तदनन्तर निर्मल प्रभातकाल में नित्यकर्म से निवृत्त हुए विश्वामित्रजी को आगे करके शत्रुदमन वीर श्रीराम और लक्ष्मण गंगानदी के तट पर आये। उस समय उत्तम व्रत का पालन करने वाले उन पुण्याश्रम निवासी महात्मा मुनियों ने एक सुन्दर नाव मँगवाकर विश्वामित्रजी से कहा - महर्षे! आप इन राजकुमारों को आगे करके इस नाव पर बैठ जाइये और मार्ग को निर्विघ्नतापूर्वक तय कीजिये, जिससे विलम्ब न हो।
विश्वामित्रजी ने 'बहुत अच्छा' कहकर उन महर्षियों की सराहना की और वे श्रीराम तथा लक्ष्मण के साथ समुद्र- गामिनी गंगानदी को पार करने लगे । गंगा की बीच धारा में आने पर छोटे भाई सहित महातेजस्वी श्रीराम को दो जलों के टकराने की बड़ी भारी आवाज सुनायी देने लगी। 'यह कैसी आवाज है? क्यों तथा कहाँ से आ रही है ?' इस बात को निश्चितरूप से जानने की इच्छा उनके भीतर जाग उठी।
तब श्रीराम ने नदी के मध्यभाग में मुनिवर विश्वामित्र से पूछा - जल के परस्पर मिलने से यहाँ ऐसी तुमुलध्वनि क्यों हो रही है?
श्रीरामचन्द्रजी के वचन में इस रहस्य को जानने की उत्कण्ठा भरी हुई थी। उसे सुनकर धर्मात्मा विश्वामित्र ने उस महान् शब्द (तुमुलध्वनि) का सुनिश्चित कारण बताते हुए कहा – नरश्रेष्ठ राम! कैलासपर्वत पर एक सुन्दर सरोवर है। उसे ब्रह्माजी ने अपने मानसिक संकल्प से प्रकट किया था। मन के द्वारा प्रकट होने से ही वह उत्तम सरोवर 'मानस' कहलाता है। उस सरोवर से एक नदी निकली है, जो अयोध्यापुरी से सटकर बहती है। ब्रह्मसर से निकलने के कारण वह पवित्र नदी सरयू के नाम से विख्यात है। उसी का जल गंगाजी में मिल रहा है। दो नदियों के जलों के संघर्ष से ही यह भारी आवाज हो रही है; जिसकी कहीं तुलना नहीं है। राम! तुम अपने मन को संयम में रखकर इस संगम के जल को प्रणाम करो।
यह सुनकर उन दोनों अत्यन्त धर्मात्मा भाइयों ने उन दोनों नदियों को प्रणाम किया और गंगा के दक्षिण किनारे पर उतरकर वे दोनों बन्धु जल्दी-जल्दी पैर बढ़ाते हुए चलने लगे।
उस समय इक्ष्वाकुनन्दन राजकुमार श्रीराम ने अपने सामने एक भयङ्कर वन देखा, जिसमें मनुष्यों के आने- जाने का कोई चिह्न नहीं था। उसे देखकर उन्होंने मुनिवर विश्वामित्र से पूछा - गुरुदेव! यह वन तो बड़ा ही अद्भुत एवं दुर्गम है। यहाँ चारों ओर झिल्लियों की झनकार सुनायी देती है। भयानक हिंसक जन्तु भरे हुए हैं। भयङ्कर बोली बोलने वाले पक्षी सब ओर फैले हुए हैं। नाना प्रकार के विहंगम भीषण स्वर में चहचहा रहे हैं।
'सिंह, व्याघ्र, सूअर और हाथी भी इस जंगल की शोभा बढ़ा रहे हैं। धव (धौरा ), अश्वकर्ण (एक प्रकारके शालवृक्ष), ककुभ (अर्जुन), बेल, तिन्दुक (तेन्दू), पाटल (पाइर) तथा बेर के वृक्षों से भरा हुआ यह भयङ्कर वन क्या है? – इसका क्या नाम है ?'
तब महातेजस्वी महामुनि विश्वामित्र ने उनसे कहा - वत्स! ककुत्स्थनन्दन ! यह भयङ्कर वन जिसके अधिकार में रहा है, उसका परिचय सुनो। नरश्रेष्ठ! पूर्वकाल में यहाँ दो समृद्धिशाली जनपद थे – मलद और करूष। ये दोनों देश देवताओं के प्रयत्न निर्मित हुए थे। राम! पहले की बात है, वृत्रासुर का वध करने के पश्चात् देवराज इन्द्र मल से लिप्त हो गये। क्षुधा ने भी उन्हें धर दबाया और उनके भीतर ब्रह्महत्या प्रविष्ट हो गयी।
‘तब देवताओं तथा तपोधन ऋषियों ने मलिन इन्द्र को यहाँ गंगाजल से भरे हुए कलशों द्वारा नहलाया तथा उनके मल (और कारूष - क्षुधा ) को छुड़ा दिया। इस भूभाग में देवराज इन्द्र के शरीर से उत्पन्न हुए मल और कारूप को देकर देवता लोग बड़े प्रसन्न हुए। इन्द्र पूर्ववत् निर्मल, निष्करूप (क्षुधाहीन) एवं शुद्ध हो गये।'
'तब उन्होंने प्रसन्न होकर इस देश को यह उत्तम वर प्रदान किया - ये दो जनपद लोक में मलद और करूष नाम से विख्यात होंगे। मेरे अंगजनित मल को धारण करनेवाले ये दोनों देश बड़े समृद्धिशाली होंगे।'
'बुद्धिमान् इन्द्र के द्वारा की गयी उस देश की वह पूजा देखकर देवताओं ने पाकशासन को बारम्बार साधुवाद दिया। शत्रुदमन! मलद और करूष - ये दोनों जनपद दीर्घकाल तक समृद्धिशाली, धन-धान्य से सम्पन्न तथा सुखी रहे हैं। कुछ काल के अनन्तर यहाँ इच्छानुसार रूप धारण करने वाली एक यक्षिणी आयी, जो अपने शरीर में एक हजार हाथियों का बल धारण करती है। उसका नाम तारका है। वह बुद्धिमान् सुन्द नामक दैत्य की पत्नी है।'
श्रीराम ! तुम्हारा कल्याण हो। मारीच नामक राक्षस, जो इन्द्र के समान पराक्रमी है, उस तारका का ही पुत्र है। उसकी भुजाएँ गोल, मस्तक बहुत बड़ा, मुँह फैला हुआ और शरीर विशाल है। वह भयानक आकार वाला राक्षस यहाँ की प्रजा को सदा ही त्रास पहुँचाता रहता है। रघुनन्दन ! वह दुराचारिणी तारका भी सदा मलद और करूष – इन दोनों जनपदों का विनाश करती रहती है।
'वह यक्षिणी डेढ़ योजन (छ: कोस) तक के मार्ग को घेरकर इस वन में रहती है; अतः हमलोगों को जिस ओर तारका वन है, उधर ही चलना चाहिये। तुम अपने बाहुबल का सहारा लेकर इस दुराचारिणी को मार डालो। मेरी आज्ञा से इस देश को पुनः निष्कण्टक बना दो। यह देश ऐसा रमणीय है तो भी इस समय कोई यहाँ आ नहीं सकता है। राम ! उस असह्य एवं भयानक यक्षिणी ने इस देश को उजाड़ कर डाला है। यह वन ऐसा भयङ्कर क्यों है, सारा रहस्य मैंने तुम्हें बता दिया। उस यक्षिणी ने ही इस सारे देश को उजाड़ दिया है और वह आज भी अपने उस क्रूर कर्म से निवृत्त नहीं हुई है।'
तत्पश्चात श्रीराम ने विश्वामित्रजी से कहा - गुरुदेव! मेरे साथ-साथ लक्ष्मण को भी यह जानने की जिज्ञासा है कि इस वन को समृद्धशाली बनाने वाले इंद्र को किस प्रकार ब्रह्महत्या का दोष लगा?
तब विश्वामित्र ने प्रसन्नचित हो कहा - राम ! इन्द्र को त्रिलोकी का ऐश्वर्य पाकर घमण्ड हो गया था। इस घमण्ड के कारण वे धर्म मर्यादा का, सदाचार का उल्लंघन करने लगे थे। एक दिन की बात है, वे भरी सभा में अपनी पत्नी शची के साथ ऊँचे सिंहासन पर बैठे हुए थे, उनचास मरुद्गण, आठ वसु, ग्यारह रुद्र, आदित्य, ऋभुगण, विश्वदेव, साध्यगण और दोनों अश्विनीकुमार उनकी सेवा में उपस्थित थे। सिद्ध, चारण, गन्धर्व, ब्रह्मवादी मुनिगण, विद्याधर, अप्सराएँ, किन्नर, पक्षी और नाग उनकी सेवा और स्तुति कर रहे थे।
'सब ओर ललित स्वर से देवराज इन्द्र की कीर्ति का गान हो रहा था। ऊपर की ओर चन्द्रमण्डल के समान सुन्दर श्वेत छत्र शोभायमान था। चँवर, पंखे आदि महाराजोचित सामग्रियाँ यथा स्थान सुसज्जित थीं। इस दिव्य समान में देवराज इन्द्र बड़े ही सुशोभित हो रहे थे। इसी समय देवराज इन्द्र और समस्त देवताओं के परम आचार्य बृहस्पति जी वहाँ आये। उन्हें सुर-असुर सभी नमस्कार करते हैं। इन्द्र ने देख लिया कि वे सभा में आये हैं, परन्तु वे न तो खड़े हुए और न आसन आदि देकर गुरु का सत्कार ही किया। यहाँ तक कि वे अपने आसन से हिले-डुले तक नहीं। त्रिकालदर्शी समर्थ बृहस्पति जी ने देखा कि यह ऐश्वर्यमद का दोष हैं। बस, वे झटपट वहाँ से निकलकर चुपचाप अपने घर चले आये।'
उसी समय देवराज इन्द्र को चेत हुआ। वे समझ गये कि मैंने अपने गुरुदेव की अवहेलना की है। वे भरी सभा में स्वयं ही अपनी निन्दा करने लगे- हाय-हाय! बड़े खेद की बात है कि भरी सभा में मुर्खतावश मैंने ऐश्वर्य के नशे में चूर होकर अपने गुरुदेव का तिरस्कार कर दिया। सचमुच मेरा यह कर्म अत्यन्त निन्दनीय है। भला, कौन विवेकी पुरुष इस स्वर्ग की राजलक्ष्मी को पाने की इच्छा करेगा?
'देखो तो सही, आज इसी ने मुझ देवराज को भी असुरों के-से रजोगुणी भाव से भर दिया। जो लोग यह कहते हैं कि सार्वभौम राजसिंहासन पर बैठा हुआ सम्राट् किसी के आने पर राजसिंहासन से न उठे, वे धर्म का वास्तविक स्वरूप नहीं जानते। ऐसा उपदेश करने वाले कुमार्ग की ओर ले जाने वाले हैं। वे स्वयं घोर नरक में गिरते हैं। उनकी बात पर जो लोग विश्वास करते हैं, वे पत्थर की नाव की तरह डूब जाते हैं। मेरे गुरुदेव बृहस्पतिजी ज्ञान के अथाह समुद्र हैं। मैंने बड़ी शठता की। अब मैं उनके चरणों में अपना माथा टेककर उन्हें मनाऊँगा।'
नृपश्रेष्ठ! राम ! देवराज इन्द्र इस प्रकार सोच ही रहे थे कि भगवान् बृहस्पतिजी अपने घर से निकलकर योगबल से अन्तर्धान हो गये। देवराज इन्द्र ने अपने गुरुदेव को बहुत ढूँढ़ा-ढूँढ़वाया; परन्तु उनका कहीं पता न चला। तब वे गुरु के बिना अपने को सुरक्षित न समझकर देवताओं के साथ अपनी बुद्धि के अनुसार स्वर्ग की रक्षा का उपाय सोचने लगे, परन्तु वे कुछ भी सोच न सके। उनका चित्त अशान्त ही बना रहा।
इति श्रीमद् राम कथा बालकाण्ड अध्याय-५ का भाग-१६(16) समाप्त !
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