विश्वामित्रजी ने कहा - वीर रघुनन्दन ! दैत्यों को भी देवगुरु बृहस्पति और देवराज इन्द्र की अनबन का पता लग गया। तब उन मदोन्मत्त और आततायी असुरों ने अपने गुरु शुक्राचार्य के आदेशानुसार देवताओं पर विजय पाने के लिये धावा बोल दिया। उन्होंने देवताओं पर इतने तीखे-तीखे बाणों की वर्षा की कि उनके मस्तक, जंघा, बाहु आदि अंग कट-कटकर गिरने लगे। तब इन्द्र के साथ सभी देवता सिर झुकाकर ब्रह्मा जी की शरण में गये। स्वयम्भू एवं समर्थ ब्रह्मा जी ने देखा कि देवताओं की तो सचमुच बड़ी दुर्दशा हो रही है। अतः उनका हृदय अत्यन्त करुणा से भर गया।
वे देवताओं को धीरज बँधाते हुए कहने लगे - देवताओं! यह बड़े खेद की बात है। सचमुच तुम लोगों ने बहुत बुरा काम किया। हरे, हरे! तुम लोगों ने ऐश्वर्य के मद से अंधे होकर ब्रह्मज्ञानी, वेदज्ञ एवं संयमी ब्रह्माण का सत्कार नहीं किया। देवताओं! तुम्हारी उसी अनीति का यह फल है कि आज समृद्धिशाली होने पर भी तुम्हें अपने निर्बल शत्रुओं के सामने नीचा देखना पड़ा।
'देवराज! देखो, तुम्हारे शत्रु भी पहले अपने गुरुदेव शुक्राचार्य का तिरस्कार करने के कारण अत्यन्त निर्बल हो गये थे, परन्तु अब भक्तिभाव से उनकी आराधना करके वे फिर धन-जन से सम्पन्न हो गये हैं। देवताओं! मुझे तो ऐसा मालूम पड़ रहा है कि शुक्राचार्य को अपना आराध्यदेव मानने वाले ये दैत्य लोग कुछ दिनों में मेरा ब्रह्मलोक भी छीन लेंगे। भृगुवंशियों ने इन्हें अर्थशास्त्र की पूरी-पूरी शिक्षा दे रखी है। ये जो कुछ करना चाहते हैं, उसका भेद तुम लोगों को नहीं मिल पाता।'
'उनकी सलाह बहुत गुप्त होती है। ऐसी स्थिति में वे स्वर्ग को तो समझते ही क्या हैं, वे चाहे जिस लोक को जीत सकते हैं। सच है, जो श्रेष्ठ मनुष्य ब्राह्मण, गोविन्द और गौओं को अपना सर्वस्व मानते हैं और जिन पर उनकी कृपा रहती है, उनका कभी अमंगल नहीं होता। इसलिये अब तुम लोग शीघ्र ही त्वष्टा के पुत्र विश्वरूप के पास जाओ और उन्हीं की सेवा करो। वे सच्चे ब्राह्मण, तपस्वी और संयमी हैं। यदि तुम लोग उसके असुरों के प्रति प्रेम को क्षमा कर सकोगे और उनका आदर करोगे, तो वे तुम्हारा काम बना देंगे।'
विश्वामित्रजी बोले - राम ! जब ब्रह्मा जी ने देवताओं से इस प्रकार कहा, तब उनकी चिन्ता दूर हो गयी। वे त्वष्टा के पुत्र विश्वरूप ऋषि के पास गये और उन्हें हृदय से लगाकर यों कहने लगे।
देवताओं ने कहा - पुत्र विश्वरूप! तुम्हारा कल्याण हो। हम तम्हारे आश्रम पर अतिथि के रूप में आये हैं। हम एक प्रकार से तुम्हारे पितर हैं। इसलिये तुम हम लोगों की समयोचित अभिलाषा पूर्ण करो। जिन्हें सन्तान हो गयी हो, उन सत्पुत्रों का भी सबसे बड़ा धर्म यही है कि वे अपने पिता तथा अन्य गुरुजनों की सेवा करें। फिर जो ब्रह्मचारी हैं, उनके लिये तो कहना ही क्या है। वत्स! आचार्य वेद की, पिता ब्रह्मा जी की, भाई इन्द्र की और माता साक्षात् पृथ्वी की मूर्ति होती है। इसी प्रकार बहिन दया की, अतिथि धर्म की, अभ्यागत अग्नि की और जगत् के सभी प्राणी अपने आत्मा की मूर्ति-आत्मस्वरूप होते हैं।
'पुत्र! हम तुम्हारे पितर हैं। इस समय शत्रुओं ने हमें जीत लिया है। हम बड़े दुःखी हो रहे हैं। तुम अपने तपोबल से हमारा यह दुःख, दारिद्य, पराजय टाल दो। पुत्र! तुम्हें हम लोगों की आज्ञा का पालन करना चाहिये। तुम ब्रह्मनिष्ठ ब्राह्मण हो, अतः जन्म से ही हमारे गुरु हो। हम तुम्हें आचार्य के रूप में वरण करके तुम्हारी शक्ति से अनायास ही शत्रुओं पर विजय प्राप्त कर लेंगे। पुत्र! आवश्यकता पड़ने पर अपने से छोटों का पैर छूना भी निन्दनीय नहीं है। वेदज्ञान को छोड़कर केवल अवस्था बड़प्पन का कारण भी नहीं है।'
वीरों में श्रेष्ठ राम! जब देवताओं ने इस प्रकार विश्वरूप से पुरोहिती करने की प्रार्थना की, तब परम तपस्वी विश्वरूप ने प्रसन्न होकर उनसे अत्यन्त प्रिय और मधुर शब्दों में कहा - पुरोहिती का काम ब्रह्मतेज को क्षीण करने वाला है। इसलिये धर्मशील महात्माओं ने उसकी निन्दा की है। किन्तु आप मेरे स्वामी हैं और लोकेश्वर होकर भी मुझसे उसके लिये प्रार्थना कर रहे हैं। ऐसी स्थति में मेरे-जैसा व्यक्ति भला, आप लोगों को कोरा जवाब कैसे दे सकता है? मैं तो आप लोगों का सेवक हूँ। आपकी आज्ञाओं का पालन करना ही मेरा स्वार्थ है।
'देवगण! हम अकिंचन हैं। खेती कट जाने पर अथवा अनाज की हाट उठ जाने पर उसमें से गिरे हुए कुछ दाने चुन लाते हैं और उसी से अपने देवकार्य तथा पितृकार्य सम्पन्न कर लेते हैं। लोकपालो! इस प्रकार जब मेरी जीविका चल ही रही है, तब मैं पुरोहिती की निन्दनीय वृत्ति क्यों करूँ? उससे तो केवल वे ही लोग प्रसन्न होते हैं, जिनकी बुद्धि बिगड़ गयी है। जो काम आप लोग मुझसे कराना चाहते हैं वह निन्दनीय है-फिर भी मैं आपके काम से मुँह नहीं मोड़ सकता; क्योंकि आप लोगों की माँग ही कितनी है। इसलिये आप लोगों का मनोरथ मैं तन-मन-धन से पूरा करूँगा।'
राम! विश्वरूप बड़े तपस्वी थे। देवताओं से ऐसी प्रतिज्ञा करके उनके वरण करने पर वे बड़ी लगन के साथ उनकी पुरोहिती करने लगे। यद्यपि शुक्राचार्य ने अपने नीतिबल से असुरों की सम्पत्ति सुरक्षित कर दी थी, फिर भी समर्थ विश्वरूप ने वैष्णवी विद्या के प्रभाव से उनसे वह सम्पत्ति छीनकर देवराज इन्द्र को दिला दी। जिस विद्या से सुरक्षित होकर इन्द्र ने असुरों की सेना पर विजय प्राप्त की थी, उसका उदार बुद्धि विश्वरूप ने ही उन्हें उपदेश किया था।
इति श्रीमद् राम कथा बालकाण्ड अध्याय-५ का भाग-१७(17) समाप्त !
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