भाग-१६(16) नारद जी की काम वासना तथा भगवान विष्णु से उनका रूप मांगना

 


सूत जी बोले – हे ऋषियो! अब भगवान राम के अवतार का एक कारण और सुनो। एक समय की बात है। ब्रह्मा पुत्र नारद जी हिमालय पर्वत की एक गुफा में बहुत दिनों से तपस्या कर रहे थे। उन्होंने दृढ़तापूर्वक समाधि लगाई थी और तप करने लगे थे। उनके उग्र तप का समाचार पाकर देवराज इंद्र कांप उठे। उन्होंने सोचा कि नारद मुनि मेरे स्वर्गलोक के राज्य को छीनना चाहते हैं। यह विचार आते ही इंद्र ने उनकी तपस्या में विघ्न डालने का प्रयत्न किया। 

उन्होंने कामदेव को बुलाया और कहने लगे – हे कामदेव! तुम मेरे परम मित्र एवं हितैषी हो। नारदजी हिमाचल पर्वत की गुफा में बैठकर तपस्या कर रहे हैं। कहीं ऐसा न हो कि वह वरदान में ब्रह्माजी से मेरा स्वर्ग का राज्य ही मांग बैठे। अतः तुम वहां जाकर उसका तप भंग कर दो। यह आज्ञा पाकर कामदेव वसंत को साथ ले बड़े गर्व से उस स्थान पर गए और अपनी सारी कलाएं रच डालीं। कामदेव और वसंत के बहुत प्रयत्न करने पर भी नारद मुनि के मन में कोई विकार उत्पन्न नहीं हुआ। महादेव जी के अनुग्रह से उन दोनों का अहंकार चूर्ण हो गया।

'ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि महादेव जी की कृपा से नारद मुनि पर कामदेव का कोई प्रभाव नहीं पड़ा था। पहले उस आश्रम में भगवान शिव ने भी तपस्या की थी। उसी स्थान पर उन्होंने ऋषि-मुनियों की तपस्या का नाश करने वाले कामदेव को भस्म कर डाला था। कामदेव को भस्म देखकर उनकी पत्नी रति ने बिलखते हुए भगवान शंकर से उन्हें जीवित करने की प्रार्थना की तथा सभी देवता भी शिवजी से प्रार्थना करने लगे तो भगवान महादेव जी ने कहा था कि कुछ समय पश्चात कामदेव स्वयं जीवित हो जाएंगे। किंतु इस स्थान पर और इसके आस-पास जहां तक भस्म दिखाई देती है, वहां तक की पृथ्वी पर कामदेव की माया और काम बाण का कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा। इस प्रकार उस स्थान से कामदेव लज्जित होकर वापस लौट आया।' 

'देवराज इंद्र ने जब यह सुना कि नारद जी पर कामदेव का कोई प्रभाव नहीं पड़ा तो उन्होंने नारद जी की खूब प्रशंसा की। भगवान शिव की माया के कारण वे भूल गए थे कि शिवजी के शाप के कारण उस स्थान पर कामदेव की माया नहीं चल सकती। नारद जी भगवान शिव की कृपा से बहुत समय तक तपस्या करते रहे। अपने तप को पूर्ण हुआ समझकर नारद जी उठे तो उन्हें कामदेव पर विजय प्राप्त करने का ध्यान आया। तब उन्हें मन ही मन इस बात का अभिमान हुआ कि उन्होंने कामदेव पर विजय प्राप्त कर ली है।' 

'इस प्रकार अभिमान से उनका ज्ञान नष्ट हो गया। वे यह समझ नहीं सके कि कामदेव के पराजित होने में भगवान शंकर की ही माया थी। तब वे अपनी काम विजय की कथा सुनाने के लिए शीघ्र ही कैलाश पर्वत पर जा पहुंचे और भगवान शिव को नमस्कार करके अपनी तपस्या की सफलता का समाचार तथा कामदेव पर विजय प्राप्त करने का समाचार कह सुनाया।'

यह सब सुनकर महादेव जी ने नारद की प्रशंसा करते हुए कहा - हे नारद जी! आप परम धन्य हैं परंतु मेरी एक बात याद रखना कि यह समाचार किसी अन्य देवता को मत सुनाना, विशेषकर भगवान विष्णु से तो इस बात को कदापि न कहना। यह वृत्तांत सबसे छिपाकर रखने योग्य है। तुम मेरे प्रिय हो, इसलिए मैं तुम्हें यह आज्ञा देता हूं कि यह बात किसी के सामने प्रकट मत करना। 

'परंतु वे तो शिव की माया से मोहित हो चुके थे। इसलिए उनकी दी शिक्षा को ध्यान में न रखते हुए वे ब्रह्मलोक चले गए। वहां ब्रह्माजी को नमस्कार कर बोले मैंने अपने तपोबल से कामदेव को जीत लिया है। यह सुनकर ब्रह्माजी ने भगवान शिव के चरणों का चिंतन करके सारा कारण जान लिया तथा अपने पुत्र नारद को यह सब किसी और से कहने के लिए मना कर दिया।'

'नारद के मन में अभिमान के अंकुर उत्पन्न हो गए थे जिसके फलस्वरूप उनकी बुद्धि नष्ट हो गई थी। वे तो तुरंत विष्णुलोक पहुंचकर भगवान विष्णु को यह सारा किस्सा सुनाना चाहते थे। अतः शीघ्र ही वे ब्रह्मलोक से चल दिए। नारद मुनि को आते देखकर भगवान विष्णु सिंहासन से उठ खड़े हुए। उन्होंने नारद को गले लगा लिया और आदर सहित आसन पर बैठाया।' 

भगवान शिव के चरणों का स्मरण करके भगवान विष्णु ने नारद जी से पूछा - नारद जी! आप कहां से आ रहे हैं और इस लोक में आपका शुभागमन किसलिए हुआ है ? यह सुनकर नारद जी ने अहंकार सहित अपने तप के पूर्ण होने एवं कामदेव पर विजय प्राप्त करने का समस्त हाल उन्हें कह सुनाया। 

भगवान विष्णु काम के विजय के असली कारण को समझ चुके थे। वे नारद जी से बोले - हे नारद जी ! आपकी कीर्ति एवं निर्मल बुद्धि धन्य है। काम-क्रोध एवं लोभ-मोह उन मनुष्यों को पीड़ित करते हैं, जो भक्तिहीन हैं। आप तो ज्ञान, वैराग्य से युक्त एवं ब्रह्मचारी हैं, फिर भला यह काम आपका क्या बिगाड़ सकता था?

देवर्षि नारद बोले - हे भगवन्! यह सब आपकी कृपा का ही फल है। आपकी कृपा के आगे कामदेव की क्या सामर्थ्य है जो मेरा कुछ बिगाड़ सके। मैं तो सदा ही निर्भय हूं। इतना कहकर नारद जी विष्णु भगवान को नमस्कार कर वहां से चल दिए।

सूत जी बोले - महर्षियो! नारद जी के चले जाने पर शिवजी की इच्छा से विष्णु भगवान ने एक अद्भुत माया रची। उन्होंने जिस ओर नारद जी जा रहे थे, वहां एक सुंदर नगर बना दिया। वह नगर बैकुण्ठलोक से भी अधिक रमणीय था। वहां बहुत से विहार-स्थल थे। उस नगर के राजा का नाम 'शीलनिधि' था। उस राजा की एक बहुत सुंदर कन्या थी। उन्होंने अपनी पुत्री के लिए स्वयंवर का आयोजन किया था। उनकी कन्या का वरण करने के लिए उत्सुक बहुत से राजकुमार पधारे थे। वहां बहुत चहल-पहल थी। इस नगर की शोभा देखते ही नारद जी का मन मोहित हो गया। जब राजा शीलनिधि ने नारद जी को आते देखा तो उन्हें सादर प्रणाम करके स्वर्ण सिंहासन पर बैठाकर उनकी पूजा की। फिर अपनी देव-सुंदरी कन्या को बुलाया जिसने महर्षि के चरणों में प्रणाम किया। 

नारद जी से उसका परिचय कराते हुए शीलनिधि ने निवेदन किया - महर्षि ! यह मेरी पुत्री 'विश्वमोहीनी' है। इसके स्वयंवर का आयोजन किया गया है। इस कन्या के गुण दोषों को बताने की कृपा कीजिए ।

राजा के ऐसे वचन सुनकर नारद जी बोले - राजन! आपकी कन्या साक्षात लक्ष्मी है। इसका भावी पति भगवान शिव के समान वैभवशाली, त्रिलोकजयी, वीर तथा कामदेव को भी जीतने वाला होगा। ऐसा कहकर नारद मुनि वहां से चल दिए। 

भगवान की माया के कारण वे काम के वशीभूत हो सोचने लगे कि राजकुमारी को कैसे प्राप्त करूं? स्वयंवर में आए सुंदर एवं वैभवशाली राजाओं को छोड़कर भला यह मेरा वरण कैसे करेगी? वे सोचने लगे कि नारियों को सौंदर्य बहुत प्रिय होता है। सौंदर्य को देखकर ही 'विश्वमोहीनी' मेरा वरण कर सकती है। ऐसा विचार कर नारद जी फिर विष्णुलोक में जा पहुंचे और उन्हें राजा शीलनिधि की कन्या के स्वयंवर के बारे में बताया तथा उस कन्या के साथ विवाह करने की इच्छा व्यक्त की। उन्होंने भगवान विष्णु से प्रार्थना की कि वे अपना रूप उन्हें प्रदान करें ताकि विश्वमोहीनी उन्हें ही वरे।

सूत जी कहते हैं - महर्षियो! नारद मुनि की ऐसी बात सुनकर भगवान मधुसूदन हंस पड़े और भगवान शंकर के प्रभाव का अनुभव करके उन्होंने इस प्रकार उत्तर दिया। 

भगवान विष्णु बोले - हे नारद ! वहां आप अवश्य जाइए, मैं आपका हित उसी प्रकार करूंगा, जिस प्रकार पीड़ित व्यक्ति का श्रेष्ठ वैद्य करता है क्योंकि तुम मुझे विशेष प्रिय हो । ऐसा कहकर भगवान विष्णु ने नारद मुनि को वानर का मुख तथा शेष अंगों को अपना मनोहर रूप प्रदान कर दिया। तब नारद जी अत्यंत प्रसन्न होते हुए अपने को परम सुंदर समझकर शीघ्र ही स्वयंवर में आ गए और उस राज्य सभा में जा बैठे। उस सभा में रुद्रगण ब्राह्मण के रूप में बैठे हुए थे। नारद जी का वानर रूप केवल कन्या और रुद्रगणों को ही दिखाई दे रहा था, बाकी सबको नारद जी का वास्तविक रूप ही दिखाई दे रहा था। नारद मन ही मन प्रसन्न होते हुए विश्वमोहीनी की प्रतीक्षा कर रहे थे।

'हे ऋषियो! वह कन्या हाथ में जयमाला लिए अपनी सखियों के साथ स्वयंवर में आई। उसके हाथों में सोने की सुंदर माला थी । वह शुभलक्षणा राजकुमारी लक्ष्मी के समान अपूर्व शोभा पा रही थी। नारद मुनि का भगवान विष्णु जैसा शरीर और वानर जैसा मुख देख वह कुपित हो गई और उनकी ओर से दृष्टि हटाकर मनोवांछित वर की तलाश में आगे चली गई।' 

सभा में अपने मनपसंद वर को न पाकर वह उदास हो गई। उसने किसी के भी गले में वरमाला नहीं डाली। तभी भगवान विष्णु राजा की वेशभूषा धारण कर वहां आ पहुंचे। विष्णुजी को देखते ही उस परम सुंदरी ने उनके गले में वरमाला डाल दी। विष्णुजी राजकुमारी को साथ लेकर तुरंत अपने लोक को चले गए। यह देखकर नारद जी विचलित हो गए।' 

तब ब्राह्मणों के रूप में उपस्थित रुद्रगणों ने नारद जी से कहा- हे नारद जी! आप व्यर्थ ही काम से मोहित हो सौंदर्य के बल से राजकुमारी को पाना चाहते हैं। पहले जरा अपना वानर के समान मुख तो देख लीजिए। 

सूत जी बोले - यह वचन सुनकर नारद जी को बड़ा आश्चर्य हुआ। उन्होंने दर्पण में अपना मुंह देखा वानर के समान मुख को देखकर वे अत्यंत क्रोधित हो उठे तथा दोनों रुद्रगणों को शाप देते हुए बोले तुमने एक ब्राह्मण का मजाक उड़ाया है। अतः तुम ब्राह्मण कुल में पैदा होकर भी राक्षस बन जाओ। यह सुनकर वे शिवगण कुछ नहीं बोले बल्कि इसे भगवान शिव की इच्छा मानते हुए उदासीन भाव से अपने स्थान को चले गए और भगवान शिव की स्तुति करने लगे। 

इति श्रीमद् राम कथा रावण चरित्र अध्याय-३ का भाग-१६(16) समाप्त !

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