भाग-१९(19) भगवान् की प्रेरणा से देवताओं का दधीचि ऋषि के पास जाना

 


विश्वामित्रजी कहते हैं - राम! जब देवताओं ने इस प्रकार भगवान् की स्तुति की, तब स्वयं शंख-चक्र-गदा-पद्मधारी भगवान् उनके सामने पश्चिम की ओर (अन्तर्देश में) प्रकट हुए। भगवान् के नेत्र शरत्कालीन कमल के समान खिले हुए थे। उनके साथ सोलह पार्षद उनकी सेवा में लगे हुए थे। वे देखने में सब प्रकार से भगवान् के समान ही थे। केवल उनके वक्षःस्थल पर श्रीवत्स का चिह्न और गले में कौस्तुभ मणि नहीं थी।

भगवान् का दर्शन पाकर सभी देवता आनन्द से विह्वल हो गये। उन लोगों ने धरती पर लोटकर साष्टांग दण्डवत् किया और फिर धीरे-धीरे उठकर वे भगवान् की स्तुति करने लगे - भगवन्! यज्ञ में स्वर्गादि देने की शक्ति तथा उनके फल की सीमा निश्चित करने वाले काल भी आप ही हैं। यज्ञ में विघ्न डालने वाले दैत्यों को आप चक्र से छिन्न-भिन्न कर डालते हैं। इसलिये आपके नामों की कोई सीमा नहीं है। हम आपको बार-बार नमस्कार करते हैं। विधातः! सत्त्व, रज, तम- इन तीन गुणों के अनुसार जो उत्तम, मध्यम और निकृष्ट गतियाँ प्राप्त होती हैं, उनके नियामक आप ही हैं। आपके परमपद का वास्तविक स्वरूप इस कार्यरूप जगत् का कोई आधुनिक प्राणी नहीं जान सकता।

'भगवान्! नारायण! वासुदेव! आप आदि पुरुष (जगत् के परम कारण) और महापुरुष (पुरुषोत्तम) हैं। आपकी महिमा असीम है। आप परममंगलमय, परम कल्याण-स्वरूप और परमदयालु हैं। आप ही सारे जगत् के आधार एवं अद्वितीय हैं, केवल आप ही सारे जगत् के स्वामी हैं। आप सर्वेश्वर हैं तथा सौन्दर्य और मृदुलता की अधिष्ठात्री देवी लक्ष्मी के परमगति हैं।'

'प्रभो! परमहंस परिव्राजक विरक्त महात्मा जब आत्मसंयमरूप परमसमाधि से भलीभाँति आपका चिन्तन करते हैं, तब उनके शुद्ध हृदय में परमहंसों के धर्म वास्तविक भगवद्भजन का उदय होता है। इससे उनके हृदय के अज्ञानरूप किवाड़ खुल जाते हैं और उनकी आत्मलोक में आप आत्मानन्द के रूप में बिना किसी आवरण के प्रकट हो जाते हैं और वे आपका अनुभव करके निहाल हो जाते हैं। हम आपको बार-बार नमस्कार करते हैं।'

'भगवन्! आपकी लीला का रहस्य जानना बड़ा ही कठिन है। क्योंकि आप बिना किसी आश्रय और प्राकृत शरीर के हम लोगों के सहयोग की अपेक्षा न करके निगुण और निर्विकार होने पर भी स्वयं ही इस सगुण जगत् की सृष्टि, रक्षा और संहार करते हैं।'

'भगवन्! हम लोग यह बात भी ठीक-ठीक नहीं समझ पाते कि सृष्टिकर्म में आप देवदत्त आदि किसी व्यक्ति के समान गुणों के कार्यरूप इस जगत् में जीवरूप से प्रकट हो जाते हैं और कर्मों के अधीन होकर अपने किये अच्छे-बुरे कर्मों का फल भोगते हैं, अथवा आप आत्माराम, शान्तस्वभाव एवं सबसे उदासीन-साक्षीमात्र रहते हैं तथा सबको समान देखते हैं।' 

'हम तो यह समझते हैं कि यदि आपमें ये दोनों बातें रहें तो भी कोई विरोध नहीं है। क्योंकि आप स्वयं भगवान् हैं। आपके गुण अगणित हैं, महिमा अगाध है और आप सर्वशक्तिमान् हैं। आधुनिक लोग अनेकों प्रकार के विकल्प, वितर्क, विचार, झूठे प्रमाण और कुतर्क पूर्ण शास्त्रों का अध्ययन करके अपने हृदय को दूषित कर लेते हैं और यही कारण है कि वे दुराग्रही हो जाते हैं।' 

'आपमें उनके वाद-विवाद के लिये अवसर ही नहीं है। आपका वास्तविक स्वरूप समस्त मायामय पदार्थों से परे, केवल है। जब आप उसी में अपनी माया को छिपा लेते हैं, तब ऐसी कौन-सी बात है जो आपमें नहीं हो सकती? इसलिये आप साधारण पुरुषों के समान कर्ता-भोक्ता भी हो सकते हैं और महापुरुषों के समान उदासीन भी। इसका कारण यह है कि न तो आपमें कर्तृत्व-भोक्तृत्व है और न तो उदासीन ही। आप तो दोनों से विलक्षण, अनिर्वचनीय हैं।'

'जैसे एक ही रस्सी का टुकड़ा भ्रान्त पुरुषों को सर्प, माला, धारा आदि के रूप में प्रतीत होता है, किन्तु जानकार को रस्सी के रूप में-वैसे ही आप भी भ्रान्त बुद्धि वालों को कर्ता, भोक्ता आदि अनेक रूपों में दीखते हैं और ज्ञानी को शुद्ध सच्चिदानन्द के रूप में। आप सभी की बुद्धि का अनुसरण करते हैं। विचारपूर्वक देखने से मालूम होता है कि आप ही समस्त वस्तुओं में वस्तुत्व के रूप से विराजमान हैं, सबके स्वामी हैं और सम्पूर्ण जगत् के कारण ब्रह्मा, प्रकृति आदि के भी कारण हैं। आप सबके अन्तर्यामी अन्तरात्मा हैं; इसलिये जगत् में जितने भी गुण-दोष प्रतीत हो रहे हैं, उन सबकी प्रतीतियाँ अपने अधिष्ठानस्वरूप आपका ही संकेत करती हैं और श्रुतियों ने समस्त पदार्थों का निषेध करके अन्त में निषेध की अवधि के रूप में केवल आपको ही शेष रखा है।'

'मधुसूदन! आपकी अमृतमयी महिमारस का अनन्त समुद्र है। उनके नन्हें-से सीकर का भी, अधिक नहीं-एक बार भी स्वाद चख लेने से हृदय में नित्य-निरन्तर परमानन्द की धारा बहने लगती है। उसके कारण अब तक जगत् में विषय-भोगों के जितने भी लेशमात्र, प्रतीतिमात्र सुख का अनुभव हुआ है या परलोक आदि के विषय में सुना गया है, वह सब-का-सब जिन्होंने भूला दिया है, समस्त प्राणियों के परमप्रियतम, हितैषी, सुहृद् और सर्वात्मा आप ऐश्वर्यनिधि परमेश्वर में जो मन को नित्य-निरन्तर लगाये रखते और आपके चिन्तन का ही सुख लूटते रहते हैं, वे आपके अनन्य प्रेमी परमभक्त पुरुष ही अपने स्वार्थ और परमार्थ में निपुण हैं। मधुसूदन! आपके वे प्यारे और सुहृद् भक्तजन भला, आपके चरणकमलों का सेवन कैसे त्याग सकते हैं, जिससे जन्म-मृत्युरूप संसार के चक्कर से सदा के लिये छुटकारा मिल जाता है।'

'प्रभो! आप त्रिलोकी के आत्मा और आश्रय हैं। आपने अपने तीन पगों से सारे जगत् को नाप लिया था और आप ही तीनों लोकों के संचालक हैं। आपकी महिमा त्रिलोकी का मन हरण करने वाली है। इसमें सन्देह नहीं कि दैत्य, दानव आदि असुर भी आपकी ही विभूतियाँ हैं। तथापि यह उनकी उन्नति का समय नहीं है-यह सोचकर आप अपनी योगमाया से देवता, मनुष्य, पशु, नृसिंह आदि मिश्रित और मत्स्य आदि जलचरों के रूप में अवतार ग्रहण करते और उनके अपराध के अनुसार उन्हें दण्ड देते हैं। दण्डधारी प्रभो! यदि जँचे तो आप उन्हीं असुरों के समान इस वृत्रासुर का भी नाश कर डालिये।'

'भगवन्! आप हमारे पिता, पितामह-सब कुछ हैं। हम आपके निजजन हैं और निरन्तर आपके सामने सिर झुकाये रहते हैं। आपके चरणकमलों का ध्यान करते-करते हमारा हृदय उन्हीं के प्रेम बन्धन से बँध गया है। आपने हमारे सामने अपना दिव्यगुणों से युक्त साकार विग्रह प्रकट करके हमें अपनाया है। इसलिये प्रभो! हम आपसे यह प्रार्थना करते हैं कि आप अपनी दया भरी, विशद, सुन्दर और शीतल मुस्कानयुक्त चितवन से तथा अपने मुखारविन्द से टपकते हुए मनोहर वाणीरूप सुमधुर सुधाबिन्दु से हमारे हृदय का ताप शान्त कीजिये, हमारे अन्तर की जलन बुझाइये।'

'प्रभो! जिस प्रकार अग्नि की ही अंशभूत चिनगारियाँ आदि अग्नि को प्रकाशित करने में असमर्थ हैं, वैसे ही हम भी आपको अपना कोई भी स्वार्थ-परमार्थ निवेदन करने में असमर्थ हैं। आपसे भला, कहना ही क्या है। क्योंकि आप सम्पूर्ण जगत् की उत्पत्ति, स्थिति और लय करने वाली दिव्यमाया के साथ विनोद करते रहते हैं तथा समस्त जीवों के अन्तःकरण में ब्रह्म और अन्तर्यामी के रूप में विराजमान रहते हैं। केवल इतना ही नहीं, उनके बाहर भी प्रकृति के रूप से आप ही विराजमान हैं।' 

'जगत् में जितने भी देश, काल, शरीर और अवस्था आदि हैं, उनके उपादान और उपादान और प्रकाशक के रूप में आप ही उनका अनुभव करते रहते हैं। आप सभी वृत्तियों के साक्षी हैं। आप प्रकाशक के समान सर्वगत हैं, निर्लिप्त हैं। आप स्वयं परब्रह्म परमात्मा हैं। अतएव हम अपना अभिप्राय आपसे निवेदन करें-इसकी अपेक्षा न रखकर जिस अभिलाषा से हम लोग यहाँ आये हैं, उसे पूर्ण कीजिये। आप अचिन्त्य ऐश्वर्यसम्पन्न और जगत् के परमगुरु हैं। हम आपके चरणकमलों की छत्रछाया में आये हैं, जो विविध पापों के फलस्वरूप जन्म-मृत्युरूप संसार में भटकने की थकावट को मिटाने वाली है।'

'सर्वशक्तिमान् श्रीहरि! वृत्रासुर ने हमारे प्रभाव और अस्त्र-शस्त्रों को तो निगल ही लिया है। अब वह तीनों लोकों को भी ग्रस रहा है, आप उसे मार डालिये। प्रभो! आप शुद्धस्वरूप हृदयस्थित शुद्ध ज्योतिर्मय आकाश, सबके साक्षी, अनादि, अनन्त और उज्ज्वलकीर्ति सम्पन्न हैं। संत लोग आपका ही संग्रह करते हैं। संसार के पथिक जब घूमते-घूमते आपकी शरण में आ पहुँचते हैं, तब अन्त में आप उन्हें परमानन्दस्वरूप अभीष्ट फल देते हैं और इस प्रकार उनके जन्म-जन्मान्तर के कष्ट को हर लेते हैं। प्रभो! हम आपको नमस्कार करते हैं।'

विश्वामित्रजी कहते हैं - रघुनन्दन! जब देवताओं ने बड़े आदर के साथ इस प्रकार भगवान् का स्तवन किया, तब वे अपनी स्तुति सुनकर बहुत प्रसन्न हुए तथा उनसे कहने लगे। 

श्रीभगवान् ने कहा - श्रेष्ठ देवताओं! तुम लोगों ने स्तुतियुक्त ज्ञान से मेरी उपासना की है, इससे मैं तुम लोगों पर प्रसन्न हूँ। इस स्तुति के द्वारा जीवों को अपने वास्तविक स्वरूप की स्मृति और मेरी भक्ति प्राप्त होती है। देवशिरोमणियो! मेरे प्रसन्न हो जाने पर कोई भी वस्तु दुर्लभ नहीं रह जाती। तथापि मेरे अनन्य प्रेमी तत्त्ववेत्ता भक्त मुझसे मेरे अतिरिक्त और कुछ भी नहीं चाहते। 

'जो पुरुष जगत् के विषयों को सत्य समझता है, वह नासमझ अपने वास्तविक कल्याण को नहीं जनता। यही कारण है कि वह विषय चाहता है; परन्तु यदि कोई जानकार उसे उसकी इच्छित वस्तु दे देता है, तो वह भी वैसा ही नासमझ है। जो पुरुष मुक्ति का स्वरूप जानता है, वह अज्ञानी को भी कर्मों में फँसने का उपदेश नहीं देता-जैसे रोगी के चाहते रहने पर भी सद् वैद्य उसे कुपथ्य नहीं देता।'

'देवराज इन्द्र! तुम लोगों का कल्याण हो। अब देर मत करो। ऋषशिरोमणि दधीचि के पास जाओ और उनसे उनका शरीर-जो उपासना, व्रत तथा तपस्या के कारण अत्यत्न दृढ़ हो गया है-माँग लो। दधीचि ऋषि को शुद्ध ब्रह्म का ज्ञान है। अश्विनीकुमारों को घोड़े के सिर से उपदेश करने के कारण उनका एक नाम ‘अश्वशिर भी है। उनकी उपदेश की हुई आत्मविद्या के प्रभाव से ही दोनों अश्विनीकुमार जीवन्मुक्त हो गये।' 

'अथर्ववेदी दधीचि ऋषि ने पहले-पहल मेरे स्वरूपभूत अभेद्य नारायण कवच का त्वष्टा को उपदेश किया था। त्वष्टा ने वही विश्वरूप को दिया और विश्वरूप से तुम्हें मिला। दधीचि ऋषि धर्म के परम मर्मज्ञ हैं। वे तुम लोगों को अश्विनीकुमार के माँगने पर, अपने शरीर के अंग अवश्य दे देंगे। इसके बाद विश्वकर्मा के द्वारा उन अंगों से एक श्रेष्ठ आयुध तैयार करा लेना।देवराज! मेरी शक्ति से युक्त होकर तुम उसी शस्त्र के द्वारा वृत्रासुर का सिर काट लोगे।देवताओं! वृत्रासुर के मर जाने पर तुम लोगों को फिर से तेज, अस्त्र-शस्त्र और सम्पत्तियाँ प्राप्त हो जायेंगी। तुम्हारा कल्याण अवश्यम्भावी है; क्योंकि मेरे शरणागतों को कोई सता नहीं सकता।'

इति श्रीमद् राम कथा बालकाण्ड अध्याय-५ का भाग-१९(19) समाप्त !

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