तदनन्तर कैकेयी से सत्यपराक्रमी भरत का जन्म हुआ, जो साक्षात् भगवान् विष्णु के (स्वरूपभूत पायस- खीरके) चतुर्थांश से भी न्यून भाग से प्रकट हुए थे। ये समस्त सद्गुणों से सम्पन्न थे।
इसके बाद रानी सुमित्रा ने लक्ष्मण और शत्रुघ्न – इन दो पुत्रों को जन्म दिया। ये दोनों वीर साक्षात् भगवान् विष्णु के अर्धभाग से सम्पन्न और सब प्रकार के अस्त्रों की विद्या में कुशल थे।
भरत सदा प्रसन्नचित्त रहते थे। उनका जन्म पुष्य नक्षत्र तथा मीन लग्न में हुआ था। सुमित्रा के दोनों पुत्र आश्लेषा नक्षत्र और कर्कलग्न में उत्पन्न हुए थे। उस समय सूर्य अपने उच्च स्थान में विराजमान थे।
राजा दशरथ के ये चारों महामनस्वी पुत्र पृथक्-पृथक् गुणों से सम्पन्न और सुन्दर थे। ये भाद्रपदा नामक चार तारों के समान कान्तिमान् थे।
इनके जन्म के समय गन्धर्वों ने मधुर गीत गाये। अप्सराओं ने नृत्य किया। देवताओं की दुन्दुभियाँ बजने लगीं तथा आकाश से फूलों की वर्षा होने लगी।
अयोध्या में बहुत बड़ा उत्सव हुआ। मनुष्यों की भारी भीड़ एकत्र हुई। गलियाँ और सड़कें लोगों से खचाखच भरी थीं। बहुत-से नट और नर्तक वहाँ अपनी कलाएँ दिखा रहे थे। वहाँ सब ओर गाने-बजानेवाले तथा दूसरे लोगों के शब्द गूँज रहे थे। दीन-दु:खियों के लिये लुटाये गये सब प्रकार के रन्त वहाँ बिखरे पड़े थे।
राजा दशरथ ने सूत, मागध और वन्दीजनों को देने योग्य पुरस्कार दिये तथा ब्राह्मणों को धन एवं सहस्रों गोधन प्रदान किये। सूर्यदेव (भगवान श्री रामजी का) गुणगान करते हुए चले। यह महोत्सव देखकर देवता, मुनि और नाग अपने भाग्य की सराहना करते हुए अपने-अपने घर चले।
काकभुशुण्डि और भगवन शंकर दोनों वहाँ साथ-साथ थे, परन्तु मनुष्य रूप में होने के कारण उन्हें कोई जान न सका। परम आनंद और प्रेम के सुख में फूले हुए वे दोनों मगन मन से (मस्त हुए) गलियों में (तन-मन की सुधि) भूले हुए फिरते थे, परन्तु यह शुभ चरित्र वही जान सकता है, जिस पर श्री रामजी की कृपा हो।
उस अवसर पर जो जिस प्रकार आया और जिसके मन को जो अच्छा लगा, राजा ने उसे वही दिया। हाथी, रथ, घोड़े, सोना, गायें, हीरे और भाँति-भाँति के वस्त्र राजा ने दिए। राजा ने सबके मन को संतुष्ट किया। (इसी से) सब लोग जहाँ-तहाँ आशीर्वाद दे रहे थे कि सब पुत्र (चारों राजकुमार) चिरंजीवी (दीर्घायु) हों।
ग्यारह दिन बीतने पर महाराज ने बालकों का नामकरण संस्कार किया। उस समय महर्षि वशिष्ठ ने प्रसन्नता के साथ सबके नाम रखे। उन्होंने ज्येष्ठ पुत्रका नाम 'राम' रखा। श्रीराम महात्मा (परमात्मा) थे। जो आनंद के समुद्र और सुख की राशि हैं, जिस (आनंदसिंधु) के एक कण से तीनों लोक सुखी होते हैं, जो सुख का भवन और सम्पूर्ण लोकों को शांति देने वाला है।
कैकेयीकुमार जो संसार का भरण-पोषण करते हैं का नाम भरत तथा सुमित्रा के एक पुत्र जो शुभ लक्षणों के धाम, श्री रामजी के प्यारे और सारे जगत के आधार हैं का नाम लक्ष्मण और दूसरे जिनके स्मरण मात्र से शत्रु का नाश होता है का शत्रुघ्न निश्चित किया।
गुरुजी ने हृदय में विचार कर ये नाम रखे और कहा - हे राजन्! तुम्हारे चारों पुत्र वेद के तत्त्व साक्षात् परात्पर भगवान हैं। जो मुनियों के धन, भक्तों के सर्वस्व और शिवजी के प्राण हैं, उन्होंने इस समय तुम लोगों के प्रेमवश बाल लीला के रस में सुख माना है।
राजाने ब्राह्मणों, पुरवासियों तथा जनपदवासियों को भी भोजन कराया। ब्राह्मणों को बहुत-से उज्ज्वल रत्नसमूह दान किये। बचपन से ही श्री रामचन्द्रजी को अपना परम हितैषी स्वामी जानकर लक्ष्मणजी ने उनके चरणों में प्रीति जोड़ ली। भरत और शत्रुघ्न दोनों भाइयों में स्वामी और सेवक की जिस प्रीति की प्रशंसा है, वैसी प्रीति हो गई। श्याम और गौर शरीर वाली दोनों सुंदर जोड़ियों की शोभा को देखकर माताएँ तृण तोड़ती हैं (जिसमें दीठ न लग जाए)। यों तो चारों ही पुत्र शील, रूप और गुण के धाम हैं, तो भी सुख के समुद्र श्री रामचन्द्रजी सबसे अधिक हैं। उनके हृदय में कृपा रूपी चन्द्रमा प्रकाशित है। उनकी मन को हरने वाली हँसी उस कृपा रूपी चन्द्रमा की किरणों को सूचित करती है। कभी गोद में लेकर और कभी उत्तम पालने में लिटाकर माता 'प्यारे ललना!' कहकर दुलार करती है।
जो सर्वव्यापक, निरंजन (मायारहित), निर्गुण, विनोदरहित और अजन्मे ब्रह्म हैं, वही प्रेम और भक्ति के वश कौशल्याजी की गोद में (खेल रहे) हैं। उनके नीलकमल और गंभीर जल से भरे हुए मेघ के समान श्याम शरीर में करोड़ों कामदेवों की शोभा है। लाल-लाल चरण कमलों के नखों की शुभ्र ज्योति ऐसी मालूम होती है जैसे लाल कमल के पत्तों पर मोती स्थिर हो गए हों। चरणतलों में वज्र, ध्वजा और अंकुश के चिह्न शोभित हैं। नूपुर (पेंजनी) की ध्वनि सुनकर मुनियों का भी मन मोहित हो जाता है। कमर में करधनी और पेट पर तीन रेखाएँ (त्रिवली) हैं। नाभि की गंभीरता को तो वही जानते हैं, जिन्होंने उसे देखा है।
बहुत से आभूषणों से सुशोभित विशाल भुजाएँ हैं। हृदय पर बाघ के नख की बहुत ही निराली छटा है। छाती पर रत्नों से युक्त मणियों के हार की शोभा और ब्राह्मण (भृगु) के चरण चिह्न को देखते ही मन लुभा जाता है। कंठ शंख के समान (उतार-चढ़ाव वाला, तीन रेखाओं से सुशोभित) है और ठोड़ी बहुत ही सुंदर है। मुख पर असंख्य कामदेवों की छटा छा रही है। दो-दो सुंदर दँतुलियाँ हैं, लाल-लाल होठ हैं। नासिका और तिलक (के सौंदर्य) का तो वर्णन ही कौन कर सकता है।
सुंदर कान और बहुत ही सुंदर गाल हैं। मधुर तोतले शब्द बहुत ही प्यारे लगते हैं। जन्म के समय से रखे हुए चिकने और घुँघराले बाल हैं, जिनको माता ने बहुत प्रकार से बनाकर सँवार दिया है। शरीर पर पीली झँगुली पहनाई हुई है। उनका घुटनों और हाथों के बल चलना सभी को बहुत ही प्यारा लगता है। उनके रूप का वर्णन वेद और शेषजी भी नहीं कर सकते। उसे वही जानता है, जिसने कभी स्वप्न में भी देखा हो।
जो सुख के पुंज, मोह से परे तथा ज्ञान, वाणी और इन्द्रियों से अतीत हैं, वे भगवान दशरथ-कौसल्या के अत्यन्त प्रेम के वश होकर पवित्र बाललीला करते हैं। इस प्रकार सम्पूर्ण जगत के माता-पिता श्री रामजी अवधपुर के निवासियों को सुख देते हैं, जिन्होंने श्री रामचन्द्रजी के चरणों में प्रीति जोड़ी है, उनकी यह प्रत्यक्ष गति है कि भगवान उनके प्रेमवश बाललीला करके उन्हें आनंद दे रहे हैं। श्री रघुनाथजी से विमुख रहकर मनुष्य चाहे करोड़ों उपाय करे, परन्तु उसका संसार बंधन कौन छुड़ा सकता है। जिसने सब चराचर जीवों को अपने वश में कर रखा है, वह माया भी प्रभु से भय खाती है।
भगवान उस माया को भौंह के इशारे पर नचाते हैं। ऐसे प्रभु को छोड़कर कहो, और किसका भजन किया जाए। मन, वचन और कर्म से चतुराई छोड़कर भजते ही श्री रघुनाथजी कृपा करेंगे। इस प्रकार से प्रभु श्री रामचन्द्रजी ने बालक्रीड़ा की और समस्त नगर निवासियों को सुख दिया। कौशल्याजी कभी उन्हें गोद में लेकर हिलाती-डुलाती और कभी पालने में लिटाकर झुलाती थीं।
इति श्रीमद् राम कथा बालकाण्ड अध्याय-५ का भाग-११(11) समाप्त !
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