सूतजी कहते हैं - उस समय दुर्वासा जी बहुत भूखे थे। इसलिये यह जानकर कि राजा ने पारण कर लिया है, वे क्रोध से थर-थर काँपने लगे। भौंहों के चढ़ जाने से उनका मुँह विकट हो गया। उन्होंने हाथ जोड़कर खड़े अम्बरीष से डाँटकर कहा - अहो! देखो तो सही, यह कितना क्रूर है! यह धन के मद में मतवाला हो रहा है। भगवान् की भक्ति तो इसे छू तक नहीं गयी और यह अपने को बड़ा समर्थ मानता है। आज इसने धर्म का उल्लंघन करके बड़ा अन्याय किया है। देखो, मैं इसका अतिथि होकर आया हूँ। इसने अतिथि-सत्कार करने के लिये मुझे निमन्त्रण भी दिया है, किन्तु फिर भी मुझे खिलाये बिना ही खा लिया है। अच्छा देख, ‘तुझे अभी इसका फल चखाता हूँ।
'यों कहते-कहते वे क्रोध से जल उठे। उन्होंने अपनी एक जटा उखाड़ी और उससे अम्बरीष को मार डालने के लिये एक कृत्या उत्पन्न की। वह प्रलयकाल की आग के समान दहक रही थी। वह आग के समान जलती हुई, हाथ में तलवार लेकर राजा अम्बरीष पर टूट पड़ी। उस समय उसके पैरों की धमक से पृथ्वी काँप रही थी। परन्तु राजा अम्बरीष उसे देखकर उससे तनिक भी विचलित नहीं हुए। वे एक पग भी नहीं हटे, ज्यों-के-त्यों खड़े रहे।'
'परमपुरुष परमात्मा ने अपने सेवक की रक्षा के लिये पहले ही सुदर्शन चक्र को नियुक्त कर रखा था। जैसे आग क्रोध से गुर्राते हुए साँप को भस्म कर देती है, वैसे ही चक्र ने दुर्वासा जी की कृत्या को जलाकर राख का ढेर कर दिया। जब दुर्वासा जी ने देखा कि मेरी बनायी हुई कृत्या तो जल रही है और चक्र मेरी ओर आ रहा है, तब वे भयभीत हो अपने प्राण बचाने के लिये जी छोड़कर एकाएक भाग निकले। जैसे ऊँची-ऊँची लपटों वाला दावानल साँप के पीछे दौड़ता है, वैसे ही भगवान का चक्र उनके पीछे-पीछे दौड़ने लगा। जब दुर्वासा जी ने देखा कि चक्र तो मेरे पीछे लग गया है, तब सुमेरु पर्वत की गुफा में प्रवेश करने के लिये वे उसी ओर दौड़ पड़े।'
दुर्वासा जी दिशा, आकाश, पृथ्वी, अतल-वितल आदि नीचे के लोक, समुद्र, लोकपाल और उनके द्वारा सुरक्षित लोक एवं स्वर्ग तक में गये; परन्तु जहाँ-जहाँ वे गये, वही-वहीं उन्होंने असह्य तेज वाले सुदर्शन चक्र को अपने पीछे लगा देखा। जब उन्हें कहीं भी कोई रक्षक न मिला, तब तो वे और भी डर गये। अपने लिये त्राण ढूँढ़ते हुए वे देवशिरोमणि ब्रह्मा जी के पास गये और बोले - ब्रह्मा जी! आप स्वयम्भू हैं। भगवान् के इस तेजोमय चक्र से मेरी रक्षा कीजिये।
ब्रह्मा जी ने कहा - जब मेरी दो परार्ध की आयु समाप्त होगी और कालस्वरूप भगवान् अपनी यह सृष्टि लीला समेटने लगेंगे और इस जगत् को जलाना चाहेंगे, उस समय उनके भ्रूभंग मात्र से यह सारा संसार और मेरा यह लोक भी लीन हो जायेगा। मैं, शंकर जी, दक्ष-भृगु आदि प्रजापति, भूतेश्वर, देवेश्वर आदि सब जिनके बनाये नियमों में बँधे हैं तथा जिनकी आज्ञा शिरोधार्य करके हम लोग संसार का हित करते हैं, उनके भक्त के द्रोही को बचाने के लिये हम समर्थ नहीं हैं।
'जब ब्रह्मा जी ने इस प्रकार दुर्वासा को निराश कर दिया, तब भगवान् के चक्र से संतप्त होकर वे कैलाशवासी भगवान् शंकर की शरण में गये।'
श्रीमहादेव जी ने कहा - दुर्वासा जी! जिन अनन्त परमेश्वर में ब्रह्मा-जैसे जीव और उनके उपाधिभूत कोश, इस ब्रह्माण्ड के समान ही अनेकों ब्रह्माण्ड समय पर पैदा होते हैं और समय आने पर फिर उनका पता नहीं चलता, जिनमें हमारे-जैसे हजारों चक्कर काटते रहते हैं-उन प्रभु के सम्बन्ध में हम कुछ भी करने की सामर्थ्य नहीं रखते।
'मैं, सनत्कुमार, नारद, भगवान ब्रह्मा, कपिल देव, अपान्तरतम, देवल, धर्म, आसुरि तथा मरीचि आदि दूसरे सर्वज्ञ सिद्धेश्वर-ये हम सभी भगवान की माया को नहीं जान सकते। क्योंकि हम उसी माया के घेरे में हैं। यह चक्र उन विश्वेश्वर का शस्त्र है। यह हम लोगों के लिये असह्य है। तुम उन्हीं की शरण में जाओ। वे भगवान ही तुम्हारा मंगल करेंगे’।
वहाँ से भी निराश होकर दुर्वासा भगवान के परमधाम वैकुण्ठ में गये। लक्ष्मीपति भगवान लक्ष्मी के साथ वहीं निवास करते हैं। दुर्वासा जी भगवान के चक्र की आग से जल रहे थे। वे काँपते हुए भगवान के चरणों में गिर पड़े। उन्होंने कहा - हे अच्युत! हे अनन्त! आप संतों के एकमात्र वाञ्छनीय हैं। प्रभो! विश्व के जीवनदाता! मैं अपराधी हूँ। आप मेरी रक्षा कीजिये। आपका परमप्रभाव न जानने के कारण ही मैंने आपके प्यारे भक्त का अपराध किया है। प्रभो! आप मुझे उससे बचाइये। आपके तो नाम का ही उच्चारण करने से नारकी जीव भी मुक्त हो जाता है’।
श्रीभगवान ने कहा - दुर्वासा जी! मैं सर्वथा भक्तों के अधीन हूँ। मुझमें तनिक भी स्वतन्त्रता नहीं है। मेरे सीधे-सादे सरल भक्तों ने मेरे हृदय को अपने हाथ में कर रखा है। भक्तजन मुझसे प्रेम करते हैं और मैं उनसे। ब्रह्मन्! अपने भक्तों का एकमात्र आश्रय मैं ही हूँ। इसलिये अपने साधु स्वभाव भक्तों को छोड़कर मैं न तो अपने-आपको चाहता हूँ और न अपनी अर्द्धांगिनी विनाशरहित लक्ष्मी को।
'जो भक्त स्त्री, पुत्र, गृह, गुरुजन, प्राण, धन, इहलोक और परलोक-सब को छोड़कर केवल मेरी शरण में आ गये हैं, उन्हें छोड़ने का संकल्प भी मैं कैसे कर सकता हूँ? जैसे सती स्त्री अपने पातिव्रत्य से सदाचारी पति को वश में कर लेती है, वैसे ही मेरे साथ अपने हृदय को प्रेम-बन्धन से बाँध रखने वाले समदर्शी साधु भक्ति के द्वारा मुझे अपने वश में कर लेते हैं। मेरे अनन्य प्रेमी भक्त सेवा से ही अपने को परिपूर्ण-कृतकृत्य मानते हैं। मेरी सेवा के फलस्वरूप जब उन्हें सालोक्य, सारूप्य आदि मुक्तियाँ प्राप्त होती हैं, तब वे उन्हें भी स्वीकार करना नहीं चाहते; फिर समय के फेर से नष्ट हो जाने वाली वस्तुओं की तो बात ही क्या है।'
'दुर्वासा जी! मैं आपसे और क्या कहूँ, मेरे प्रेमी भक्त तो मेरे हृदय हैं और उन प्रेमी भक्तों का हृदय स्वयं मैं हूँ। वे मेरे अतिरिक्त और कुछ नहीं जानते तथा मैं उनके अतिरिक्त और कुछ भी नहीं जानता।'
'दुर्वासा जी! सुनिये, मैं आपको एक उपाय बताता हूँ। जिसका अनिष्ट करने से आपको इस विपत्ति में पड़ना पड़ा है, आप उसी के पास जाइये। निरपराध साधुओं के अनिष्ट की चेष्टा से अनिष्ट करने वाले का ही अमंगल होता है। इसमें सन्देह नहीं कि ब्राह्मणों के लिये तपस्या और विद्या परमकल्याण के साधन हैं। परन्तु यदि ब्राह्मण उद्दण्ड और अन्यायी हो जाये तो वे ही दोनों उलटा फल देने लगते हैं। दुर्वासा जी! आपका कल्याण हो। आप नाभागनन्दन परम भाग्यशाली राजा अम्बरीष के पास जाइये और उनसे क्षमा माँगिये। तब आपको शान्ति मिलेगी।'
इति श्रीमद् राम कथा वंश चरित्र अध्याय-२ का भाग-१८(18) समाप्त !
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