सूतजी द्वारा कामदेव, देवी रति और संध्या की उत्पत्ति की कथा सुनकर शौनकादि ऋषि बड़े प्रसन्न हुए और हर्षपूर्वक बोले- हे महामते! आपने भगवान शिव की अद्भुत लीला हमे सुनाई है। प्रभो! अब हमें आप यह बताइए कि कामदेव और रति के विवाह के उपरांत सब देवताओं के अपने धाम चले जाने के बाद, पितरों को उत्पन्न करने वाली ब्रह्मकुमारी संध्या कहां गई? उनका विवाह कब और किससे हुआ? संध्या के विषय में हमारी जिज्ञासा शांत करिए।
सूत जी बोले - हे ऋषियो! संध्या का चरित्र सुनकर समस्त कामनियां सती-साध्वी हो सकती हैं। वह संध्या ब्रह्माजी की मानस पुत्री थी, जिसने घोर तपस्या करके अपना शरीर त्याग दिया था। फिर वह मुनिश्रेष्ठ मेधातिथि की पुत्री अरुंधती के रूप में जन्मी। संध्या ने तपस्या करते हुए अपना शरीर इसलिए त्याग दिया था क्योंकि वह स्वयं को पापिनी समझती थी। उसे देखकर स्वयं उसके पिता और भाइयों में काम की इच्छा जाग्रत हुई थी। तब उसने इसका प्रायश्चित करने के बारे में सोचा तथा निश्चय किया कि वह अपना शरीर वैदिक अग्नि में जला देगी, जिससे मर्यादा स्थापित हो । भूतल पर जन्म लेने वाला कोई भी जीव तरुणावस्था से पहले काम के प्रभाव में नहीं आ पाएगा। यह मर्यादा स्थापित कर मैं अपने जीवन का त्याग कर दूंगी।
'मन में ऐसा विचार करके संध्या चंद्रभाग नामक पर्वत पर चली गई। यहीं से चंद्रभागा नदी का आरंभ हुआ। इस बात का ज्ञान होने पर ब्रह्माजी ने वेद-शास्त्रों के पारंगत, विद्वान, सर्वज्ञ और ज्ञानयोगी पुत्र वशिष्ठ को वहां जाने की आज्ञा दी। उन्होंने वशिष्ठजी को संध्या को विधिपूर्वक दीक्षा देने के लिए वहां भेजा था। हे शौनक! चंद्रभाग पर्वत पर एक देव सरोवर है, जो जलाशयोचित गुणों से पूर्ण है। उस सरोवर के तट पर बैठी संध्या इस प्रकार सुशोभित हो रही थी, जैसे प्रदोष काल में उदित चंद्रमा और नक्षत्रों से युक्त आकाश शोभा पाता है। तभी उन्होंने चंद्रभागा नदी का भी दर्शन किया।'
तब उस सरोवर के तट पर बैठी संध्या से वशिष्ठ जी ने आदरपूर्वक पूछा - हे देवी! तुम इस निर्जन पर्वत पर क्या कर रही हो? तुम्हारे माता-पिता कौन हैं? यदि यह छिपाने योग्य न हो तो कृपया मुझे बताओ। यह वचन सुनकर संध्या ने महर्षि वशिष्ठ की ओर देखा। उनका शरीर दिव्य तेज से प्रकाशित था। मस्तक पर जटा धारण किए वे साक्षात कोई पुण्यात्मा जान पड़ते थे।
संध्या ने आदरपूर्वक प्रणाम करते हुए वशिष्ठ जी को अपना परिचय देते हुए कहा- ब्रह्मन्। मैं ब्रह्माजी की पुत्री संध्या हूं। मैं इस निर्जन पर्वत पर तपस्या करने आई हूं। यदि आप उचित समझें तो मुझे तपस्या की विधि बताइए। मैं तपस्या के नियमों को नहीं जानती हूं। अतः मुझ पर कृपा करके आप मेरा उचित मार्गदर्शन करें।
संध्या की बात सुनकर वशिष्ठ जी ने जान लिया कि देवी संध्या मन में तपस्या का दृढ़ संकल्प कर चुकी हैं। इसलिए वशिष्ठ जी ने भक्तवत्सल भगवान शिव का स्मरण करते हुए कहा - हे देवी! जो सबसे महान और उत्कृष्ट हैं, सभी के परम आराध्य हैं, जिन्हें परमात्मा कहा जाता है, तुम उन महादेव शिव को अपने हृदय में धारण करो। भगवान शिव ही धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के स्रोत हैं। तुम उन्हीं का भजन करो। 'ॐ नमः शिवाय' मंत्र का जाप करते हुए मौन तपस्या करो। उसके अनुसार मौन रहकर ही स्नान तथा शिव-पूजन करो। प्रथम दो बार छठे समय में जल को आहार के रूप में लो। तीसरी बार छठा समय आने पर उपवास करो। देवी! इस प्रकार की गई तपस्या ब्रह्मचर्य का फल देने वाली तथा अभीष्ट मनोरथों को पूरा करने वाली होती है। अपने मन में शुभ उद्देश्य लेकर शिवजी का मनन व चिंतन करो। वे प्रसन्न होकर तुम्हारी मनोकामना अवश्य पूरी करेंगे। इस प्रकार संध्या को तपस्या की विधि बताकर और उपदेश देकर मुनि वशिष्ठ वहां से अंतर्धान हो गए।
'हे शौनकजी! तपस्या की विधि बताकर जब वशिष्ठ जी चले गए, तब संध्या आसन लगाकर कठोर तप शुरू करने लगी। वशिष्ठ जी द्वारा बताए गए विधान एवं मंत्र द्वारा संध्या ने भगवान शिव की आराधना करनी आरंभ कर दी। उसने अपना मन शिवभक्ति में लगा दिया और एकाग्र होकर तपस्या में मग्न हो गई। तपस्या करते-करते चार युग बीत गए।'
तब भगवान शिव प्रसन्न हुए और संध्या को अपने स्वरूप के दर्शन दिए, जिसका चिंतन संध्या द्वारा किया गया था। भगवान का मुख प्रसन्न था। उनके स्वरूप से शांति बरस रही थी। संध्या के मन में विचार आया कि मैं महादेव की स्तुति कैसे करूं? इसी सोच में संध्या ने नेत्र बंद कर लिए। भगवान शिव ने संध्या के हृदय में प्रवेश कर उसे दिव्य ज्ञान दिया। साथ ही दिव्य-वाणी और दिव्य-दृष्टि भी प्रदान की। संध्या ने प्रसन्न मन से भगवान शिव की स्तुति की।
संध्या बोली - हे निराकार! परमज्ञानी, लोकस्रष्टा, भगवान शिव, मैं आपको नमस्कार करती हूं। जो शांत, निर्मल, निर्विकार और ज्ञान के स्रोत हैं। जो प्रकाश को प्रकाशित करते हैं, उन भगवान शिव को मैं प्रणाम करती हूं। जिनका रूप अद्वितीय, शुद्ध, माया रहित, प्रकाशमान, सच्चिदानंदमय, नित्यानंदमय, सत्य, ऐश्वर्य से युक्त तथा लक्ष्मी और सुख वाला है, उन परमपिता परमेश्वर को मेरा नमस्कार है। जो सत्वप्रधान, ध्यान योग्य, आत्मस्वरूप, सारभूत सबको पार लगाने वाला तथा परम पवित्र है, उन प्रभु को मेरा प्रणाम है। भगवान शिव आपका स्वरूप शुद्ध, मनोहर, रत्नमय, आभूषणों से अलंकृत एवं कपूर के समान है। आपके हाथों में डमरू, रुद्राक्ष और त्रिशूल शोभा पाते हैं। आपके इस दिव्य, चिन्मय, सगुण, साकार रूप को मैं नमस्कार करती हूं। आकाश, पृथ्वी, दिशाएं, जल, तेज और काल सभी आपके रूप हैं।'
'हे प्रभु! आप ही ब्रह्मा के रूप में जगत की सृष्टि, विष्णु रूप में संसार का पालन करते हैं। आप ही रुद्र रूप धरकर संहार करते हैं। जिनके चरणों से पृथ्वी तथा अन्य शरीर से सारी दिशाएं, सूर्य, चंद्रमा एवं अन्य देवता प्रकट हुए हैं, जिनकी नाभि से अंतरिक्ष का निर्माण हुआ है, वे ही सद्ब्रह्म तथा परब्रह्म हैं। आपसे ही सारे जगत की उत्पत्ति हुई है। जिनके स्वरूप और गुणों का वर्णन स्वयं ब्रह्मा, विष्णु भी नहीं कर सकते, भला उन त्रिलोकीनाथ भगवान शिव की स्तुति मैं कैसे कर सकती हूं? मैं एक अज्ञानी और मूर्ख स्त्री हूं। मैं किस तरह आपको पूजूं कि आप मुझ पर प्रसन्न हों। हे प्रभु! मैं बारंबार आपको नमस्कार करती हूं।'
सूतजी बोले - संध्या द्वारा कहे गए वचनों से भगवान शिव बहुत प्रसन्न हुए। उसकी स्तुति ने उन्हें द्रवित कर दिया। भगवान शिव बोले - हे देवी! मैं तुम्हारी तपस्या से बहुत प्रसन्न हूं। अतः तुम्हारी जो इच्छा हो वह वर मांगो। तुम्हारी इच्छा मैं अवश्य पूर्ण करूंगा।
भगवान शिव के ये वचन सुनकर संध्या खुशी से उन्हें बार-बार प्रणाम करती हुए बोली - हे महेश्वर! यदि आप मुझ पर प्रसन्न होकर कोई वर देना चाहते हैं और यदि मैं अपने पूर्व पापों से शुद्ध हो गई हूं तो हे महेश्वर! हे देवेश! आप मुझे वरदान दीजिए कि आकाश, पृथ्वी और किसी भी स्थान में रहने वाले जो भी प्राणी इस संसार में जन्म लें, वे जन्म लेते ही काम भाव से युक्त न हो जाएं। हे प्रभु! मेरे पति सुहृदय और मित्र के समान हों और अधिक कामी न हों। उनके अलावा जो भी मनुष्य मुझे सकाम भाव से देखे, वह पुरुषत्वहीन अर्थात नपुंसक हो जाए। हे प्रभु! मुझे यह वरदान भी दीजिए कि मेरे समान विख्यात और परम तपस्विनी तीनों लोकों में और कोई न हो।
निष्पाप संध्या के वरदान मांगने को सुनकर भगवान शिव बोले- हे देवी संध्या! तथास्तु! तुम जो चाहती हो, मैं तुम्हें प्रदान करता हूं। प्राणियों के जीवन में अब चार अवस्थाएं होंगी। पहली शैशव अवस्था, दूसरी कौमार्यावस्था, तीसरी यौवनावस्था और चौथी वृद्धावस्था । तीसरी अवस्था अर्थात यौवनावस्था में ही मनुष्य सकाम होगा। कहीं-कहीं दूसरी अवस्था के अंत में भी प्राणी सकाम हो सकते हैं। तुम्हारी तपस्या से प्रसन्न होकर ही मैंने यह मर्यादा निर्धारित की है। तुम परम सती होगी और तुम्हारे पति के अतिरिक्त जो भी मनुष्य तुम्हें सकाम भाव से देखेगा वह तुरंत पुरुषत्वहीन हो जाएगा।
'तुम्हारा पति महान तपस्वी होगा, जो कि सात कल्पों तक जीवित रहेगा। इस प्रकार मैंने तुम्हारे द्वारा मांगे गए दोनों वरदान तुम्हें प्रदान कर दिए हैं। अब मैं तुम्हें तुम्हारी प्रतिज्ञा को पूर्ण करने का साधन बताता हूं। तुमने अग्नि में अपना शरीर त्यागने की प्रतिज्ञा की थी। मुनिवर मेधातिथि का एक यज्ञ चल रहा है, जो कि बारह वर्षों तक चलेगा। उसमें अग्नि बड़े जोरों से जल रही है। तुम उसी अग्नि में अपना शरीर त्याग दो। चंद्रभागा नदी के तट पर ही तपस्वियों का आश्रम है, जहां महायज्ञ हो रहा है। तुम उसी अग्नि से प्रकट होकर मेधातिथि की पुत्री होगी।
'अपने मन में जिस पुरुष की इच्छा करके तुम शरीर त्यागोगी वही पुरुष तुम्हें पति रूप में प्राप्त होगा। संध्या, जब तुम इस पर्वत पर तपस्या कर रही थीं तब त्रेता युग में प्रजापति दक्ष की बहुत सी कन्याएं हुईं। उनमें से सत्ताईस कन्याओं का विवाह उन्होंने चंद्रमां से कर दिया। चंद्रमा उन सबको छोड़कर केवल रोहिणी से प्रेम करते थे। तब दक्ष ने क्रोधित होकर उन्हें शाप दे दिया। चंद्रमा को शाप से मुक्त कराने के लिए उन्होंने चंद्रभागा नदी की रचना की। उसी समय मेधातिथि यहां उपस्थित हुए थे। उनके समान कोई तपस्वी न है, न होगा। उन्हीं का 'ज्योतिष्टोम' नामक यज्ञ चल रहा है, जिसमें अग्निदेव प्रज्वलित हैं। तुम उसी आग में अपना शरीर डालकर पवित्र हो जाओ और अपनी प्रतिज्ञा पूरी करो इस प्रकार उपदेश देकर भगवान शिव वहां से अंतर्धान हो गए।
'हे ऋषियों ! जब भगवान शिव देवी संध्या को वरदान देकर वहां से अंतर्धान हो गए, तब संध्या उस स्थान पर गई, जहां पर मुनि मेधातिथि यज्ञ कर रहे थे। उन्होंने अपने हृदय में तेजस्वी ब्रह्मचारी वशिष्ठ जी का स्मरण किया तथा उन्हीं को पतिरूप में पाने की इच्छा लेकर संध्या महायज्ञ की प्रज्वलित अग्नि में कूद गई। अग्नि में उसका शरीर जलकर सूर्य मण्डल में प्रवेश कर गया।'
तब सूर्य ने पितरों और देवताओं की तृप्ति के लिए उसे दो भागों में बांटकर रथ में स्थापित कर दिया। उसके शरीर का ऊपरी भाग प्रातः संध्या हुआ और शेष भाग सायं संध्या हुआ। सायं संध्या से पितरों को संतुष्टि मिलती है। सूर्योदय से पूर्व जब आकाश में लाली छाई होती है अर्थात अरुणोदय होता है उस समय देवताओं का पूजन करें। जिस समय लाल कमल के समान सूर्य अस्त होता है अर्थात डूबता है उस समय पितरों का पूजन करना चाहिए।'
'भगवान शिव ने संध्या के प्राणों को दिव्य शरीर प्रदान कर दिया। जब मेधातिथि मुनि का यज्ञ समाप्त हुआ, तब उन्होंने एक कन्या को, जिसकी कांति सोने के समान थी, अग्नि में पड़े देखा। उसे मुनि ने भली प्रकार स्नान कराया और अपनी गोद में बैठा लिया। उन्होंने उसका नाम 'अरुंधती' रखा। यज्ञ के निर्विघ्न समाप्त होने और पुत्री प्राप्त होने के कारण मेधातिथि मुनि बहुत प्रसन्न थे। उन्होंने अरुंधती का पालन आश्रम में ही किया। वह धीरे-धीरे उसी चंद्रभागा नदी के तट पर रहते हुए बड़ी होने लगी। जब वह विवाह योग्य हुई तो त्रिदेव ब्रह्मा, विष्णु और महेश ने मेधा मुनि से बात कर, उसका विवाह मुनि वशिष्ठ से करा दिया।'
मेधातिथि की पुत्री महासाध्वी अरुंधती अति पतिव्रता थी। वह मुनि वशिष्ठ को पति रूप में पाकर बहुत प्रसन्न थी। वह उनके साथ रमण करने लगी। उससे शक्ति आदि शुभ एवं श्रेष्ठ पुत्र उत्पन्न हुए। इस प्रकार मैंने आपको परम पवित्र देवी संध्या का चरित्र सुनाया है। यह समस्त अभीष्ट फलों को देने वाला है। यह परम पावन और दिव्य है। जो स्त्री-पुरुष इस शुभ व्रत का पालन करते हैं, उनकी सभी कामनाएं पूरी होती हैं।
इति श्रीमद् राम कथा वंश चरित्र अध्याय-२ का भाग-११(11) समाप्त !
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