विश्वामित्रजी कहते हैं - राम! हमने सुना है कि विश्वरूप के तीन सिर थे। वे एक मुँह से सोमरस तथा दूसरे से सुरा पीते थे और तीसरे से अन्न खाते थे। उनके पिता त्वष्टा आदि बारह आदित्य देवता थे, इसलिये वे यज्ञ के समय प्रत्यक्ष रूप में ऊँचे स्वर से बोलकर बड़े विनय के साथ देवताओं को आहुति देते थे। साथ ही वे छिप-छिपकर असुरों को भी आहुति दिया करते थे। उनकी माता असुर कुल की थीं, इसीलिये वे मातृस्नेह के वशीभूत होकर यज्ञ करते समय उस प्रकार असुरों का भाग पहुँचाया करते थे।
'देवराज इन्द्र ने देखा कि इस प्रकार वे देवताओं का अपराध और धर्म की ओट में कपट कर रहे हैं। इससे इन्द्र डर गये और क्रोध में भरकर उन्होंने बड़ी फुर्ती से उनके तीनों सिर काट लिये। विश्वरूप का सोमरस पीने वाला सिर पपीहा, सुरापान करने वाला गौरैया और अन्न खाने वाला तीतर हो गया। इन्द्र चाहते तो विश्वरूप के वध से लगी हुई हत्या को दूर कर सकते थे; परन्तु उन्होंने ऐसा करना उचित न समझा, वरन हाथ जोड़कर उसे स्वीकार कर लिया तथा एक वर्ष तक उससे छूटने का कोई उपाय नहीं किया। तदनन्तर सब लोगों के सामने अपनी शुद्धि प्रकट करने के लिये उन्होंने अपनी ब्रह्महत्या को चार हिस्सों में बाँटकर पृथ्वी, जल, वृक्ष और स्त्रियों को दे दिया।'
'राम ! पृथ्वी ने बदले में यह वरदान लेकर कि जहाँ कहीं गड्ढा होगा, वह समय पर अपने-आप भर जायेगा, इन्द्र की ब्रह्महत्या का चतुर्थांश स्वीकार कर लिया। वही ब्रह्महत्या पृथ्वी में कहीं-कहीं ऊसर के रूप में दिखायी पड़ती है। दूसरा चतुर्थांश वृक्षों ने लिया। उन्हें यह वर मिला कि उनका कोई हिस्सा कट जाने पर फिर जम जायेगा। उनमें अब भी गोंद के रूप में ब्रह्महत्या दिखायी पड़ती है।
'स्त्रियों ने यह वर पाकर कि वे सर्वदा पुरुष का सहवास कर सकें; ब्रह्महत्या का तीसरा चतुर्तांश स्वीकार किया। उनकी ब्रह्महत्या प्रत्येक महीने में रज के रूप में दिखायी पड़ती है। जल ने यह वर पाकर कि खर्च करते रहने पर भी निर्झर आदि के रूप में तुम्हारी बढ़ती ही होती रहेगी, ब्रह्महत्या का चौथा चतुर्थांश स्वीकार किया। फेन, बुद्बुद आदि के रूप में वही ब्रह्महत्या दिखायी पड़ती है। अतएव मनुष्य उसे हटाकर जल ग्रहण किया करते हैं।'
'विश्वरूप की मृत्यु के बाद उनके पिता त्वष्टा ‘हे इन्द्रशत्रो! तुम्हारी अभिवृद्धि हो और शीघ्र से-शीघ्र तुम अपने शत्रु को मार डालो’-इस मन्त्र से इन्द्र का शत्रु उत्पन्न करने के लिये हवन करने लगे। यज्ञ समाप्त होने पर अन्वाहार्य-पचन नामक अग्नि (दक्षिणाग्नि) से एक बड़ा भयावना दैत्य प्रकट हुआ। वह ऐसा जान पड़ता था, मानो लोकों का नाश करने के लिये प्रलयकालीन विकराल काल ही प्रकट हुआ हो।'
'वह प्रतिदिन अपने शरीर के सब ओर बाण के बराबर बढ़ जाया करता था। वह जले हुए पहाड़ के समान काला और बड़े डील-डौल का था। उसके शरीर में से सन्ध्याकालीन बादलों के समान दीप्ति निकलती रहती थी। उसके सिर के बाल और दाढ़ी-मूँछ तपे हुए ताँबे के समान लाल रंग के तथा नेत्र दोपहर के सूर्य के समान प्रचण्ड थे।'
'चमकते हुए तीन नोकों वाले त्रिशूल को लेकर जब वह नाचने, चिल्लाने और कूदने लगता था, उस समय पृथ्वी काँप उठती थी और ऐसा जान पड़ता था कि उस त्रिशूल पर उसने अन्तरिक्ष को उठा रखा है। वह बार-बार जँभाई लेता था। इससे जब उसका कन्दरा के समान गम्भीर मुँह खुल जाता, तब जान पड़ता कि वह सारे आकाश को पी जायेगा, जीभ से सारे नक्षत्रों को चाट जायेगा और अपनी विशाल एवं विकराल दाढ़ों वाले मुँह से तीनों लोकों को निगल जायेगा। उसके भयावने रूप को देखकर सब लोग डर गये और इधर-उधर भागने लगे।'
नृपश्रेष्ठ ! राम ! त्वष्टा के तमोगुणी पुत्र ने सारे लोकों को घेर लिया था। इसी से उस पापी और अत्यन्त क्रूर पुरुष का नाम वृत्रासुर पड़ा। बड़े-बड़े देवता अपने-अपने अनुयायियों के सहित एक साथ ही उस पर टूट पड़े तथा अपने-अपने दिव्य अस्त्र-शस्त्रों से प्रहार करने लगे। परन्तु वृत्रासुर उनके सारे अस्त्र-शस्त्रों को निगल गया। अब तो देवताओं के आश्चर्य की सीमा न रही। उनका प्रभाव जाता रहा। वे सब-के-सब दीन-हीन और उदास हो गये तथा एकाग्रचित्त से अपने हृदय में विराजमान आदिपुरुष श्रीनारायण की शरण में गये।
देवताओं ने भगवान् से प्रार्थना की- वायु, आकाश, अग्नि, जल और पृथ्वी-ये पाँचों भूत, इनसे बने हुए तीनों लोक उनके अधिपति ब्रह्मादि तथा हम सब देवता जिस काल से डरकर उसे पूजा-सामग्री की भेंट दिया करते हैं, वही काल भगवान् से भयभीत रहता है। इसलिये अब भगवान् ही हमारे रक्षक हैं। प्रभो! आपके लिये कोई नयी बात न होने के कारण कुछ भी देखकर आप विस्मित नहीं होते। आप अपने स्वरूप के साक्षात्कार से ही सर्वथा पूर्णकाम, सम एवं शान्त हैं। जो आपको छोड़कर किसी दूसरे की शरण लेता है, वह मूर्ख है। वह मानो कुत्ते की पूँछ पकड़कर समुद्र पार करना चाहता है। वैवस्वत मनु पिछले कल्प के अन्त में जिनके विशाल सींग में पृथ्वीरूप नौका को बाँधकर अनायास ही प्रलयकालीन संकट से बच गये, वे ही मत्स्य भगवान् हम शरणागतों को वृत्रासुर के द्वारा उपस्थित किये हुए दुस्तर भय से अवश्य बचायेंगे।
'प्राचीनकाल में प्रचण्ड पवन के थपेड़ों से उठी हुई उत्ताल तरंगों की गर्जना के कारण ब्रह्मा जी भगवान् के नाभिकमल से अत्यन्त भयानक 'प्रलयकालीन जल में गिर पड़े थे। यद्यपि वे असहाय थे, तथापि उनकी कृपा से वे उस विपत्ति से बच सके, वे ही भगवान् हमें इस संकट से पार करें। उन्हीं प्रभु ने अद्वितीय होने पर भी अपनी माया से हमारी रचना की और उन्हीं के अनुग्रह से हम लोग सृष्टि कार्य का संचालन करते हैं। यद्यपि वे हमारे सामने ही सब प्रकार की चेष्टाएँ कर-करा रहे हैं, तथापि ‘हम स्वतन्त्र ईश्वर हैं’-अपने इस अभिमान के कारण हम लोग उनके स्वरूप को देख नहीं पाते।'
'वे प्रभु जब देखते हैं कि देवता अपने शत्रुओं से बहुत पीड़ित हो रहे हैं, तब वे वास्तव में निर्विकार रहने पर भी अपनी माया का आश्रय लेकर देवता, ऋषि, पशु-पक्षी और मनुष्यादि योनियों में अवतार लेते हैं, तथा युग-युग में हमें अपना समझकर हमारी रक्षा करते हैं। वे ही सबके आत्मा और परमाध्य देव हैं। वे ही प्रकृति और पुरुषरूप से विश्व के कारण हैं। वे विश्व से पृथक् भी हैं और विश्वरूप भी हैं। हम सब उन्हीं शरणागतवत्सल भगवान् श्रीहरि की शरण ग्रहण करते हैं। उदार शिरोमणि प्रभु अवश्य ही अपने निजजन हम देवताओं का कल्याण करेंगे।'
इति श्रीमद् राम कथा बालकाण्ड अध्याय-५ का भाग- १८(18) समाप्त !
No comments:
Post a Comment