सूतजी बोले - हे मुनिश्वरों! दक्षकन्या देवी सती उस स्थान पर गईं जहां महान यज्ञोत्सव चल रहा था। जहां देवता, असुर और मुनि, साधु-संत अग्नि में मंत्रोच्चारण के साथ आहुतियां डाल रहे थे। सती ने अपने पिता के घर में अनेक आश्चर्यजनक बहुमूल्य वस्तुएं देखीं। अनेक मनोहारी और उत्तम आभा से परिपूर्ण धन्य-धान्य से युक्त दक्ष का भवन अनोखी शोभा पा रहा था। देवी सती नंदी से उतरकर अकेली ही यज्ञशाला के अंदर चली गईं।
'सती को वहां आया देखकर उनकी माता और बहिनें बहुत प्रसन्न हुईं और देवी सती का खूब आदर सत्कार करने लगीं। परंतु उनके पिता दक्ष ने उनको देखकर कोई प्रसन्नता नहीं दिखाई और न ही उनकी तरफ ध्यान दिया। दक्ष के भय से ही अन्य लोगों ने भी देवी सती का आदर नहीं किया। सभी के व्यवहार में तिरस्कार देखकर देवी सती को बहुत आश्चर्य हुआ। फिर भी उन्होंने अपने माता-पिता के चरणों में मस्तक झुकाया।'
'देवी सती ने यज्ञ में सभी देवताओं का अलग-अलग भाग देखा। जब सती को अपने पति भगवान शिव का भाग वहां दिखाई नहीं दिया तो उन्हें बहुत क्रोध आया। अपमानित होने के कारण देवी सती दक्ष को लताड़ते हुए बोलीं- हे प्रजापति! आपने परम मंगलकारी भगवान शिव को इस यज्ञ में क्यों नहीं बुलाया ? जिनकी उपस्थिति से ही सारा जगत पवित्र हो जाता है। भगवान शिव यज्ञवेत्ताओं में श्रेष्ठ हैं। वे ही यज्ञ के अंग हैं। वे ही यजमान हैं। जब सबकुछ वे ही हैं तो उनके बिना इस महायज्ञ की वे सिद्धि कैसे हो सकती है? उनके बिना तो यह यज्ञ अपवित्र है। आपने भगवान शिव को सामान्य समझकर उनका घोर अनादर किया है। शायद आपकी बुद्धि के भ्रष्ट होने के कारण ही ऐसा हुआ है। मुझे तो यह समझ में नहीं आ रहा है कि बिना भगवान शिव के आए ये विष्णु और ब्रह्मा सहित सभी ऋषि-मुनि इस यज्ञ में कैसे आ गए?
'तब देवी सती ब्रह्माजी के सम्मुख खड़ी हुईं और विष्णु सहित सभी उपस्थित देवताओं व ऋषियों और मुनियों पर क्रोधित होने लगीं और उन्हें बहुत फटकारा।'
सूतजी बोले - हे मुनिश्रेष्ठ शौनक ! क्रोध से भरी देवी जगदंबा ने अत्यंत दुखी मन से सभी देवता और मुनियों को बहुत सी बातें सुनाईं। देवी सती की बातें सुनकर कोई भी कुछ नहीं बोला परंतु उनके पिता दक्ष उनके वचनों से बहुत अधिक क्रोधित हो गए और इस प्रकार बोले।
दक्ष ने कहा - हे पुत्री सती! तुम्हारे इस प्रकार के वचनों से क्या लाभ होगा? तुम बिना बात के सभी का अपमान कर रही हो। वैसे भी मैंने तुम्हें यहां आने का कोई निमंत्रण नहीं दिया था तो तुम क्यों चली आईं? तुम यहां खड़ी रहो या वापस चली जाओ, तुम्हारी इच्छा है। वैसे भी यहां उपस्थित सभी देवता और ऋषि-मुनि यह जानते हैं कि तुम्हारे पति शिव अमंगलकारी हैं। उन्हें वेदों से बहिष्कृत किया गया है। वे भूतों, प्रेतों तथा पिशाचों के स्वामी हैं। उन्होंने बहुत बुरा वेश धारण किया है। इसलिए मैंने रुद्र को इस महायज्ञ में नहीं बुलाया है। मैंने बिना सोचे-समझे ब्रह्माजी के कहने पर तुम्हारा विवाह उनसे कर दिया। नहीं तो शिव इस योग्य नहीं हैं कि उनसे किसी भी प्रकार से कोई संबंध बनाया जाए। अब तुम आ ही गई हो तो स्थान ग्रहण कर लो। आगे तुम्हारी जैसी इच्छा। हमारा कोई आग्रह नहीं है।
'दक्ष की ये बातें सुनकर उनकी दुहिता सती ने अपने पति की बुराई करने वाले अपने पिता को देखा तो उनके मन में रोष बढ़ गया। वे क्रोध से भर गईं। तब वे मन में ही विचार करने लगीं कि अब मैं शिवजी के सामने कैसे जाऊंगी? यदि किसी तरह उनके पास चली भी गई तो उनके द्वारा यज्ञ का समाचार पूछने पर क्या कहूंगी?'
'यह सब सोचकर वे अपने पिता दक्ष से बोलीं - जो त्रिलोकीनाथ करुणानिधान महादेव जी की निंदा करता अथवा सुनता है वह हमेशा के लिए नरक में जाता है। अर्थात जब तक सूर्य और चंद्रमा का अस्तित्व है, उसे नरक भोगना पड़ता है। इस प्रकार देवी सती को वहां आने पर बहुत पश्चाताप हो रहा था। अपने पति भगवान शिव की अवहेलना को वह सहन नहीं कर पा रही थीं। तब वे अपने पिता दक्ष सहित अन्य देवताओं से कहने लगीं।'
देवी सती बोलीं - तुम सभी भगवान शिव के निंदक हो। तुमने उनकी अवहेलना होते देखकर प्रभु शिव का अपमान किया है। इस पाप का फल तुम सभी को अवश्य भोगना पड़ेगा। जो लोग भक्ति और ज्ञान से विमुख हैं, वे यदि ऐसा कार्य करें तो कोई आश्चर्य नहीं होता परंतु जिन लोगों ने अज्ञान के अंधेरों को दूर कर अपने ज्ञान चक्षुओं को खोल लिया है, जो महात्माओं के चरणों की धूल से अपने को शुद्ध और पवित्र कर चुके हैं, उन्हें किसी से बैर भाव रखना, ईर्ष्या करना और निंदा करना कतई शोभा नहीं देता है। भगवान के श्रीचरणों का ध्यान करते हुए उनका दो अक्षर का नाम 'शिव' का उच्चारण करने से ही सारे पाप धुल जाते हैं।
'तुम मूर्खता के वश में होकर उन्हीं भगवान का अनादर कर रहे हो। उनसे द्रोह करके तुम्हे कुछ भी हासिल नहीं होगा। उदार भगवान महादेव जी जटा और कपाल धारण किए श्मशान में भूतों के साथ प्रसन्नतापूर्वक रहते हैं। वे शरीर पर भस्म लगाए और गले में नरमुंडों की माला धारण करते हैं। फिर भी मनुष्य उनके चरणों की धूल अपने माथे पर लगाते हैं, क्योंकि वे साक्षात परमेश्वर हैं। वे परम ब्रह्म परमात्मा हैं। वे ऐश्वर्य से सदा ही दूर रहते हैं। जो ऐसे महापुरुष की निंदा करता है, उसके जीवन को धिक्कार है। मैंने भी तुम्हारे द्वारा की गई पति भगवान शिव की निंदा को सुना है। इसलिए मैं अपने शरीर को त्याग दूंगी। इस यज्ञ की अग्नि में प्रवेश कर मैं भस्म हो जाऊंगी। मैंने अपने प्रिय पति भगवान शिव का अनादर देख भी लिया है और उनके प्रति अपने पिता के कटु वचनों को भी सुन लिया है। अतः अब मैं इस जीवन का क्या करूं? मैं इस समय पूर्णतः असमर्थ हूं।'
'इस यज्ञशाला में जो भी शक्तिवान और सामर्थ्यवान पुरुष हो, वह भगवान शिव की उपेक्षा करने वालों और उन्हें बुरा और अमंगलकारी कहने वाले की जीभ काट दे। तभी वह शिव निंदा सुनने के पाप से बच सकता है। जो ऐसा करने में समर्थ न हो तो उसे अपने दोनों कानों को बंद करके यहां से तुरंत चले जाना चाहिए। तभी वह दोषमुक्त होगा।'
फिर देवी सती अपने पिता दक्ष की ओर मुख करके बोलीं - जब मेरे पति महादेव जी मुझे आपके साथ संबंध होने के कारण दाक्षायणी कहकर पुकारेंगे तो मैं कैसे कुछ कह पाऊंगी। हे पिताजी! आपने मेरे पति का घोर अपमान करके मुझे उनके सामने जाने लायक भी नहीं छोड़ा। इसलिए मेरे पास अब एक ही रास्ता शेष है। मैं आपके द्वारा प्राप्त इस घृणित शरीर का आपके सामने ही त्याग कर दूंगी। तत्पश्चात सती वहां उपस्थित सभी देवताओं से बोलीं कि तुम सबने करुणानिधान भगवान शिव की निंदा सुनी है। इसलिए तुम्हारे कर्मों का दुष्परिणाम तुम्हें अवश्य मिलेगा।
'मेरे पति भगवान शिव तुम सबको इसका दंड अवश्य ही देंगे। उस समय देवी बहुत क्रोधित थीं। यह सब कहकर वे चुप हो गईं और अपने मन में अपने प्राणवल्लभ भगवान शिव का स्मरण करने लगीं।'
'हे ऋषियों ! मौन होकर देवी सती अपने पति भगवान शिव का स्मरण करने लगीं। उनका स्मरण करने के बाद उनका क्रोधित मन शांत हो गया। तब शांत मनोभाव से शिवजी का चिंतन करती हुई देवी सती पृथ्वी पर उत्तर की ओर मुख करके बैठ गईं। तत्पश्चात विधिपूर्वक जल से आचमन करके उन्होंने वस्त्र ओढ़ लिया। फिर पवित्र भाव से उन्होंने अपनी दोनों आंखें मूंद लीं और पुनः शिवजी का चिंतन करने लगीं।
'सती ने प्राणायाम से प्राण और अपान को एकरूप करके नाभि में स्थित कर लिया। सांसों को संयत कर नाभिचक्र के ऊपर हृदय में स्थापित कर लिया। सती ने अपने शरीर में योगमार्ग के अनुसार वायु और अग्नि को स्थापित कर लिया। तब उनका शरीर योग मार्ग में स्थित हो गया। उनके हृदय में शिवजी विद्यमान थे। यही वह समय था जब उन्होंने अपना शरीर त्याग दिया था। उनका शरीर यज्ञ की पवित्र योगाग्नि में गिरा और पल भर में ही भस्म हो गया।'
'वहां उपस्थित मनुष्यों सहित देवताओं ने जब यह देखा कि देवी सती भस्म हो गई हैं, तो आकाश और भूमि पर हाहाकार मच गया। यह हाहाकार सभी को भयभीत कर रहा था। सभी लोग कह रहे थे कि किस दुष्ट के दुर्व्यवहार के कारण भगवान शिव की पत्नी सती ने अपनी देह का त्याग कर दिया । तो कुछ लोग दक्ष की दुष्टता को धिक्कार रहे थे, जिसके व्यवहार से दुखी होकर देवी सती ने यह कदम उठाया था। सभी सत्पुरुष उनका सम्मान करते थे। उनका हृदय असहिष्णु था। उन्होंने ऐसी महान देवी और उनके पति करुणानिधान भगवान शिव का अनादर और निंदा करने वाले दक्ष को भी कोसा। सभी कह रहे थे कि दक्ष ने अपनी ही पुत्री को प्राण त्यागने के लिए मजबूर किया है। इसलिए दक्ष अवश्य ही महा नरक में जाएगा और पूरे संसार में उसका अपयश होगा।
'दूसरी ओर, देवी सती के साथ पधारे सभी शिवगणों ने जब यह दृश्य देखा तो उनके क्रोध की कोई सीमा न रही । वे तुरंत अपने अस्त्र-शस्त्र लेकर दक्ष को मारने के लिए दौड़े। वे साठ हजार पार्षदगण क्रोध से चिल्ला रहे थे और अपने को ही धिक्कार रहे थे कि यहां उपस्थित होते हुए भी हम अपनी माता देवी सती की रक्षा नहीं कर पाए। उनमें से कई पार्षदों ने तो स्वयं अपने शरीर का त्याग कर दिया। बचे हुए सभी शिवगण दक्ष को मारने के लिए बड़ी तेजी से आगे बढ़ रहे थे। जब ऋषि भृगु ने उन्हें आक्रमण के लिए आगे बढ़ते हुए देखा तो उन्होंने यज्ञ में विघ्न डालने वालों का नाश करने के लिए यजुर्मंत्र पढ़कर दक्षिणाग्नि में आहुति दे दी।'
'आहुति के प्रभाव के फलस्वरूप यज्ञकुण्ड में से ऋभु नामक अनेक देवता, जो प्रबल वीर थे, वहां प्रकट हो गए। ऋभु नामक सहस्रों देवताओं और शिवगणों में भयानक युद्ध होने लगा। वे देवता ब्रह्मतेज से संपन्न थे। उन्होंने शिवगणों को मारकर तुरंत भगा दिया। इससे वहां यज्ञ में और अशांति फैल गई। सभी देवता और मुनि भगवान विष्णु से इस विघ्न को टालने की प्रार्थना करने लगे। देवी सती का भस्म हो जाना और भगवान शिव के गणों को मारकर वहां से भगाए जाने का परिणाम सोचकर सभी देवता और ऋषि विचलित थे।
'हे बंधुओं! इस प्रकार दक्ष के उस महायज्ञोत्सव में बहुत बड़ा उत्पात मच गया था और सब ओर त्राहि-त्राहि मच गई थी। सभी भावी परिणाम की आशंका से भयभीत दिखाई दे रहे थे।'
इति श्रीमद् राम कथा रामायण माहात्म्य अध्याय का भाग-१०(10) समाप्त !
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