सूतजी कहते हैं - ऋषियों ! मनुपुत्र नभग का पुत्र था नाभाग। जब वह दीर्घकाल तक ब्रह्मचर्य का पालन करके लौटा, तब बड़े भाइयों ने अपने से छोटे किन्तु विद्वान् भाई को हिस्से में केवल पिता को ही दिया (सम्पत्ति तो उन्होंने पहले ही आपस में बाँट ली थी)। उसने अपने भाइयों से पूछा- भाइयों! आप लोगों ने मुझे हिस्से में क्या दिया है? तब उन्होंने उत्तर दिया कि हम तुम्हारे हिस्से में पिताजी को ही तुम्हें देते हैं। उसने अपने पिता से जाकर कहा - पिताजी! मेरे बड़े भाइयों ने हिस्से में मेरे लिये आपको ही दिया है।
पिता ने कहा - पुत्र! तुम उनकी बात न मानो। देखो, ये बड़े बुद्धिमान् आंगिरस गोत्र के ब्राह्मण इस समय एक बहुत बड़ा यज्ञ कर रहे हैं। परन्तु मेरे विद्वान् पुत्र! वे प्रत्येक छठे दिन अपने कर्म में भूल कर बैठते हैं। तुम उन महात्माओं के पास जाकर उन्हें वैश्वेदेव सम्बन्धी दो सूक्त बतला दो; जब वे स्वर्ग जाने लगेंगे, तब यज्ञ से बचा हुआ अपना सारा धन तुम्हें दे देंगे। इसलिये अब तुम उन्हीं के पास चले जाओ। उसने अपने पिता के आज्ञानुसार वैसा ही किया। उन आंगिरस गोत्री ब्राह्मणों ने भी यज्ञ का बचा हुआ धन उसे दे दिया और वे स्वर्ग में चले गये।
जब नाभाग उस धन को लेने लगा, तब उत्तर दिशा से एक काले रंग का पुरुष आया। उसने कहा - इस यज्ञभूमि में जो कुछ बचा हुआ है, वह सब धन मेरा है।
नाभाग ने कहा- ऋषियों ने यह धन मुझे दिया है, इसलिये मेरा है। इस पर उस पुरुष ने कहा - हमारे विवाद के विषय में तुम्हारे पिता से ही प्रश्न किया जाये। तब नाभाग ने जाकर पिता से पूछा।
पिता ने कहा - एक बार दक्ष प्रजापति के यज्ञ में ऋषि लोग यह निश्चय कर चुके हैं कि यज्ञभूमि में जो कुछ बच रहता है, वह सब रुद्र देव का हिस्सा है। इसलिये वह धन तो महादेव जी को ही मिलना चाहिये।
नाभाग ने जाकर उन काले रंग के पुरुष रुद्र-भगवान को प्रणाम किया और कहा कि प्रभो! यज्ञभूमि की सभी वस्तुएँ आपकी हैं, मेरे पिता ने ऐसा ही कहा है। भगवन्! मुझसे अपराध हुआ, मैं सिर झुकाकर आपसे क्षमा माँगता हूँ।
तब भगवान रुद्र ने कहा - तुम्हारे पिता ने धर्म के अनुकूल निर्णय दिया है और तुमने भी मुझसे सत्य ही कहा है। तुम वेदों का अर्थ तो पहले से ही जानते हो। अब मैं तुम्हें सनातन ब्रह्मतत्त्व का ज्ञान देता हूँ। जहाँ यज्ञ में बचा हुआ मेरा जो अंश है, यह धन भी मैं तुम्हें ही दे रहा हूँ; तुम इसे स्वीकार करो। इतना कहकर सत्यप्रेमी भगवान शंकर अन्तर्धान हो गये।
'जो मनुष्य प्रातः और सायंकाल एकाग्रचित्त से इस आख्यान का स्मरण करता है वह प्रतिभाशाली एवं वेदज्ञ तो होता ही है, साथ ही अपने स्वरूप को भी जान लेता है। नाभाग के पुत्र हुए अम्बरीष। वे भगवान के बड़े प्रेमी एवं उदार धर्मात्मा थे। जो ब्रह्म शाप कभी कहीं रोका नहीं जा सका, वह भी अम्बरीष का स्पर्श न कर सका।'
शौनकजी ने पूछा - भगवन! मैं परमज्ञानी राजर्षि अम्बरीष का चरित्र सुनना चाहता हूँ। ब्राह्मण ने क्रोधित होकर उन्हें ऐसा दण्ड दिया जो किसी प्रकार टाला नहीं जा सकता; परन्तु वह भी उनका कुछ न बिगाड़ सका।
सूतजी कहते हैं - हे शौनक! अम्बरीष बड़े भाग्यवान् थे। पृथ्वी के सातों द्वीपों, अचल सम्पत्ति और अतुलनीय ऐश्वर्य उनको प्राप्त था। यद्यपि ये सब साधारण मनुष्यों के लिये अत्यन्त दुर्लभ वस्तुएँ हैं, फिर भी वे इन्हें स्वप्नतुल्य समझते थे। क्योंकि वे जानते थे कि जिस धन-वैभव के लोभ में पड़कर मनुष्य घोर नरक में जाता है, वह केवल चार दिन की चाँदनी है। उसका दीपक तो बुझा-बुझाया है।
'श्रीभगवान् में और उनके प्रेमी साधुओं में उनका परम प्रेम था। उस प्रेम के प्राप्त हो जाने पर तो यह सारा विश्व और इसकी समस्त सम्पत्तियाँ मिट्टी के ढेले के समान जान पड़ती हैं। उन्होंने अपने मन को श्रीभगवान् के चरणारविन्द युगल में, वाणी को भगवद्गुणानुवर्णन में, हाथों को श्रीहरि-मन्दिर के मार्जन-सेचन में और अपने कानों को भगवान् अच्युत की मंगलमयी कथा के श्रवण में लगा रखा था। उन्होंने अपने नेत्र मुकुन्दमूर्ति एवं मन्दिरों के दर्शनों में, अंग-संग भगवद्भक्तों के शरीर स्पर्श में, नासिका उनके चरणकमलों पर चढ़ी श्रीमती तुलसी के दिव्य गन्ध में और रसना (जिह्वा) को भगवान् के प्रति अर्पित नैवेद्य-प्रसाद में संलग्न कर दिया था।'
अम्बरीष के पैर भगवान् के क्षेत्र आदि की पैदल यात्रा करने में ही लगे रहते और वे सिर से भगवान् के चरणकमलों की वन्दना किया करते। राजा अम्बरीष ने माला, चन्दन आदि भोग-सामग्री को भगवान् की सेवा में समर्पित कर दिया था। भोगने की इच्छा से नहीं, बल्कि इसलिये कि इससे वह भगवत्प्रेम प्राप्त हो, जो पवित्र कीर्ति भगवान् के निज-जनों में ही निवास करता है।'
'इस प्रकार उन्होंने अपने सारे कर्म यज्ञपुरुष, इन्द्रियातीत भगवान् के प्रति उन्हें सर्वात्मा एवं सर्वस्वरूप समझकर समर्पित कर दिये थे और भगवद्भक्त ब्राह्मणों की आज्ञा के अनुसार वे इस पृथ्वी का शासन करते थे। उन्होंने ‘धन्व’ नाम के निर्जल देश में सरस्वती नदी के प्रवाह के सामने वशिष्ठ, असित, गौतम आदि भिन्न-भिन्न आचार्यों द्वारा महान् ऐश्वर्य के कारण सर्वांग परिपूर्ण तथा बड़ी-बड़ी दक्षिणा वाले अनेकों अश्वमेध यज्ञ करके यज्ञाधिपति भगवान् की आराधना की थी।'
उनके यज्ञों में देवताओं के साथ जब सदस्य और ऋत्विज बैठ जाते थे, तब उनकी पलकें नहीं पड़ती थीं और वे अपने सुन्दर वस्त्र और वैसे ही रूप के कारण देवताओं के समान दिखायी पड़ते थे। उनकी प्रजा महात्माओं के द्वारा गाये हुए भगवान् के उत्तम चरित्रों का किसी समय बड़े प्रेम से श्रवण करती और किसी समय उनका गान करती।'
'इस प्रकार उनके राज्य के मनुष्य देवताओं के अत्यन्त प्यारे स्वर्ग की भी इच्छा नहीं करते। वे अपने हृदय में अनन्त प्रेम का दान करने वाले श्रीहरि का नित्य-निरन्तर दर्शन करते रहते थे। इसलिये उन लोगों को वह भोग-सामग्री भी हर्षित नहीं कर पाती थी, जो बड़े-बड़े सिद्धों को भी दुर्लभ है। वे वस्तुएँ उनके आत्मानन्द के सामने अत्यन्त तुच्छ और तिरस्कृत थीं।'
'राजा अम्बरीष इस प्रकार तपस्या से युक्त भक्तियोग और प्रजापालनरूप स्वधर्म के द्वारा भगवान् को प्रसन्न करने लगे और धीरे-धीरे उन्होंने सब प्रकार की आसक्तियों का परित्याग कर दिया। घर, स्त्री, पुत्र, भाई-बन्धु, बड़े-बड़े हाथी, रथ, घोड़े एवं पैदलों की चतुरंगिणी सेना, अक्षय रत्न, आभूषण और आयुध आदि समस्त वस्तुओं तथा कभी समाप्त न होने वाले कोशों के सम्बन्ध में उनका ऐसा दृढ़ निश्चय था कि वे सब-के-सब असत्य हैं।'
'उनकी अनन्य प्रेममयी भक्ति से प्रसन्न होकर भगवान् ने उनकी रक्षा के लिये सुदर्शन चक्र को नियुक्त कर दिया था, जो विरोधियों को भयभीत करने वाला एवं भगवद्भक्तों की रक्षा करने वाला है।'
'राजा अम्बरीष की पत्नी भी उन्हीं के समान धर्मशील, संसार से विरक्त एवं भक्ति परायण थीं। एक बार उन्होंने अपनी पत्नी के साथ भगवान श्रीनारायण की आराधना करने के लिये एक वर्ष तक द्वादशी प्रधान एकादशी-व्रत करने का नियम ग्रहण किया। व्रत की समाप्ति होने पर कार्तिक महीने में उन्होंने तीन रात का उपवास किया और एक दिन यमुना जी में स्नान करके मधुवन में भगवान की पूजा की।'
'उन्होंने महाभिषेक की विधि से सब प्रकार की सामग्री और सम्पत्ति द्वारा भगवान् का अभिषेक किया और हृदय में तन्मय होकर वस्त्र, आभूषण, चन्दन, माला एवं अर्ध्य आदि के द्वारा उनकी पूजा की। यद्यपि महाभाग्यवान ब्राह्मणों को इस पूजा की कोई आवश्यकता नहीं थी, स्वयं ही उनकी सारी कामनाएँ पूर्ण हो चुकी थीं-वे सिद्ध थे-तथापि राजा अम्बरीष ने भक्ति-भाव से उनका पूजन किया।'
तत्पश्चात पहले ब्राह्मणों को स्वादिष्ट और अत्यन्त गुणकारी भोजन कराकर उन लोगों के घर साठ करोड़ गौएँ सुसज्जित करके भेंज दीं। उन गौओं के सींग सुवर्ण से और खुर चाँदी से मढ़े हुए थे। सुन्दर-सुन्दर वस्त्र उन्हें ओढ़ा दिये गये थे। वे गौएँ बड़ी सुशील, छोटी अवस्था की, देखने में सुन्दर, बछड़े वाली और खूब दूध देने वाली थीं। उनके साथ दुहने की उपयुक्त सामग्री भी उन्होंने भेजवा दी थी।'
'जब ब्राह्मणों को सब कुछ मिल चुका, तब राजा ने उन लोगों से आज्ञा लेकर व्रत का पारण करने की तैयारी की। उसी समय शाप और वरदान देने में समर्थ स्वयं दुर्वासा जी भी उनके यहाँ अतिथि के रूप में पधारे। राजा अम्बरीष उन्हें देखते ही उठकर खड़े हो गये, आसन देकर बैठाया और विविध सामग्रियों से अतिथि के रूप में आये हुए दुर्वासा जी की पूजा की। उनके चरणों में प्रणाम करके अम्बरीष ने भोजन के लिये प्रार्थना की। दुर्वासा जी ने अम्बरीष की प्रार्थना स्वीकार कर ली और इसके बाद आवश्यक कर्मों से निवृत्त होने के लिये वे नदी तट पर चले गये। वे ब्रह्म का ध्यान करते हुए यमुना के पवित्र जल में स्नान करने लगे।
इधर द्वादशी केवल घड़ी भर शेष रह गयी थी। धर्मज्ञ अम्बरीष ने धर्म-संकट में पड़कर ब्राह्मणों के साथ परमार्थ किया। उन्होंने कहा - ब्राह्मण देवताओ! ब्राह्मण को बिना भोजन कराये स्वयं खा लेना और द्वादशी रहते पारण न करना-दोनों ही दोष हैं। इसलिये इस समय जैसा करने से मेरी भलाई हो और मुझे पाप न लगे, ऐसा काम करना चाहिये।
तब ब्राह्मणों के साथ विचार करके उन्होंने कहा - ब्राह्मणो! श्रुतियों में ऐसा कहा गया है कि जल पी लेना भोजन करना भी है, नहीं भी करना है। इसलिये इस समय केवल जल से पारण किये लेता हूँ। ऐसा निश्चय करके मन-ही-मन भगवान् का चिन्तन करते हुए राजर्षि अम्बरीष ने जल पी लिया और वे केवल दुर्वासा जी के आने की बाट देखने लगे। दुर्वासा जी आवश्यक कर्मों से निवृत्त होकर यमुना तट से लौट आये। जब राजा ने आगे बढ़कर उनका अभिनन्दन किया और तब उन्होंने अनुमान से ही समझ लिया कि राजा ने पारण कर लिया है।
इति श्रीमद् राम कथा वंश चरित्र अध्याय-२ का भाग-१७(17) समाप्त !
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