भाग-१३(13) राजा के दरबार में विश्वामित्र का आगमन तथा उनका सत्कार


एक दिन धर्मात्मा राजा दशरथ पुरोहित तथा बन्धु बान्धवों के साथ बैठकर पुत्रों के विवाह के विषय में विचार कर रहे थे। मन्त्रियों के बीच में विचार करते हुए उन महामना नरेश के यहाँ महातेजस्वी महामुनि विश्वामित्र पधारे। वे राजा से मिलना चाहते थे। उन्होंने द्वारपालों से कहा – तुमलोग शीघ्र जाकर महाराज को यह सूचना दो कि कुशिकवंशी गाधिपुत्र विश्वामित्र आये हैं। उनकी यह बात सुनकर वे द्वारपाल दौड़े हुए राजा के दरबार में गये। वे सब विश्वामित्र के उस वाक्य से प्रेरित होकर मन-ही-मन घबराये हुए थे। 

राजा के दरबार में पहुँचकर उन्होंने इक्ष्वाकुकुलनन्दन अवधनरेश से कहा - महाराज ! महर्षि विश्वामित्र पधारे हैं। उनकी वह बात सुनकर राजा सावधान हो गये। उन्होंने पुरोहित को साथ लेकर बड़े हर्ष के साथ उनकी अगवानी की, मानो देवराज इन्द्र ब्रह्माजी का स्वागत कर रहे हों। 

विश्वामित्रजी कठोर व्रत का पालन करनेवाले तपस्वी थे। वे अपने तेज से प्रज्वलित हो रहे थे। उनका दर्शन करके राजा का मुख प्रसन्नता से खिल उठा और उन्होंने महर्षि को अर्घ्य निवेदन किया। राजा का वह अर्घ्य शास्त्रीय विधि के अनुसार स्वीकार करके महर्षि ने उनसे कुशल - मंगल पूछा। 

धर्मात्मा विश्वामित्र ने क्रमशः राजा के नगर, खजाना, राज्य, बन्धु बान्धव तथा मित्रवर्ग आदि के विषय में कुशलप्रश्न किया - राजन्! आपके राज्य की सीमा के निकट रहने वाले शत्रु राजा आपके समक्ष नतमस्तक तो हैं ? आपने उनपर विजय तो प्राप्त की है न ? आपके यज्ञमान आदि देवकर्म और अतिथि सत्कार आदि मनुष्य कर्म तो अच्छी तरह सम्पन्न होते हैं न ?

इसके बाद महाभाग मुनिवर विश्वामित्र ने वसिष्ठजी तथा अन्यान्य ऋषियों से मिलकर उन सबका यथावत् कुशल-समाचार पूछा। फिर वे सब लोग प्रसन्नचित्त होकर राजा के दरबार में गये और उनके द्वारा पूजित हो यथायोग्य आसनों पर बैठे। 

तदनन्तर प्रसन्नचित्त परम उदार राजा दशरथ ने पुलकित होकर महामुनि विश्वामित्र की प्रशंसा करते हुए कहा – महामुने! जैसे किसी मरणधर्मा मनुष्य को अमृत की प्राप्ति हो जाये, निर्जल प्रदेश में पानी बरस जाये, किसी संतानहीन को अपने अनुरूप पत्नी के गर्भ से पुत्र प्राप्त हो जाये, खोयी हुई निधि मिल जाये तथा किसी महान् उत्सव से हर्ष का उदय हो, उसी प्रकार आपका यहाँ शुभागमन हुआ है। ऐसा मैं मानता हूँ। आपका स्वागत है। आपके मन में कौन-सी उत्तम कामना है, जिसको मैं हर्ष के साथ पूर्ण करूँ ? 

‘ब्रह्मन्! आप मुझसे सब प्रकार की सेवा लेने योग्य उत्तम पात्र हैं। मानद ! मेरा अहोभाग्य है, जो आपने यहाँ तक पधारने का कष्ट उठाया। आज मेरा जन्म सफल और जीवन धन्य हो गया। मेरी बीती हुई रात सुन्दर प्रभात दे गयी, जिससे मैंने आज आप ब्राह्मणशिरोमणि का दर्शन किया। पूर्वकाल में आप राजर्षि शब्द से उपलक्षित होते थे, फिर तपस्या से अपनी अद्भुत प्रभा को प्रकाशित करके आपने ब्रह्मर्षि का पद पाया; अत: आप राजर्षि और ब्रह्मर्षि दोनों ही रूपों में मेरे पूजनीय हैं। आपका जो यहाँ मेरे समक्ष शुभागमन हुआ है, यह परम पवित्र और अद्भुत है।' 

'प्रभो! आपके दर्शन से आज मेरा घर तीर्थ हो गया। मैं अपने-आपको पुण्यक्षेत्रों की यात्रा करके आया हुआ मानता हूँ। बताइये, आप क्या चाहते हैं? आपके शुभागमन का शुभ उद्देश्य क्या है? उत्तम व्रत का पालन करनेवाले महर्षे! मैं चाहता हूँ कि आपकी कृपा से अनुगृहीत होकर आपके अभीष्ट मनोरथ को जान लूँ और अपने अभ्युदय के लिये उसकी पूर्ति करूँ। 'कार्य सिद्ध होगा या नहीं' ऐसे संशय को अपने मन में स्थान न दीजिये। आप जो भी आज्ञा देंगे, मैं उसका पूर्णरूप से पालन करूँगा; क्योंकि सम्माननीय अतिथि होने के नाते आप मुझ गृहस्थ के लिये देवता हैं। ब्रह्मन् ! आज आपके आगमन से मुझे सम्पूर्ण धर्मों का उत्तम फल प्राप्त हो गया। यह मेरे महान् अभ्युदय का अवसर आया है।' 

मनस्वी नरेश के कहे हुए ये विनययुक्त वचन, जो हृदय और कानों को सुख देनेवाले थे, सुनकर विख्यात गुण और यश वाले, शम-दम आदि सद्गुणों से सम्पन्न महर्षि विश्वामित्र बहुत प्रसन्न हुए। 

नृपश्रेष्ठ महाराज दशरथ का यह अद्भुत विस्तार से युक्त वचन सुनकर महातेजस्वी विश्वामित्र पुलकित हो उठे और इस प्रकार बोले - राजसिंह! ये बातें आपके ही योग्य हैं। इस पृथ्वी पर दूसरे के मुख से ऐसे उदार वचन निकलने की सम्भावना नहीं है। क्यों न हो, आप महान् कुल में उत्पन्न हैं और वसिष्ठ-जैसे ब्रह्मर्षि आपके उपदेशक हैं। अच्छा, अब जो बात मेरे हृदय में है, उसे सुनिये। नृपश्रेष्ठ ! सुनकर उस कार्य को अवश्य पूर्ण करने का निश्चय कीजिये। आपने मेरा कार्य सिद्ध करने की प्रतिज्ञा की है। इस प्रतिज्ञा को सत्य कर दिखाइये। 

‘पुरुषप्रवर! मैं सिद्धि के लिये एक नियम का अनुष्ठान करता हूँ। उसमें इच्छानुसार रूप धारण करने वाले दो राक्षस विघ्न डाल रहे हैं। मेरे इस नियम का अधिकांश कार्य पूर्ण हो चुका है। अब उसकी समाप्ति के समय वे दो राक्षस आ धमके हैं। उनके नाम हैं मारीच और सुबाहु। वे दोनों बलवान् और सुशिक्षित हैं। उन्होंने मेरी यज्ञवेदी पर रक्त और मांस की वर्षा कर दी है। इस प्रकार उस समाप्तप्राय नियम में विघ्न पड़ जाने के कारण मेरा परिश्रम व्यर्थ गया और मैं उत्साहहीन होकर उस स्थान से चला आया। 

'पृथ्वीनाथ! उनके ऊपर अपने क्रोध का प्रयोग करूँ - उन्हें शाप दे दूँ, ऐसा विचार मेरे मन में नहीं आता है। क्योंकि वह नियम ही ऐसा है, जिसको आरम्भ कर देने पर किसी को शाप नहीं दिया जाता; अतः नृपश्रेष्ठ! आप अपने काकपच्छधारी, सत्यपराक्रमी, शूरवीर ज्येष्ठ पुत्र श्रीराम को मुझे दे दें। ये मुझसे सुरक्षित रहकर अपने दिव्य तेज से उन विघ्नकारी राक्षसों का नाश करने में समर्थ हैं। मैं इन्हें अनेक प्रकार का श्रेय प्रदान करूंगा, इसमें संशय नहीं है।' 

'उस श्रेय को पाकर ये तीनों लोकों में विख्यात होंगे। श्रीराम के सामने आकर वे दोनों राक्षस किसी तरह ठहर नहीं सकते। इन रघुनन्दन के सिवा दूसरा कोई पुरुष उन राक्षसों को मारने का साहस नहीं कर सकता। नृपश्रेष्ठ! अपने बल का घमण्ड रखने वाले वे दोनों पापी निशाचर कालपाश के अधीन हो गये हैं; अत: महात्मा श्रीराम के सामने नहीं टिक सकते। भूपाल! आप पुत्रविषयक स्नेह को सामने न लाइये। मैं आपसे प्रतिज्ञापूर्वक कहता हूँ कि उन दोनों राक्षसों को इनके हाथ से मरा हुआ ही समझिये। 

‘सत्यपराक्रमी महात्मा श्रीराम क्या हैं - यह मैं जानता हूँ । महातेजस्वी वसिष्ठजी तथा ये अन्य तपस्वी भी जानते हैं। राजेन्द्र! यदि आप इस भूमण्डल में धर्म - लाभ और उत्तम यश को स्थिर रखना चाहते हों तो श्रीराम को मुझे दे दीजिये। ककुत्स्थनन्दन! यदि वसिष्ठ आदि आपके सभी मन्त्री आपको अनुमति दें तो आप श्रीराम को मेरे साथ विदा कर दीजिये।' 

'मुझे राम को ले जाना अभीष्ट है। ये भी बड़े होने के कारण अब आसक्तिरहित हो गये हैं; अतः आप यज्ञ के अवशिष्ट दस दिनों के लिये अपने पुत्र कमलनयन श्रीराम को मुझे दे दीजिये। रघुनन्दन! आप ऐसा कीजिये जिससे मेरे यज्ञ का समय व्यतीत न हो जाये। आपका कल्याण हो। आप अपने मन को शोक और चिन्ता में न डालिये।' 

यह धर्म और अर्थ से युक्त वचन कहकर धर्मात्मा, महातेजस्वी, परमबुद्धिमान् विश्वामित्रजी चुप हो गये। विश्वामित्र का यह शुभ वचन सुनकर महाराज दशरथ को पुत्र-वियोग की आशङ्का से महान् दुःख हुआ। वे उससे पीड़ित हो सहसा काँप उठे और मूर्च्छित हो गये। थोड़ी देर बाद जब उन्हें होश हुआ, तब वे भयभीत हो विषाद करने लगे। विश्वामित्र मुनि का वचन राजा के हृदय और मन को विदीर्ण करनेवाला था। उसे सुनकर उनके मन में बड़ी व्यथा हुई। वे महामनस्वी महाराज अपने आसन से विचलित हो मूर्च्छित हो गये। 

 इति श्रीमद् राम कथा बालकाण्ड अध्याय-५ का भाग-१३(13) समाप्त !

No comments:

Post a Comment

रामायण: एक परिचय

रामायण संस्कृत के रामायणम् का हिंदी रूपांतरण है जिसका शाब्दिक अर्थ है राम की जीवन यात्रा। रामायण और महाभारत दोनों सनातन संस्कृति के सबसे प्र...