भाग-१५(15) भगवान शिव द्वारा शंखचूड़ का वध तथा तुलसी द्वारा विष्णुजी को पाषाण बनने का शाप

 


सूतजी बोले - हे ऋषिगणों ! शंखचूड़ की माया को नष्ट करने के पश्चात क्रोधित महादेव जी ने दैत्येंद्र का वध करने के लिए अपने हाथ में त्रिशूल उठा लिया। जैसे ही वे त्रिशूल का प्रहार करने आगे बढ़े, तभी उन्हें एक आकाशवाणी सुनाई दी जो कि सिर्फ शिवजी के लिए ही थी।' 

आकाशवाणी बोली - हे कल्याणकारी शिव! आप तो सर्वेश्वर हैं। इस जगत के स्वामी हैं। आपकी आज्ञा के बिना तो इस जगत में कुछ हो ही नहीं सकता। भगवन्! आप इस तुच्छ राक्षस का वध करने के लिए त्रिशूल का प्रयोग क्यों कर रहे हैं? इसे मारना आपके लिए बहुत ही आसान है। भगवन्! आप तो सब वेदों के परम ज्ञाता हैं तथा सबकुछ जानते हैं। जब तक शंखचूड़ के पास भगवान विष्णु का कवच और पतिव्रता स्त्री है, तब तक शास्त्रानुसार यह अवध्य है।

'आकाशवाणी सुनते ही भगवान शिव ने अपने त्रिशूल को तुरंत ही रोक दिया और मन में श्रीहरि विष्णु का स्मरण किया। श्रीहरि अगले ही क्षण हाथ जोड़े उनके सामने उपस्थित हो गए। तब शिवजी ने विष्णुजी को इस संकट को दूर करने का आदेश दिया। भगवान विष्णु ने तुरंत एक ब्राह्मण का वेश धारण किया और भिक्षा मांगने के लिए दैत्यराज शंखचूड़ के पास पहुंच गए। वहां पहुंचकर विष्णुजी ने भिक्षा मांगी।' 

तब शंखचूड़ ने पूछा - हे ब्राह्मण देव! आपको क्या चाहिए? मैं अवश्य ही दूंगा। परंतु पहले यह बताइए तो सही कि आप क्या चाहते हैं? तब ब्राह्मण का रूप धारण किए हुए विष्णुजी बोले कि पहले प्रतिज्ञा करो कि मैं जो मांगूंगा, तुम मुझे दोगे। इस प्रकार जब शंखचूड़ ने ब्राह्मण को उसकी इच्छित वस्तु देने का वचन दे दिया, तब विष्णुजी ने उससे उसका कवच मांग लिया। कवच लेने के पश्चात वे ब्राह्मण के रूप में ही दैत्यराज की पत्नी देवी तुलसी के पास गए। मायावी विष्णुजी देवताओं के कार्य को पूरा करने के लिए देवी तुलसी के साथ भक्तिपर्वक विहार करने लगे।

'दूसरी ओर, जब भगवान शिव को अपनी दिव्य अलौकिक शक्ति द्वारा इस बात का ज्ञान हुआ कि शंखचूड़ की रक्षा करने वाला कवच और उसकी पतिव्रता स्त्री की शक्ति, अब उसके साथ नहीं रही, तो तुरंत ही उन्होंने अपना विजय नामक त्रिशूल उठा लिया और पूरी शक्ति से उस त्रिशूल का प्रहार दैत्यराज पर किया। उस दिव्य त्रिशूल के प्रहार से पल भर में ही शंखचूड़ के प्राण पखेरू उड़ गए।'

'दैत्यराज शंखचूड़ के मरते ही आकाश में दुंदुभियां बजने लगीं। चारों दिशाओं में मंगल गान होने लगा और भगवान शिव पर आकाश से फूलों की वर्षा होने लगी। वहां उपस्थित सभी देवता भगवान शिव की स्तुति करने लगे और उनको धन्यवाद कहने लगे असुरराज शंखचूड़ भी भगवान शिव के हाथों मृत्यु को प्राप्त होकर अपने शाप से मुक्त हो गया। उसकी हड्डियों से एक विशेष शंख की जाति बनी। उस शंख में रखा गया जल अत्यंत शुद्ध माना जाता है और उसका प्रयोग देवताओं पर जल चढ़ाने के लिए तथा घरों को शुद्ध करने के लिए किया जाता है। वह जल देवी लक्ष्मी और श्रीहरि विष्णु को बहुत प्रिय है परंतु इस जल को भगवान शिव की पूजा में प्रयोग नहीं किया जाता।'

'इस प्रकार दैत्यराज शंखचूड़ के वध के पश्चात कल्याणकारी भगवान शिव प्रसन्नतापूर्वक नंदीश्वर पर आरूढ़ होकर देवी भद्रकाली, कुमार कार्तिकेय और गणेश सहित अपने अनेकों गणों को साथ लेकर पुनः अपने निवास कैलाश पर्वत की ओर चल दिए। तत्पश्चात अन्य देवता भी प्रसन्न हृदय से अपने लोकों को चले गए।'

ऋषियों ने पूछा - हे सूतजी ! भगवान विष्णु ने पतिव्रता तुलसी को किस प्रकार अपने अधीन कर लिया? किस प्रकार पतिव्रता धर्म का पालन करने वाली देवी तुलसी एकाएक धर्म से विमुख होकर अधर्म का आचरण करने लगीं? कृपा कर इस कथा को हमें बताइए।

ऋषियों के प्रश्न को सुनकर सूतजी बोले - हे मुनियों ! देवताओं के हित का सदा ध्यान रखने वाले भगवान विष्णु ने अपने आराध्य भगवान शिव की आज्ञा पाकर उनके द्वारा बताए गए कार्यों को पूर्ण करना अपना ध्येय माना। तब तुरंत वे ब्राह्मण का वेश धरकर शंखचूड़ से उसका कवच ले आए। तत्पश्चात वे अतिशीघ्र दैत्यराज शंखचूड़ के नगर की ओर चल दिए। भगवान विष्णु ने दैत्येंद्र के नगर के समीप पहुंचने से पहले ही अपना रूप बदल लिया। उन्होंने शंखचूड़ का रूप धारण कर लिया। फिर वे देवी तुलसी के पास पहुंचे। अपने पति शंखचूड़ को सामने पाकर देवी तुलसी फूली नहीं समाई। वह उनके गले से लग गई। उसकी आंखों से अश्रुधारा बही जा रही थी। उसने अपने स्वामी को सिंहासन पर बैठाकर उनके चरणों को धोया और युद्ध का समाचार पूछा।

शंखचूड़ का रूप धारण किए हुए भगवान विष्णु बोले - हे प्रिये ! युद्ध के मध्य में ही ब्रह्माजी ने मेरे और भगवान शिव के बीच संधि करा दी। इसलिए मैं वापस आ गया हूं। भगवान शिव भी वापस कैलाश पर्वत पर चले गए हैं। यह कहकर उन्होंने देवी तुलसी की जिज्ञासा को शांत कर दिया। तत्पश्चात शंखचूड़ भगवान विष्णु तुलसी के साथ आनंदपूर्वक रमण करने लगे परंतु झूठ की हांडी रोज नहीं चढ़ती। एक दिन देवी तुलसी को ज्ञात हुआ कि उसके साथ रमण करने वाला पुरुष उसका पति शंखचूड़ नहीं बल्कि कोई और है।

यह पता चलते ही देवी तुलसी आत्मग्लानि से भर उठी। उन्हें स्वयं से घृणा होने लगी। वह क्रोध से वेश बदले श्रीविष्णु पर फट पड़ीं। उन्होंने श्रीविष्णु से पूछा - तू कौन है? मुझे सत्य बता। क्यों तूने मुझ जैसी पतिव्रता स्त्री का पतिव्रत धर्म नष्ट कर दिया? मैं तुझे नहीं छोडूंगी। ये वचन सुनकर विष्णु भगवान ने भयभीत होकर अपने स्थान पर अपनी एक मूर्ति बना दी ताकि देवी तुलसी उनके विषय में कुछ न जान पाएं परंतु तुलसी ने उनके पद चिन्हों से विष्णुजी को पहचान लिया। 

तब क्रोध में उसने भगवान विष्णु को शाप देते हुए कहा - हे विष्णो! लोग तुम्हें भगवान मानकर तुम्हारी पूजा करते हैं पर वास्तव में तुम पूजा के योग्य नहीं हो। तुम तो सिर्फ पत्थर हो। तुम्हारे मन में दयाभाव नाम की कोई वस्तु नहीं है। तुमने मेरे सतीत्व को भंग किया है और मेरे पति शंखचूड़ को मार डाला है। इसलिए मैं तुम्हें शाप देती हूं कि तुम आज, अभी से पत्थर के हो जाओगे। यह कहकर देवी तुलसी अत्यंत दुखी मन से रोने लगीं।

देवी तुलसी का दिया शाप सुनकर भगवान विष्णु भी दुखी हुए और भगवान शिव का स्मरण करने लगे। विष्णुजी की पुकार सुनकर भक्तवत्सल भगवान शिव वहां प्रकट हो गए। उन्हें देखकर देवी तुलसी और विष्णुजी ने हाथ जोड़कर प्रणाम किया। 

तब वे देवी तुलसी को समझाने लगे। उन्होंने तुलसी को समझाया - देवी तुलसी यह तो पूर्व निश्चित था। शंखचूड़ को मिले शाप के फलस्वरूप उसका जन्म दानव कुल में हुआ और इसी कारण उसे मेरे हाथों मृत्यु प्राप्त हुई है। देवी तुम्हारी मनोस्थिति मैं समझ सकता हूं परंतु यह संसार नश्वर है। अतः तुम अपने द्वारा की गई तपस्या का फल लो और इस शरीर को त्याग दो। मेरे आशीर्वाद के फलस्वरूप तुम्हें दिव्य देह की प्राप्ति होगी। तुम्हारी श्रीहरि में विशेष प्रीति होगी। इस शरीर को त्यागने के पश्चात जब तुम नया शरीर धारण करोगी तो तुम गण्डकी नाम की नदी होगी और सभी के द्वारा पूजित होने के कारण प्रधान रूपा तुलसी के नाम से विख्यात होगी। चाहे स्वर्ग हो या पाताल या फिर पृथ्वी तुम वनस्पतियों में श्रेष्ठ होगी तथा श्रीहरि की विशेष कृपा सदा तुम पर रहेगी। तुमने जो श्रीहरि को शाप दिया है, वह भी अवश्य पूरा होगा। गण्डकी के तट पर सदा भगवान विष्णु भी पाषाण के रूप में स्थित होंगे। तेज दांतों वाले अनेक कीड़े उस शिला को छेद-छेदकर उसमें चक्र बना देंगे। उस शिला को इस जगत में शालिग्राम के नाम से प्रसिद्धि मिलेगी। यह कहकर भगवान शिव अंतर्धान हो गए।

'तत्पश्चात देवी तुलसी ने अपना शरीर त्याग दिया और गण्डकी नदी बन गईं। तब श्रीविष्णु ने भी उस नदी के तट पर पाषाण के रूप में निवास किया।'

'हे ऋषिगणों ! इस प्रकार मैंने जलंधर तथा देवी वृंदा और वृंदा से तुलसी बनी यम कन्या का चरित्र आपको सुनाया। जैसा की मैंने पूर्व में कहा यहीं जलंधर अपने अगले जन्म में रावण बनकर जन्म लेता है। तब इसके द्वारा लक्ष्मी स्वरूपा देवी सीता का हरण होता है। वृंदा के शाप के फलस्वरूप श्रीविष्णु अपने पूर्ण मानव अवतार श्रीराम के रूप में स्त्री विरह की पीड़ा सहते हैं।'

इति श्रीमद् राम कथा रावण चरित्र अध्याय-३ का भाग-१५(15) समाप्त !

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