथ जोड़कर उनसे कहा - देवादिदेव महादेव ! हे सृष्टि संहारक ! मैं ब्रह्मा इस सृष्टि का रचियता देवताओं और दानवों के आपसी बैर से अत्यंत दुखी हूँ। ये दोनों मेरे ही पुत्र हैं। इनके युद्ध में चाहे देवता नष्ट हो या दानव दोनों ही प्रकार से मुझे गहरा दुःख होता है। अतः आप मेरी प्रार्थना पर इस सृष्टि का अंत समय से पूर्व ही कर दें। 

तब महादेवजी ने ब्रह्माजी को समझाया - आप परमपिता हैं इसलिए आपका इस प्रकार विचलित होना भी स्वाभाविक है। किन्तु सृष्टिकर्ता और विधाता होने के नाते आपको यह भी समझना आवश्यक है की समय से पूर्व कभी कुछ घटित नहीं होता। अतः जिस पीड़ा से दुखी होकर आप सृष्टि का संहार चाहते हैं वह असंभव है। हे परमपिता ! आप इतने विचलित नहीं हो मैं, आप, और श्रीहरी इस सृष्टि के संचालक हैं। हमें इस तरह विचलित नहीं होना चाहिए। 

'प्रत्येक मन्वन्तर में चार युग आते हैं। प्रथम सतयुग जिसमे पुण्य अधिक और पाप बहुत ही कम है, दूसरा त्रेता जिसमे पाप थोड़ा अधिक है, तीसरा द्वापर जिसमे पाप और पुण्य बराबर हैं तथा चौथा कलियुग जिसमे पाप अधिक और पुण्य कम है। इसी कारण धर्म और पुण्य कि पुनः स्थापना के लिए हम तीनो किसी न किसी रूप में अवतरित होते हैं। पाप अपना विस्तार कितना भी बढ़ाने का प्रयास करे किन्तु अंततः विजय तो सत्य की ही होनी है।'

'रघुनन्दन! इस तरह ब्रह्माजी को सांत्वना देकर महादेव अंतर्ध्यान हो गए। ब्रह्माजी को शिवजी की बातों से संतोष तो हुआ किन्तु उनके हृदय की पीड़ा कम नहीं हुई जिस कारण गहरे चिंतन में डूबे ब्रह्माजी के नेत्रों से अश्रु की धारा निकल आई। उनके अश्रु की कुछ बूंदें धरती पर गिरी जिससे एक वानर मुखी प्राणी का जन्म हुआ। उसका नाम ऋक्षराज था।'

'उसने प्रकट होते ही अपने आस-पास के वातावरण का अवलोकन किया। इस प्रकार वह आगे बढ़ता हुआ एक सरोवर के समीप पहुंचा। वह सरोवर ब्रह्माजी के उन्हीं अश्रुओं से निर्मित था। जब उसने अपना मुख उस सरोवर के जल में देखा तो वह वानर जैसे रूप से दुखी हो गया। उसे अपना वह रूप पसंद नहीं आया और उसने उसी सरोवर के जल में डुबकी लगा दी। उसी सरोवर के जल के प्रताप से वही ऋक्षराज एक सुन्दर नारी का रूप लेकर जल से बाहर निकला। 

तब ब्रह्माजी ने प्रकट होकर उसे वर दिया - हे ऋक्षराज! मेरे अश्रुओं से निर्मित तुमने इस सरोवर में डुबकी लगाकर अपनी इच्छा के अनुरूप एक वानर से सुन्दर नारी का नव रूप पाया है। अतः अब तुम ऋक्षराज से ऋक्षिका कहलाओगे। मेरे ही आशीर्वाद के फलस्वरूप तुम्हे दो तेजस्वी वीर वानर पुत्रों की प्राप्ति होगी।'

'तदनन्तर ब्रह्माजी के वरदान के अनुसार ऋक्षिका ने देवराज इन्द्र की तपस्या की। उससे प्रसन्न होकर इंद्र ने ऋक्षिका को वरदान स्वरुप एक बालक दिया। कालान्तर में ऋक्षिका ने एक बालक को जन्म दिया जिसके सुन्दर केश अर्थात् बाल होने के कारण उसका नाम बालि रखा गया। बाली का लालन-पालन स्वर्ग की अप्सराओं द्वारा किया गया। इस तरह इंद्र बाली के पिता कहलाए।'   

'ऋक्षिका ने अपने दूसरे पुत्र की प्राप्ति के लिए भगवान् सूर्य की उपासना की। भगवान सूर्य ने भी ऋक्षिका को इच्छित वरदान दिया जिसके फलस्वरूप उसने सुन्दर ग्रीवा अर्थात् गर्दन वाले बालक को जन्म दिया जिसका नाम सुग्रीव रखा गया। सुग्रीव का लालन-पालन वानर-राज किष्किंधा ने किया। इस प्रकार सुग्रीव के पिता भगवान सूर्य कहलाए।'   

'श्रीराम ! इस प्रकार कुछ काल बीतने के पश्चात वाली और सुग्रीव बालक से युवा हो गए। तदनन्तर ब्रह्माजी के कहने पर वाली और सुग्रीव को किष्किंधा नगरी में रहने को कहा गया। उस समय किष्किंधा के राजा वानर राज किष्किंधा थे उन्होंने ही वानरों के साम्राज्य को बढ़ाने के लिए उस नगरी को बसाया था। अपने जीवन के अंतिम क्षणों में पहुंचकर किष्किंधा नरेश ने वाली को दोनों भाइयों में बड़ा जानकर उसे राजा बना दिया तथा स्वयं वनवास ग्रहण कर लिया।' 

'एक समय जब देवताओं और असुरों में समुद्र मंथन हुआ था तब इन दोनों भाइयों ने देवताओं के कहने पर कुछ समय के लिए वहां रहकर उनकी सहायता की थी। जब मंथन के दौरान समुद्र से मेनका, रम्भा, पुंजिकस्थला, उर्वशी, तारा, रुमा आदि का प्रादुर्भाव हुआ। उस समय वाली ने तारा, सुग्रीव ने रुमा के साथ विवाह कर लिया।'  

इति श्रीमद् राम कथा श्रीहनुमान चरित्र अध्याय-४ का भाग-१(1) समाप्त !

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