ऋषियों ने कहा – हे सूतजी ! जब देवाधिदेव महादेव जी ने ब्रह्मा, विष्णु और देवराज इंद्र को शंखचूड़ के वध का आश्वासन दिया, तब सब देवता प्रसन्न होकर उनसे विदा लेकर अपने-अपने धाम को चले गए। तब आगे क्या हुआ? भगवान शिव ने क्या किया?
सूतजी बोले - हे मुनिजनों ! भगवान शिव के आश्वासन देने पर कि वे असुरराज शंखचूड़ का वध करेंगे, सभी देवता अपने-अपने स्थान को चले गए । तब भगवान शिव ने विचार किया कि क्या किया जाना चाहिए? तत्पश्चात उन्होंने गंधर्वराज चित्ररथ पुष्यदंत को स्मरण किया। स्मरण करते ही पुष्पदंत तुरंत वहां शिवजी के सामने उपस्थित हो गए। पुष्पदंत ने हाथ जोड़कर महादेव जी को प्रणाम किया और उनकी स्तुति की।
तत्पश्चात पुष्पदंत हाथ जोड़कर बोले - हे देवाधिदेव! कृपानिधान! करुणानिधान! मेरे लिए क्या आज्ञा है। मैं आपकी आज्ञा शिरोधार्य कर उसे यथाशीघ्र ही पूरा करूंगा । यह सुनकर भगवान शिव ने पुष्पदंत को अपना दूत बनाकर शंखचूड़ के पास भेजा। अपने आराध्य भगवान शिव की आज्ञा पाकर पुष्पदंत तुरंत ही वहां से असुरराज शंखचूड़ के नगर की ओर चल दिया।
पुष्पदंत शंखचूड़ के नगर पहुंचकर उनसे मिला और बोला - हे असुरराज! मैं त्रिलोकीनाथ भगवान शिव का दूत बनकर उनका संदेश लेकर आपके पास आया हूं। उन्होंने कहा है कि आप यथाशीघ्र देवताओं को उनका राज्य वापस सौंप दें अन्यथा भगवान शिव के साथ युद्ध करें। युद्ध में उनके हाथों आपका वध निश्चित है। मैंने भगवान शिव के सभी वचन आपसे कह दिए हैं। आप जो संदेश उन्हें देना चाहें, मुझे बता दें। मैं आपका संदेश भगवान शिव तक पहुंचा दूंगा।
पुष्पदंत नामक दूत की बातें सुनकर असुरराज शंखचूड़ बोला - हे मूर्ख दूत ! क्या तुम मुझे नीरा मूढ़ समझते हो? जाकर अपने स्वामी से कह दो कि मैं देवताओं को उनका राज्य वापस नहीं दूंगा। मैं वीर हूं, युद्ध से नहीं डरता। अब शिव और मेरा सामना युद्ध-भूमि में ही होगा।
असुरराज शंखचूड़ के ऐसे वचन सुनकर पुष्पदंत मन ही मन क्रोध की सारी सीमाएं पार कर गया। परंतु अपने स्वामी की आज्ञा के बिना वह कुछ नहीं करना चाहता था, इसलिए चुपचाप वापस शिवजी के पास लौट गया।
सूतजी बोले - हे ऋषियों ! जब भगवान शिव का पुष्पदंत नामक दूत शंखचूड़ की नगरी से वापस आया तो उसने कैलाश पर्वत पर पहुंचकर भगवान शिव को असुरराज शंखचूड़ द्वारा कही गई सभी बातें बता दीं। तब दूत के इन वचनों को सुनकर भगवान शिव को बहुत क्रोध आया। भगवान शिव ने अपने वीर साहसी गणों और अपने दोनों पुत्रों कार्तिकेय और गणेश को बुलाया। उन्होंने भद्रकाली सहित अपनी पूरी गण सेना को युद्ध के लिए तैयार होने की आज्ञा प्रदान की।
'भगवान शिव की आज्ञा के अनुसार उनके वीर गणों और पुत्रों ने युद्ध की सभी तैयारियां अतिशीघ्र पूरी कीं और आकर इस बात से भगवान शिव को अवगत कराया। तब त्रिलोकीनाथ भगवान शिव ने अपनी देव सेना और गणों के साथ दैत्यराज शंखचूड़ की नगरी की ओर प्रस्थान किया। पूरी शिवसेना प्रसन्न मन भगवान शिव की जय-जयकार करती हुई आगे बढ़ रही थी। उनके प्रिय पुत्र गणेश और कार्तिकेय सेना के अधिपति के रूप में अपनी सेना का नेतृत्व कर रहे थे। भगवान शिव की सेना में आठों भैरव, आठों वसु, एकादश रुद्र और द्वादश सूर्य भी सम्मिलित थे।'
'अग्नि, चंद्रमा, विश्वकर्मा, अश्विनी कुमार, कुबेर, यम, नैर्ऋति, नलकुबेर, वायु, वरुण, बुध और मांगलिक ग्रह-नक्षत्र भी भगवान शिव की सेना की शोभा बढ़ा रहे थे। उनकी सेना में देवी भद्रकाली, जिनकी सौ भुजाएं थीं, अपने पार्षदों के साथ युद्धभूमि की ओर प्रस्थान कर रही थीं। भद्रकाली देवी की जीभ एक योजन लंबी और चलायमान थी। उनके हाथों में शंख, चक्र, गदा, पद्म, खड्ग, चर्म, धनुष-बाण आदि अनेकों वस्तुएं थीं।'
'भद्रकाली देवी के एक हाथ में एक योजन का गोल खप्पर, एक में आकाश को स्पर्श करने वाला लंबा त्रिशूल तथा अनेक शक्तियां विद्यमान थीं। देवी भद्रकाली का अनुसरण करते हुए उनके साथ तीन करोड़ योगिनी, तीन करोड़ डाकिनियां भी थीं, जो अपनी सेना को साथ लेकर शंखचूड़ की असुर सेना को मजा चखाने के लिए पूरे जोरों-शोरों से चल रही थीं। इस प्रकार त्रिलोकीनाथ भगवान शिव की विशाल देव सेना, जिसमें हजारों वीर, बलशाली गण विद्यमान थे, पूरे मनोयोग के साथ युद्धस्थल की ओर बढ़ रही थी। तब भगवान शिव ने अपनी सेना को एक वट-वृक्ष के नीचे कुछ देर विश्राम करने के लिए कहा और स्वयं भी उसी वट-वृक्ष के नीचे आसन लगाकर बैठ गए।'
सूतजी बोले – हे ऋषिगणों ! उधर दूसरी ओर जब भगवान शिव का दूत पुष्पदंत असुरराज शंखचूड़ के पास से वापस लौट गया, तब असुरराज शंखचूड़ भी अपने मन में युद्ध करने का निश्चय करके अपनी प्रिय पत्नी देवी तुलसी के पास पहुंचा। वहां उसने तुलसी को बताया कि हे देवी, अब मुझे कल सुबह युद्ध के लिए प्रस्थान करना होगा। यह सुनकर देवी तुलसी रोने लगीं। शंखचूड़ ने उन्हें ढाढ़स बंधाया और कहा कि वीरों की पत्नियां रोकर नहीं, बल्कि हंसकर उन्हें विदा करती हैं ।
'यह सुनकर तुलसी ने अपनी आंखों के आंसू पोंछ लिए । प्रातःकाल जागकर असुरराज शंखचूड़ ने अपने राजदरबार का उत्तरदायित्व अपने पुत्र को सौंप दिया तथा देवी तुलसी से पुत्र की सहायता करने के लिए कहा। फिर दैत्यराज शंखचूड़ ने अपनी विशाल दैत्य सेना का युद्ध के लिए आह्वान किया। अपने स्वामी दैत्यराज शंखचूड़ के बुलाने पर विशाल दैत्य सेना पल भर में संगठित हो गई। उस असुर सेना में अनेक वीर और पराक्रमी योद्धा थे। वे युद्ध करने के लिए सुसज्जित होकर आए थे।'
'दैत्य सेना का मनोबल बहुत ऊंचा था। वे अत्यंत गर्वित थे और सोच रहे थे कि इस युद्ध में वे अवश्य ही जीतेंगे। मौर्य, कालिक और कालिकेय नामक तीन वीर असुर सेनापति के रूप में दैत्य सेना का प्रतिनिधित्व कर रहे थे। उस विशाल, तीन लाख अक्षौहिणी सेना को देखकर बड़े-बड़े वीर पल भर में भयभीत हो जाते थे। असुरराज शंखचूड़ अपनी विशाल दैत्य सेना को देखकर बहुत प्रसन्न हो रहा था।'
'तब युद्ध के लिए प्रस्थान करती हुई उस सेना का नेतृत्व स्वयं असुरराज शंखचूड़ ने आगे आकर किया। उनके पीछे वाले रथ में दैत्यों के गुरु शुक्राचार्य उनका मार्ग प्रशस्त कर रहे थे। इस प्रकार अपने स्वामी शंखचूड़ की जय-जयकार का उद्घोष करती हुई वह राक्षस सेना तीव्र गति से आगे बढ़ी चली जा रही थी । चलते-चलते काफी समय बीत गया। आखिर पुष्पभद्रा नामक नदी के किनारे एक अक्षय वट वृक्ष के नीचे दैत्य सेना ने अपना डेरा लगाया। वहीं से कुछ दूरी पर देव सेना ने भी अपना डेरा डाला हुआ था।'
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