भाग-१३(13) शंखचूड़ और शिव-सेना का प्रलयंकारी युद्ध

 


सूतजी बोले – हे ऋषिगणों ! जब इस प्रकार देवताओं की सेना लेकर भगवान शिव और राक्षसों की सेना के साथ असुरराज शंखचूड़ अपने-अपने निवासों को छोड़कर युद्ध करने के लिए यात्रा करते-करते रास्ते में रुक गए और दोनों सेनाएं कुछ ही दूर पर रुकी थीं, तब दैत्यराज शंखचूड़ ने अपने एक दूत को संदेश देकर भगवान शिव के पास भेजा।

दैत्यराज शंखचूड़ का वह दूत भगवान शिव के पास पहुंचा और बोला - हे शिव! मैं दैत्यराज शंखचूड़ का दूत हूं और उनका संदेश लेकर आपके पास आया हूं। मेरे स्वामी ने कहलवाया है कि वे यहां आ गए हैं। अब आपकी क्या इच्छा है? 

तब दैत्यराज के उस दूत से शिवजी बोले - दूत! तुम जाकर अपने स्वामी शंखचूड़ से कहो कि देवताओं के साथ शत्रुता छोड़कर उनसे मित्रता कर लो। उनका हड़पा हुआ राज्य उन्हें वापस कर दो और तुम सुखपूर्वक अपने राज्य पर शासन करो। दैत्यराज से कहना कि वे शुद्धकर्मी महर्षि कश्यप की संतान हैं। उन्हें ऐसा करना शोभा नहीं देता। इसलिए वे समय रहते मेरी समझाई हुई बात को समझ जाएं, अन्यथा इसके परिणाम दानवों के लिए बहुत घातक हो सकते हैं।

भगवान शिव के इस प्रकार के वचन सुनकर वह दूत पुनः बोला - हे देवाधिदेव! हालांकि आपकी बातों में कुछ सच्चाई है, परंतु क्या हमेशा हर बात में असुर ही गलत होते हैं, देवता हमेशा सही होते हैं? उनकी कभी कोई गलती नहीं होती। आपके अनुसार सारे दोष असुरों में हैं। जबकि वास्तविकता में ऐसा बिलकुल भी नहीं है। दोष केवल असुरों में ही नहीं, देवताओं में भी हैं। मैं उनका पक्ष लेने वाले आपसे पूछता हूं कि मधु और कैटभ नामक दैत्यों के सिरों को किसने काटा? त्रिपुरों को युद्ध करने के पश्चात क्यों भस्म कर दिया गया? आप सदा से ही देवताओं और दानवों में पक्षपात करते आए हैं। आप देवताओं का ही कल्याण करते हैं। जबकि ईश्वर होने के नाते आप देवताओं और असुरों दोनों के लिए ही आराध्य हैं। इसलिए आपको किसी एक के संबंध में नहीं, बल्कि दोनों के हितों को ध्यान में रखना चाहिए। 

शंखचूड़ के दूत के वचनों को सुनकर कल्याणकारी शिव बोले - दूत ! तुम्हारी यह बात पूर्णतः अनुचित है। मैं देवताओं और दानवों में कभी कोई भेद नहीं करता। मैं तो सदा से ही अपने भक्तों के अधीन हूं। मैं सदैव अपने भक्तों का कल्याण करता हूं और उनके अभीष्ट कार्यों की सिद्धि करता हूं। मुझे देवताओं पर आए संकट को दूर करना है, इसलिए मुझे असुरों से युद्ध करना ही होगा। तुम जाकर इस बात को असुरराज शंखचूड़ को बता दो। यह कहकर भगवान शिव चुप हो गए और वह दूत अपने स्वामी शंखचूड़ के पास चला गया।

ऋषियों ने पूछा - हे सूतजी! जब भगवान शिव का संदेश लेकर दैत्यराज शंखचूड़ का वह दूत वापस अपने स्वामी शंखचूड़ के पास चला गया, तब क्या हुआ? उस दूत ने शंखचूड़ से क्या कहा और उस दूत से सारी बातें जानने के पश्चात दैत्यराज शंखचूड़ ने क्या कहा? हे महर्षे! कृपा करके इस संबंध में हमें सविस्तार बताइए।

सूतजी बोले - हे महामुने! उस दूत ने अपने स्वामी शंखचूड़ के पास जाकर उसे भगवान शिव से हुई सारी बातें बता दीं। शिवजी की कही बातों को  सुनकर शंखचूड़ और अधिक क्रोधित हो उठा और उसने अपनी विशाल दैत्य सेना को तुरंत युद्ध के लिए चलने की आज्ञा प्रदान की। दूसरी ओर भगवान शिव ने भी अपने गणों और देवताओं को युद्ध भूमि की ओर प्रस्थान करने के लिए कहा। देवताओं और दानवों दोनों की सेनाएं पूरे जोश और साहस के साथ लड़ने हेतु तत्पर होकर आगे बढ़ने लगीं।

'दानवों की सेना में सबसे आगे शंखचूड़ था और दूसरी ओर देवसेना में त्रिलोकीनाथ भगवान शिव सबसे आगे चल रहे थे। दोनों सेनाएं अपने स्वामियों के जयघोष के साथ आगे बढ़ रही थीं। उस समय चारों ओर रणभेरियां बजने लगी थीं। कुछ ही समय पश्चात देवता और दैत्य आमने सामने थे। एक-दूसरे को अपना घोर शत्रु समझकर दोनों एक-दूसरे पर टूट पड़े। भयानक युद्ध होने लगा। हर ओर मार-काट, चीख-पुकार मची हुई थी। युद्ध का दृश्य अत्यंत हृदय विदारक था। भगवान श्रीहरि विष्णु के साथ दंभ, कलासुर के साथ कालका, गोकर्ण के साथ हुताशन तो कालंबिक के साथ वरुण देव का युद्ध होने लगा।'

'सब युद्ध करने में मग्न थे परंतु भगवान शिव तथा देवी भद्रकाली अभी तक ऐसे ही बैठे थे। उन्होंने युद्ध करना शुरू नहीं किया था। उधर, दैत्यराज शंखचूड़ भी युद्ध का दृश्य देख रहा था। उस समय युद्ध अपने चरम पर था। दोनों सेनाएं घमासान युद्ध कर रही थीं। सभी बड़ी वीरता से लड़ रहे थे और युद्ध में अनेक प्रकार के आयुधों का प्रयोग कर रहे थे। कुछ ही देर में पृथ्वी कटे-मरे और घायल योद्धाओं से पट गई।'

सूतजी बोले – इस प्रकार देवताओं और दानवों में बड़ा भयानक विनाशकारी युद्ध चल रहा था। धीरे-धीरे दानव देवताओं पर भारी पड़ने लगे। तब देवता अत्यंत भयभीत होकर अपनी रक्षा हेतु इधर-उधर भागने लगे। कुछ देवता भागकर देवाधिदेव भगवान शिव की शरण में आए। 

तब वे देवता बोले - प्रभु ! हमारी रक्षा करें। असुर सेना परास्त होने के बजाय हम पर हावी होती जा रही है। यदि शीघ्र ही कुछ नहीं किया गया, तो हम अवश्य हार जाएंगे।

'देवताओं के ये वचन सुनकर भगवान शिव को बहुत क्रोध आया। वह उठकर खड़े हो गए और स्वयं युद्ध करने के लिए आगे बढ़े। युद्ध स्थल में पहुंचते ही उन्होंने असुरों की अक्षौहिणी सेना का नाश कर दिया। देवी भद्रकाली भी अनेक दैत्यों को मार-मारकर उनका रक्त पीने लगी। इस प्रकार असुरों को युद्ध में कमजोर पड़ता देखकर देवताओं में एक नई जान आ गई। जो देवता इधर-उधर अपने प्राणों की रक्षा के लिए भाग गए थे, वे भी आकर पुनः युद्ध करने लगे।' 

'उधर, भद्रकाली देवी क्रोध से भरकर दैत्यों को पकड़-पकड़कर अपने मुख में डालने लगी। स्कंद ने अपने बाणों से करोड़ों दानवों को मौत के घाट उतार दिया। यह देखकर असुर सेना भयभीत होकर अपने प्राणों की रक्षा करने हेतु इधर-उधर भागने लगी असुर सेना को इस प्रकार तितर-बितर होता देखकर दानवराज शंखचूड़ क्रोधित होकर स्वयं युद्ध में कूद पड़ा।' 

'उसने अपने हाथों में धनुष बाण उठाया और भयानक बाणों की वर्षा करनी प्रारंभ कर दी। देखते ही देखते शंखचूड़ ने देवसेना के अनेकों सैनिकों का संहार कर दिया। यह देखकर स्कंद देव आगे बढ़े और शंखचूड़ को ललकारने लगे। शंखचूड़ ने क्रोधित होकर स्कंद पर पलटकर वार किया। उसने स्कंद का धनुष काट दिया और पूरी शक्ति से स्कंद की छाती पर प्रहार किया। फलस्वरूप स्कंद मूर्च्छित होकर जमीन पर गिर पड़े।'

'कुछ ही देर बाद स्कंद उठकर खड़े हो गए और उन्होंने अपने बाण से शंखचूड़ के रथ में छेद कर दिया। यही नहीं, स्कंद ने शंखचूड़ का कवच, किरीट आदि कुण्डल भी गिरा दिया। तत्पश्चात उसने एक भयानक विष बुझी शक्ति से शंखचूड़ पर प्रहार किया। इस प्रहार से शंखचूड़ मूर्च्छित होकर धरती पर गिर पड़ा और काफी समय तक ऐसे ही पड़ा रहा। कुछ समय पश्चात वह ठीक होकर पुनः युद्ध करने लगा। इस बार उसने भगवान शिव के पुत्र कार्तिकेय को अपना निशाना बनाया और उस पर भयानक शक्ति का प्रहार किया, जिससे कार्तिकेय मूर्छित होकर जमीन पर गिर पड़े।'

'तब कार्तिकेय को इस प्रकार धरती पर मूर्छित पड़ा हुआ देखकर देवी भद्रकाली उन्हें गोद में उठा लाईं। उनकी दशा देखकर शिवजी ने उन पर अपने कमण्डल का जल छड़का। जल छिड़कते ही कार्तिकेय फौरन उठ बैठे और पुनः युद्ध करने के लिए तैयार हो गए। भयंकर युद्ध चल रहा था। यह कह पाना कठिन था कि दोनों में से कौन अधिक वीर और बलशाली है। एक-दूसरे पर वे बड़े शक्तिशाली ढंग से प्रहार कर रहे थे। देवी भद्रकाली भी पुनः युद्ध में आकर दानवों का भक्षण करने लगीं।'

इति श्रीमद् राम कथा रावण चरित्र अध्याय-३ का भाग-१३(13) समाप्त !

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