भाग-१७(17) नारद जी का भगवान विष्णु को शाप देना तत्पश्चात मोह का नाश होने पर क्षमा याचना करना

 


ऋषि बोले - हे सूत जी! रुद्रगणों के चले जाने पर नारद जी ने क्या किया और वे कहां गए? इस सबके बारे में भी हमें बताइए ।

सूत जी बोले - हे ऋषियो! माया से मोहित नारद जी उन दोनों शिवगणों को शाप देकर भी मोहवश कुछ जान न सके। तत्पश्चात क्रोधित होते हुए वे तालाब के पास पहुंचे और वहां जल में पुनः अपनी परछाईं देखी तो उन्हें फिर वानर जैसी आकृति दिखाई दी। उसे देखकर नारद जी को और अधिक क्रोध चढ़ आया। वे सीधे विष्णुलोक की ओर चल दिए। 

वहां पहुंचकर भगवान विष्णु से वे बोले - हे हरि! तुम बड़े दुष्ट हो। अपने कपट से विश्व को मोहने वाले तुम दूसरों को सुखी होता नहीं देख सकते। तभी तो तुमने सागर मंथन के समय 'मोहिनी' का रूप धारण कर दैत्यों से अमृत का कलश छीन लिया था और उन्हें अमृत की जगह मदिरा पिलाकर पागल बना दिया था। यदि उस समय भगवान शंकर दया करके विष को न पीते तो तुम्हारा सारा कपट प्रकट हो जाता। तुम्हें कपटपूर्ण चालें अधिक प्रिय हैं। भगवान महादेव जी ने ब्राह्मणों को सर्वोपरि बताया है। आज तुम्हें मैं ऐसी सीख दूंगा, जिससे तुम फिर कभी कहीं भी ऐसा कार्य नहीं कर सकोगे। अब तक तुम्हारा किसी शक्तिशाली मनुष्य से पाला नहीं पड़ा है। इसलिए तुम निडर बने हुए हो परंतु अब तुम्हें तुम्हारी करनी का पूरा फल मिलेगा। 

माया मोहित नारद जी क्रोध से खिन्न थे। वे भगवान विष्णु को शाप देते हुए बोले – विष्णु ! तुमने स्त्री के लिए मुझे व्याकुल किया है। तुम सभी को मोह में डालते हो। तुमने राजा का रूप धारण करके मुझे छला था। इसलिए मैं तुम्हें शाप देता हूं कि तुम्हारे जिस रूप ने कपटपूर्वक मुझे छला है, तुम्हें वही रूप मिले। तुम राजा होगे और इसी तरह स्त्री का वियोग भोगोगे, जिस तरह मैं भोग रहा हूं। तुमने जिन वानरों के समान मेरी आकृति बना दी है, वही वानर तुम्हारी सहायता करेंगे। तुम दूसरों को स्त्री वियोग का दुख देते हो, इसलिए तुम्हें भी यही दुख भोगना पड़ेगा। तुम्हारी स्थिति अज्ञान से मोहित मनुष्य जैसी हो जाएगी।

'अज्ञान से मोहित नारद जी का शाप विष्णु भगवान ने स्वीकार कर लिया। तत्पश्चात उन्होंने महालीला करने वाली मोहिनी माया को समाप्त कर दिया। माया के जाते ही नारद जी का खोया हुआ ज्ञान लौट आया और उनकी बुद्धि पहले की तरह हो गई। उनकी सारी व्याकुलता चली गई तथा मन में आश्चर्य उत्पन्न हो गया। यह सब जानकर नारद जी बहुत पछताने लगे और अपने को धिक्कारते हुए भगवान विष्णु के चरणों में गिर पड़े और उनसे क्षमा मांगने लगे।' 

नारद जी कहने लगे - मैंने अज्ञानवश होकर और माया के कारण आपको जो शाप दे दिया है, वह झूठा हो जाए। भगवान मेरी बुद्धि खराब हो गई थी, जो मैंने आपके लिए बुरे वचन अपनी जिव्हा से निकाले। मैंने बहुत बड़ा पाप किया है। हे प्रभु! मुझ पर कृपा कर मुझे ऐसा कोई उपाय बताइए जिससे मेरा सारा पाप नष्ट हो जाए। कृपया मुझे प्रायश्चित का उपाय बताइए। 

तब श्रीविष्णु ने उन्हें उठाकर मधुर वाणी में कहा - हे महर्षि ! आप दुखी न हों, आप मेरे श्रेष्ठ भक्त हैं, इसमें कोई संदेह नहीं है। नारद जी आप चिंता मत कीजिए, आप परम धन्य हैं। आपने अहंकार के वशीभूत होकर भगवान शिव की आज्ञा का पालन नहीं किया था इसलिए उन्होंने ही आपका अभिमान नष्ट करने के लिए यह लीला रची थी। वे निर्गुण और निर्विकार हैं और सत, रज और तम आदि गुणों से परे हैं। उन्होंने अपनी माया से ब्रह्मा, विष्णु और महेश तीनों रूपों को प्रकट किया है। 

'निर्गुण अवस्था में उन्हीं का नाम शिव है, वे ही परमात्मा, महेश्वर, परब्रह्म, अविनाशी, अनंत और महादेव नामों से जाने जाते हैं। उन्हीं की आज्ञा से ब्रह्माजी जगत के स्रष्टा हुए हैं, मैं तीनों लोकों का पालन करता हूं और शिवजी रुद्ररूप में सबका संहार करते हैं। वे शिवस्वरूप सबके साक्षी हैं। वे माया से भिन्न और निर्गुण हैं। वे अपने भक्तों पर सदा दया करते हैं। मैं तुम्हें समस्त पापों का नाश करने वाला, भोग एवं मोक्ष प्रदान करने वाला उपाय बताता हूं। अपने सारे संदेह एवं चिंताओं को त्यागकर भगवान शंकर की यश और कीर्ति का गुणगान करो और सदा अनन्य भाव से शिवजी के शतनाम स्तोत्र का पाठ करो। उनकी उपासना करो तथा प्रतिदिन उनकी पूजा-अर्चना करो।' 

'जो मनुष्य शरीर, मन और वाणी द्वारा भगवान शिव की उपासना करते हैं, उन्हें पण्डित या ज्ञानी कहा जाता है। जो मनुष्य शिवजी की भक्ति करते हैं, उन्हें संसाररूपी भवसागर से तत्काल मुक्ति मिल जाती है। जो लोग पाप रूपी दावानल से पीड़ित हैं, उन्हें शिव नाम रूपी अमृत का पान करना चाहिए। वेदों का पूर्ण ज्ञान प्राप्त करने के पश्चात ही ज्ञानी मनुष्यों ने शिवजी की पूजा को जन्म-मरण रूपी बंधनों से मुक्त होने का  सर्वश्रेष्ठ साधन बताया है।'

'इसलिए आज से ही रोज भगवान शिव की कथा सुनो और कहा करो तथा उनका पूजन किया करो। अपने हृदय में भगवान शिव के चरणों की स्थापना करो तथा उनके तीर्थों में निवास करते हुए उनकी स्तुति कर उनका गुणगान करो इसके बाद नारद जी तुम मेरी आज्ञा से अपने मनोरथ की सिद्धि के लिए ब्रह्मलोक जाना। वहां अपने पिता ब्रह्माजी की स्तुति करके उनसे शिव महिमा के बारे में पूछना। ब्रह्माजी, मैं शिवभक्तों में श्रेष्ठ हैं। वे तुम्हें भगवान शंकर का माहात्म्य और शतनाम स्तोत्र अवश्य सुनाएंगे। आज से तुम शिवभक्ति में लीन हो जाओ। वे अवश्य तुम्हारा कल्याण करेंगे। यह कहकर विष्णुजी अंतर्धान हो गए।'

सूत जी बोले – महर्षियो! भगवान श्रीहरि के अंतर्धान हो जाने पर मुनिश्रेष्ठ नारद शिवलिंगों का भक्तिपूर्वक दर्शन करने के लिए निकल गए। इस प्रकार भक्ति-मुक्ति देने वाले अनेक शिवलिंगों के उन्होंने दर्शन किए। 

जब उन रुद्रगणों ने नारद जी को वहां देखा तो वे दोनों गण अपने शाप की मुक्ति के लिए उनके चरणों पर गिर पड़े और उनसे प्रार्थना करने लगे कि वे उनका उद्धार करें - नारद मुने! हम आपके अपराधी हैं। राजकुमारी विश्वमोहीनी के स्वयंवर में आपका मन माया से मोहित था। उस समय भगवान शिव की प्रेरणा से आपने हमें शाप दे दिया था। अब आप हमारी जीवन रक्षा का उपाय कीजिए। हमने अपने कर्मों का फल भोग लिया है। कृपा कर हम पर प्रसन्न होकर हमें शापमुक्त कीजिए। 

नारद जी ने कहा - हे रुद्रगणों! आप महादेव के गण हैं एवं सभी के लिए आदरणीय हैं। उस समय भगवान शिव की इच्छा से मेरी बुद्धि भ्रष्ट हो गई थी। इसलिए मोहवश मैंने आपको शाप दे दिया था। आप लोग मेरे इस अपराध को क्षमा कर दें। परंतु मेरा वचन झूठा नहीं हो सकता। इसलिए मैं आपको शाप से मुक्ति का उपाय बताता हूं। मुनिवर विश्रवा के वीर्य द्वारा तुम एक राक्षसी के गर्भ में जन्म लोगे। समस्त दिशाओं में रावण और कुंभकर्ण के नाम से प्रसिद्धि पाओगे। राक्षसराज का पद प्राप्त करोगे। तुम बलवान व वैभव से युक्त होओगे।

तुम्हारा प्रताप सभी लोकों में फैलेगा। समस्त ब्रह्माण्ड के राजा होकर भी भगवान शिव के परम भक्तों में होओगे। भगवान शिव के ही दूसरे स्वरूप श्रीविष्णु के अवतार के हाथों से मृत्यु पाकर तुम्हारा उद्धार होगा तथा फिर अपने पद पर प्रतिष्ठित हो जाओगे।

सूत जी कहने लगे - इस प्रकार नारद जी का कथन सुनकर वे दोनों रुद्रगण प्रसन्न होते हुए वहां से चले गए और नारद जी भी आनंद से सराबोर हो मन ही मन शिवजी का ध्यान करते हुए शिवतीर्थों का दर्शन करने लगे। इसी प्रकार भ्रमण करते-करते वे शिव की प्रिय नगरी काशीपुरी में पहुंचे और काशीनाथ का दर्शन कर उनकी पूजा-उपासना की। 

'श्री नारद जी शिवजी की भक्ति में डूबे, उनका स्मरण करते हुए ब्रह्मलोक को चले गए। वहां पहुंचकर उन्होंने ब्रह्माजी को आदरपूर्वक नमस्कार किया और उनकी स्तुति करने लगे। उस समय उनका हृदय शुद्ध हो चुका था और उनके हृदय में शिवजी के प्रति भक्ति भावना ही थी और कुछ नहीं।' 

नारद जी बोले - हे पितामह ! आप तो परमब्रह्म परमात्मा के स्वरूप को अच्छी प्रकार से जानते हो। आपकी कृपा से मैंने भगवान विष्णु के माहात्म्य का ज्ञान प्राप्त किया है एवं भक्ति मार्ग, ज्ञान मार्ग, तपो मार्ग, दान मार्ग तथा तीर्थ मार्ग के बारे में जाना है परंतु मैं शिव तत्व के ज्ञान को अभी तक नहीं जान पाया हूं। मैं उनकी पूजा विधि को भी नहीं जानता हूं। अतः अब मैं उनके बारे में सभी कुछ जानना चाहता हूं।

मैं भगवान शिव के विभिन्न चरित्रों, उनके स्वरूप तथा वे सृष्टि के आरंभ में, मध्य में, किस रूप में थे, उनकी लीलाएं कैसी होती हैं और प्रलय काल में भगवान शिव कहां निवास करते हैं? उनका विवाह तथा उनके पुत्र कार्तिकेय के जन्म आदि की कथाएं मैं आपके श्रीमुख से सुनना चाहता हूं। भगवान शिव कैसे प्रसन्न होते है और प्रसन्न होने पर क्या-क्या प्रदान करते हैं? इस संपूर्ण वृत्तांत को मुझे बताने की कृपा करें।

अपने पुत्र नारद की ये बातें सुनकर पितामह ब्रह्मा बहुत प्रसन्न हुए तथा भगवान शिव की महिमा बताने लगे। इस प्रकार दीर्घकाल तक ब्रह्माजी से भगवान शिव की अमृतमयी कथाओं को सुनकर नारदजी ने परम शांति पायी। 

इति श्रीमद् राम कथा रावण चरित्र अध्याय-३ का भाग-१७(17) समाप्त !

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