सूतजी कहते हैं - हे ऋषियों ! जब भगवान् ने इस प्रकार आज्ञा दी, तब सुदर्शन चक्र की ज्वाला से जलते हुए दुर्वासा लौटकर राजा अम्बरीष के पास आये और उन्होंने अत्यन्त दुःखी होकर राजा के पैर पकड़ लिये। दुर्वासा जी की यह चेष्टा देखकर और उनके चरण पकड़ने से लज्जित होकर राजा अम्बरीष भगवान् के चक्र की स्तुति करने लगे। उस समय उनका हृदय दयावश अत्यन्त पीड़ित हो रहा था।
अम्बरीष ने कहा - प्रभो सुदर्शन! आप अग्नि स्वरूप हैं। आप ही परमसमर्थ सूर्य हैं। समस्त नक्षत्रमण्डल के अधिपति चन्द्रमा भी आपके स्वरूप हैं। जल, पृथ्वी, आकाश, वायु, पंचतन्मात्रा और सम्पूर्ण इन्द्रियों के रूप में भी आप ही हैं। भगवान् के प्यारे, हजार दाँत वाले चन्द्रदेव! मैं आपको नमस्कार करता हूँ। समस्त अस्त्र-शस्त्रों को नष्ट कर देने वाले एवं पृथ्वी के रक्षक! आप इन ब्राह्मण की रक्षा कीजिये। आप ही धर्म हैं, मधुर एवं सत्य वाणी हैं; आप ही समस्त यज्ञों के अधिपति और स्वयं यज्ञ भी हैं। आप समस्त लोकों के रक्षक एवं सर्वलोकस्वरूप भी हैं। आप परमपुरुष परमात्मा के श्रेष्ठ तेज हैं।'
'सुनाभ! आप समस्त धर्मों की मर्यादा के रक्षक हैं। अधर्म का आचरण करने वाले असुरों को भस्म करने के लिये आप साक्षात् अग्नि हैं। आप ही तीनों लोकों के रक्षक एवं विशुद्ध तेजोमय हैं। आपकी गति मन के वेग के समान है और आपके कर्म अद्भुत हैं। मैं आपको नमस्कार करता हूँ, आपकी स्तुति करता हूँ।'
'वेदवाणी के अधीश्वर! आपके धर्ममय तेज से अन्धकार का नाश होता है और सूर्य आदि महापुरुषों के प्रकाश की रक्षा होती है। आपकी महिमा का पार पाना अत्यन्त कठिन है। ऊँचे-नीचे और छोटे-बड़े के भेदभाव से युक्त यह समस्त कार्य-कारणात्मक संसार आपका ही स्वरूप है।'
'सुदर्शन चक्र! आप पर कोई विजय नहीं प्राप्त कर सकता। जिस समय निरंजन भगवान् आपको चलाते हैं और आप दैत्य एवं दानवों की सेना में प्रवेश करते हैं, उस समय युद्धभूमि में उनकी भुजा, उदर, जंघा, चरण और गरदन आदि निरन्तर काटते हुए आप अत्यन्त शोभायमान होते हैं। विश्व के रक्षक! आप रणभूमि में सबका प्रहार सह लेते हैं, आपका कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता।'
'गदाधारी भगवान् ने दुष्टों के नाश के लिये ही आपको नियुक्त किया है। आप कृपा करके हमारे कुल के भाग्योदय के लिये दुर्वासा जी का कल्याण कीजिये। हमारे ऊपर यह आपका महान् अनुग्रह होगा। यदि मैंने कुछ भी दान किया हो, यज्ञ किया हो अथवा अपने धर्म का पालन किया हो, यदि हमारे वंश के लोग ब्राह्मणों को ही अपना आराध्यदेव समझते रहे हों, तो दुर्वासा जी की जलन मिट जाये। भगवान् समस्त गुणों के एकमात्र आश्रय हैं। यदि मैंने समस्त प्राणियों के आत्मा के रूप में उन्हें देखा हो और वे मुझ पर प्रसन्न हों तो दुर्वासा जी के हृदय की सारी जलन मिट जाये।'
सूतजी कहते हैं - जब राजा अम्बरीष ने दुर्वासा जी को सब ओर से जलाने वाले भगवान् के सुदर्शन चक्र की इस प्रकार स्तुति की, तब उनकी प्रार्थना से चक्र शान्त हो गया। जब दुर्वासा चक्र की आग से मुक्त हो गये और उनका चित्त स्वस्थ हो गया, तब वे राजा अम्बरीष को अनेकानेक उत्तम आशीर्वाद देते हुए उनकी प्रशंसा करने लगे।
दुर्वासा जी ने कहा - 'धन्य है! आज मैंने भगवान के प्रेमी भक्तों का महत्त्व देखा। राजन! मैंने आपका अपराध किया, फिर भी आप मेरे लिये मंगल-कामना ही कर रहे हैं। जिन्होंने भक्तवत्सल भगवान श्रीहरि के चरणकमलों को दृढ़ प्रेमभाव से पकड़ लिया है-उन साधु पुरुषों के लिये कौन-सा कार्य कठिन है? जिनका हृदय उदार है, वे महात्मा भला, किस वस्तु का परित्याग नहीं कर सकते। जिनके मंगलमय नामों के श्रवण मात्र से जीव निर्मल हो जाता है-उन्हीं तीर्थपाद भगवान के चरणकमलों के जो दास हैं, उनके लिये कौन-सा कर्तव्य शेष रह जाता है? महाराज अम्बरीष! आपका हृदय करुणाभाव से परिपूर्ण है। आपने मेरे ऊपर महान् अनुग्रह किया। अहो! आपने मेरे अपराध को भुलाकर मेरे प्राणों की रक्षा की है।'
'हे ऋषियों ! जब से दुर्वासा जी भागे थे, तब से अब तक राजा अम्बरीष ने भोजन नहीं किया था। वे उनके लौटने की बाट देख रहे थे। अब उन्होंने दुर्वासा जी के चरण पकड़ लिये और उन्हें प्रसन्न करके विधिपूर्वक भोजन कराया। राजा अम्बरीष बड़े आदर से अतिथि के योग्य सब प्रकार की भोजन-सामग्री ले आये। दुर्वासा जी भोजन करके तृप्त हो गये।'
अब उन्होंने आदर से कहा- राजन! अब आप भी भोजन कीजिये। अम्बरीष! आप भगवान के परमप्रेमी भक्त हैं। आपके दर्शन, स्पर्श, बातचीत और मन को भगवान की ओर प्रवृत्त करने वाले आतिथ्य से मैं अत्यन्त प्रसन्न और अनुगृहीत हुआ हूँ। स्वर्ग की देवांगनाएँ बार-बार आपके इस उल्ल्वल चरित्र का गान करेंगी। यह पृथ्वी भी आपकी परमपुण्यमयी कीर्ति का संकीर्तन करती रहेगी।
सूतजी कहते हैं - दुर्वासा जी ने बहुत ही सन्तुष्ट होकर राजा अम्बरीष के गुणों की प्रशंसा की और उसके बाद उनसे अनुमति लेकर आकाशमार्ग से उन ब्रह्मलोक की यात्रा की जो केवल निष्काम कर्म से ही प्राप्त होता है।
'जब सुदर्शन चक्र से भयभीत होकर दुर्वासा जी भागे थे, तब से लेकर उनके लौटने तक एक वर्ष का समय बीत गया। इतने दिनों तक राजा अम्बरीष उनके दर्शन की आकांक्षा में केवल जल पीकर ही रहे। जब दुर्वासा जी चले गये, तब उनके भोजन से बचे हुए अत्यन्त पवित्र अन्न का उन्होंने भोजन किया। अपने कारण दुर्वासा जी का दुःख में और फिर अपनी ही प्रार्थना से उनका छूटना-इन बातों को उन्होंने अपने द्वारा होने पर भी भगवान की ही महिमा समझा।'
'राजा अम्बरीष में ऐसे-ऐसे अनेकों गुण थे। अपने समस्त कर्मों के द्वारा वे परब्रह्म परमात्मा श्रीभगवान के भक्तिभाव की अभिवृद्धि करते रहते थे। उस भक्ति के प्रभाव से उन्होंने ब्रह्मलोक तक के समस्त भोगों को नरक के समान समझा। तदनन्तर राजा अम्बरीष अपने ही समान भक्तपुत्रों पर राज्य का भार छोड़ दिया और स्वयं वे वन में चले गये। वहाँ वे बड़ी धीरता के साथ आत्मस्वरूप भगवान में अपना मन लगाकर गुणों के प्रवाहरूप संसार से मुक्त हो गये।'
हे मुनिजनों! महाराज अम्बरीष का यह परमपवित्र आख्यान है। जो इसका संकीर्तन और स्मरण करता है, वह भगवान का भक्त हो जाता है।
इति श्रीमद् राम कथा वंश चरित्र अध्याय-२ का भाग-१९(19) समाप्त !
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