सूतजी बोले – हे ऋषियों ! देवी भद्रकाली ने युद्धभूमि में जाकर भयंकर सिंहनाद किया, जिससे डरकर अनेकों दानव मूर्च्छित होकर धरती पर गिर पड़े। भद्रकाली ने अपने तेज और नुकीले दांतों से दानवों का रक्त चूसना शुरू कर दिया। यह देखकर युद्धरत दानव भय से आतंकित हो उठे। वे डरकर इधर-उधर भागने लगे। यह देखकर दानवराज शंखचूड़ दौड़कर देवी भद्रकाली से युद्ध करने के लिए आगे आया।
'शंखचूड़ को सामने खड़ा देखकर भद्रकाली ने प्रलय अग्नि के समान भयंकर बाणों की वर्षा करनी शुरू कर दी परंतु शंखचूड़ ने वैष्णव नामक अस्त्र से उस वर्षा को शांत कर दिया। देवी भद्रकाली ने उसके उत्तर में नारायण अस्त्र चलाया परंतु शंखचूड़ हाथ जोड़कर उस अस्त्र को प्रणाम करने लगा, जिससे वह नारायण अस्त्र वहीं पर शांत हो गया। दैत्यराज शंखचूड़ अपने भयानक बाणों से देवी पर प्रहार करता और देवी उन असंख्य बाणों को अपनी विकराल दाढ़ों से चबा जातीं। इस प्रकार देवी और शंखचूड़ में भयानक संग्राम होने लगा। तभी क्रोधित भद्रकाली ने पाशुपात नामक ब्रह्मास्त्र उठा लिया परंतु तभी आकाशवाणी हुई कि अभी दैत्येंद्र की मृत्यु का समय नहीं आया है और इसकी मृत्यु आपके हाथों से नहीं लिखी है।'
'तब देवी ने पाशुपात अस्त्र को वापस कर दिया और उसे काटने के लिए दौड़ीं। यह देखकर असुरराज ने रौद्रास्त्र चलाकर उनकी गति को कम किया। तब भद्रकाली ने असुरराज द्वारा प्रयोग की गई सारी शक्तियों को तहस-नहस कर दिया और आगे बढ़कर शंखचूड़ की छाती पर अपने मुक्के का जोरदार प्रहार किया। इस प्रहार से शंखचूड़ मूर्छित होकर धरती पर गिर पड़ा। लेकिन कुछ ही देर पश्चात पुनः उठकर वह भद्रकाली देवी से युद्ध करने लगा।'
'तब देवी ने उसे कसकर पकड़ लिया और चारों ओर घुमाकर धरती पर फेंक दिया। शंखचूड़ कुछ समय तक ऐसे ही पड़ा रहा। तब देवी ने अन्य दानवों का वध करना शुरू कर दिया। शंखचूड़ चुपचाप उठा और जाकर अपने रथ पर धीरे से बैठ गया।
ऋषियों ने पूछा - हे सूतजी ! जब देवी भद्रकाली द्वारा युद्ध में घायल होकर शंखचूड़ पुनः अपने रथ पर जाकर बैठ गया, तब क्या हुआ? भगवान शिव ने, जो उस युद्ध में असुरराज शंखचूड़ का वध करने के लिए ही आए थे, क्या किया? कृपा कर इस कथा को सविस्तार सुनाइए ।
ऋषियों की इस जिज्ञासा को शांत करते हुए सूतजी ने कहना आरंभ किया। सूतजी बोले – हे ऋषियों! जब देवी भद्रकाली ने असुरराज शंखचूड़ को उठाकर बलपूर्वक जमीन पर पटक दिया तो कुछ समय तक शंखचूड़ इस प्रकार से धरती पर पड़ा रहा मानो मूर्च्छित हो गया हो। तब देवी जाकर दानवों पर प्रलय की भांति टूट पड़ीं। दूसरी ओर कुछ देवताओं ने भगवान शिव के पास जाकर उन्हें भद्रकाली और शंखचूड़ के इस भयानक युद्ध के बारे में बताया। ये सारी बातें सुनकर त्रिलोकीनाथ भगवान शिव स्वयं युद्ध करने के लिए आगे बढ़े।
'जब कल्याणकारी सर्वेश्वर देवाधिदेव भगवान शिव अपने वाहन नंदीश्वर पर चढ़कर आरूढ़ होकर युद्ध स्थल में पधारे तो उन्हें देखकर असुरराज शंखचूड़ ने उनका अभिवादन किया। तत्पश्चात शंखचूड़ अपने विमान पर चढ़ गया और भगवान शिव से युद्ध करने की तैयारी करने लगा। उसने अपना रक्षा कवच पहना और युद्ध करने के लिए अपने हाथ में धनुष-बाण उठा लिया। वह पूरे उत्साह के साथ भगवान शिव पर दिव्यास्त्रों का प्रहार कर रहा था।'
'इस प्रकार त्रिलोकीनाथ भगवान शिव और असुरराज शंखचूड़ का भयानक युद्ध सौ वर्षों तक निरंतर चलता रहा। महावीर और पराक्रमी शंखचूड़ ने अनेक शक्तिशाली बाणों और असंख्य मायावी अस्त्र-शस्त्रों का प्रयोग शिवजी पर किया परंतु परमेश्वर शिव ने उन सबको पल भर में काट दिया। भगवान शिव ने क्रोधित होकर उस पर पुनः प्रहार किया। यह देखकर शंखचूड़ ने चतुराई से काम लेते हुए मन में सोचा कि यदि मैं भगवान शिव के वाहन को ही नुकसान पहुंचा दूं तो वे पल भर में ही जमीन पर आ गिरेंगे और इस प्रकार मैं उन पर झपटकर उन्हें अपने वश में कर लूंगा। यह विचार मन में आते ही शंखचूड़ ने शिवजी के वाहन नंदीश्वर के सिर पर तलवार से वार किया परंतु देवाधिदेव ने क्षणमात्र में ही उस तलवार के दो टुकड़े कर दिए।'
'अपने प्रिय नंदीश्वर को युद्ध में निशाना बनता देखकर उनके धैर्य का बांध टूट गया और उन्होंने अपने तेज बाणों से दैत्यराज की ढाल को भी काट दिया। जब तलवार और ढाल दोनों ही खराब हो गईं, तब शंखचूड़ ने अपनी गदा से युद्ध लड़ना आरंभ कर दिया परंतु गदा का भी हाल वही हुआ जो तलवार और ढाल का हुआ था। तभी देवी भद्रकाली वहां पहुंचकर राक्षसों को मारने-काटने लगीं। देखते ही देखते उन्होंने अनेकों वीर दैत्यों का संहार कर दिया।'
'कई का रक्त चूस लिया और बहुतों को अपने मुख में डालकर जिंदा ही निगल लिया। अपनी विशाल दैत्य सेना का इस प्रकार सर्वनाश होता देखकर शंखचूड़ को अत्यधिक पीड़ा हुई। उसका दर्द तब और भी बढ़ गया जब उसने अपने साहसी वीर राक्षसों को प्राण बचाने के लिए जहां-तहां भागते हुए देखा।'
'अपनी विशाल सेना का इस प्रकार संहार होता देखकर असुरराज शंखचूड़ अत्यंत क्रोधित होकर निरंतर उन पर अस्त्रों का प्रहार करने लगा। तत्पश्चात उसने अपनी माया का प्रयोग करते हुए सभी देवताओं सहित देवाधिदेव महादेव को भयभीत करने का प्रयास किया परंतु इस जगत के स्वामी को इस प्रकार भला कोई भयभीत कर सकता है क्या? देवाधिदेव महादेव जी उसकी माया से तनिक भी भयभीत नहीं हुए और उन्होंने शंखचूड़ पर अनेक दिव्य शक्तियों से प्रहार किया। जिनके फलस्वरूप शंखचूड़ की माया पल भर में ही विलुप्त हो गई।'
इति श्रीमद् राम कथा रावण चरित्र अध्याय-३ का भाग-१४(14) समाप्त !
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