अगस्त्यजी कहते हैं - रघुनन्दन ! तदनन्तर अपने गुरु की आज्ञा से वायुपुत्र हनुमान शनि लोक में पहुंचते हैं जहाँ उनका सामना राहु से होता है। हनुमानजी को देखकर राहु वहां से भाग निकला क्योंकि उसे उनके बल का अनुमान पहले से था। अपने प्राणों की रक्षा करता हुआ राहु शनि के पास पहुंचता है तथा हनुमानजी के आने की सूचना देता है।
राहु ने शनिदेव से कहा - महामना ! इससे पूर्व की भयंकर विपदा आप पर आए यहाँ से पलायन कीजिये। आपके पिता को अपने मुख का ग्रास बनाने वाला वह महाबली हनुमान यहाँ आ पहुंचा। शनिदेव मैंने उसकी शक्ति को भलीभांति परखा हुआ है। वह काल से भयानक जान पड़ता है। उसकी महिमा का बखान मैंने कई बार देवताओं से भी सुना है। वह वीर तेजस्वी वायुदेव का औरस पुत्र तथा उसकी माता अंजना व पिता केसरी है। इस बलि ने आप ही के पिता से शिक्षा पायी है। यह अमिट तेजस्वी अनेक वरदान प्राप्त है। जगत का कोई भी प्राणी अथवा संसार की बड़ी से बड़ी शक्ति भी उसका विनाश नहीं कर सकती। वह न ही अग्नि से जल सकता है, जल में भी डूब सकता है। उसकी कांति अद्भुत निराली है। एक बार उसे ध्यानपूर्वक देखा जाए तो रूद्र के सामान प्रतीत होता है।
राहु द्वारा हनुमानजी के शौर्य के बखान को सुनकर शनिदेव अहंकार वश कुपित हो उठे और उन्होंने राहु को फटकार लगाते हुए कहा - मूढ़ राहु ! बिना धड़ के होने से लगता है तुम अपने बाहुबल के साथ-साथ अपनी मति भी खो चुके हो। संसार का कितना भी बलशाली योद्धा हो वह भी मेरी टेढ़ी दृष्टि से नहीं बच सका है। सागर मंथन के समय जब भगवान विष्णु देवताओं को अमृत बाँट रहे थे तब तुमने गुप्त रूप से अमृत का पान किया था। उस समय मेरी ही प्रेरणा से तुम्हारा शीश और धड़ अलग हो गए थे। श्रीगणेश का शीश शिवजी के त्रिशूल से अलग होना, हिरण्याक्ष, हिरण्यकशिपु का वध, तुलसी के शाप से नारायण का पाषाण होना आदि ऐसे अनेक वृतांत है जो सब मेरी इसी टेढ़ी दृष्टि का परिणाम है। जब मैंने अपने पिता और चंद्रदेव को ग्रहण लगा दिया तो फिर यह साधारण सा वानर किस गिनती में है।
'शनिदेव अभिमान के कारण राहु को अपने ही बल की प्रशंसा सुना रहे थे तभी महाबली हनुमान उनके सामने आकर खड़े हो गए। उन्हें देख राहु ने वहां से पलायन करना ही उचित समझा किन्तु शनिदेव और हनुमान के मध्य क्या होने वाला है यह देखने की लालसा से वहां एक कोने में छिप कर देखने लगा।'
हनुमान को अपने सामने देख शनिदेव ने अट्टहास करते हुए कहा - अरे वानर क्यों अकारण समय पूर्व मेरी दृष्टि के सामने आना चाहता है। क्या तुझे इस बात का भान नहीं मैं जिस पर अपनी टेढ़ी दृष्टि गिरा दूँ वह मेरे वशीभूत हो जाता है।
गुरुपुत्र जानकर श्रीहनुमानजी ने बड़ी ही विनम्रता से शनिदेव से कहा - हे परम तेजस्वी शनिदेव मुझे आपके पिता भगवान विवस्वान ने यहाँ भेजा है। मैं उनका शिष्य हूँ तथा मेरा नाम हनुमान है। देवताओं में पूजनीय वायुदेव मेरे मानस पिता हैं तथा केसरी मेरे जनक हैं। आपके पिता इस समय आपके बिछोह से अत्यंत दुखी हैं। उन्होंने मुझसे आपको लाने के लिए ही यहाँ भेजा है। हे न्यायप्रिय शनिदेव सारा संसार आपको न्याय का देवता और दुष्टों का काल कहता है। आप कुकर्मी और पाप में लिप्त प्राणियों के लिए रूद्र के समान महाकाल हैं तथा निसहाय और निरपराध के लिए श्रीविष्णु के समान तारणहार हैं। किन्तु दुर्भाग्य से इस समय आप स्वयं अनाचार में लिप्त होकर अपने ही पद और प्रतिष्ठा को लज्जित कर रहे हैं। अतः मेरी आपसे यह विनती है कि आप मुझे अपना अनुज जान अहंकार का त्याग कर अपने पिता से क्षमा मांग उनके दुःख को दूर करें। किसी भी पुत्र का अपने पिता से इस प्रकार रुष्ठ होना अशोभनीय है।
'मारुती हनुमान की बातें शनिदेव को इस प्रकार लगी मानो किसी ने सीने पर जोर से शूल दे मारा हो। तब शनिदेव ने क्रोध करके हनुमानजी को कुछ दुर्वचन कहे। इसके पश्चात उन्होंने अपने पिता के लिए भी ऐसे ही वचनों का प्रयोग किया। जिसे सुनकर हनुमानजी का धैर्य छूट गया क्योंकि गुरु, भगवन शिव और श्रीहरि की जहाँ निंदा होती है वहां उसे बिना विरोध किये सुनने से पाप लगता है यहीं सोचते हुए कपिश्रेष्ठ ने शनिदेव को अंतिम चेतावनी दी। किन्तु शनिदेव ने उल्टा हनुमानजी पर अपनी टेढ़ी दृष्टि डालने का प्रयास किया।'
'यह देख अति बलवान महावीर हनुमानजी ने अपनी पूंछ को लम्बा किया और शनिदेव को उसमें इस प्रकार लपेटा जैसे शेषनाग इस पृथ्वी को अपनी पूंछ पर धारण किये हैं। हनुमानजी की पूंछ में फंसकर शनिदेव के सभी जतन व्यर्थ हो रहे थे। अपनी सम्पूर्ण शक्ति लगाकर भी वे उससे निकल नहीं पा रहे थे। उधर यह कौतुक वहां छिपे राहु ने देखकर बड़ा आश्चर्य माना और वह बिना विलम्ब किये उस और चल पड़ा जहाँ हनुमानजी शनिदेव को लिए जा रहे थे।'
'परम बलि हनुमानजी की शक्ति के आगे शनिदेव स्वयं को असहाय समझ रहे थे। वे सोच रहे थे जिसकी पूंछ में इतना अपार बल होगा वह स्वयं कितना बलशाली होगा। इसका अनुमान लगाते हुए शनिदेव का अभिमान नष्ट हो गया। उन्हें अपनी भूल पर पछतावा था। शनिदेव इस तरह सोच रहे थे तभी उनका प्रवेश सूर्यलोक में हुआ। वहां पहुंचते ही हनुमानजी ने अपने गुरु भगवान सूर्य को नमन किया और उन्हें उनका पुत्र सौंपा। अपने पुत्र को देख सूर्यदेव बहुत प्रसन्न हुए तथा अपने हृदय से लगा लिया।'
अपने पिता से लगकर शनिदेव के नेत्रों से अश्रु निकल आए और उन्होंने अपने पिता से कहा - पिताश्री! आज आपके इस अमिट तेजस्वी अत्यंत बलवान रुद्रांश हनुमान ने मेरा अहंकार चूर कर दिया। मैं अभिमान में मस्त यह भूल गया था की संसार को उनके कर्मों का फल देने वाला अपने कर्मों का फल भोगे बिना कैसे रह सकता है। आज हनुमानजी के कारण समस्त संसार को यह शिक्षा मिली है कि कोई भी प्राणी चाहे वह अच्छे या बुरे कर्म करे उसके फल से कभी बच नहीं सकता फिर भले ही वह स्वयं कर्मफल दाता शनिदेव ही हो।
अपने पुत्र के भले विचारों से प्रसन्न भगवान सूर्य ने अपने शिष्य हनुमान से इस प्रकार कहा - आंजनेय ! तुम सत्य में महान हो। तुम जैसा शिष्य पाकर मैं धन्य हुआ। हे वायुपुत्र ! तुम्हारा जन्म ही दुखियों के कष्ट को हरने तथा मार्ग से भटके लोगों को सन्मार्ग पे लाने के लिए ही हुआ है। एक बात और मैं तुम्हे कहता हूँ, तुमने मेरे एक पुत्र को सन्मार्ग दिखाया है अब मेरे दूसरे पुत्र पर भी अपनी कृपा करो। मेरा दूसरा पुत्र इस समय पृथ्वी पर किष्किंधा में रहता है। उसका नाम सुग्रीव है।
'वह इंद्रपुत्र वानर राज बाली का भाई है। दोनों भाइयों में बाली अत्यंत ही बलशाली है। उसे ब्रह्माजी का वरदान है। जब कोई युद्ध कि इच्छा से उसके सम्मुख जाता है उसका आधा बल बाली में समां जाता है जिस कारण उसे जीत पाना बहुत कठिन होता है। किन्तु सुग्रीव बाली के समान बलशाली नहीं है। अतः यदि तुम उसके साथ रहो तो उसका भी मनोबल बढ़ जाएगा।
'श्रीराम ! अपने गुरु कि आज्ञा को सहर्ष स्वीकार कर हनुमान ने सुग्रीव से मित्रता कर ली। जैसे अग्नि के साथ वायु की स्वाभाविक मित्रता है, उसी प्रकार सुग्रीव के साथ वाली का बचपन से ही साख्यभाव था। उन दोनों में परस्पर किसी प्रकार का भेदभाव नहीं था। उनमें अटूट प्रेम था
फिर जब वाली और सुग्रीव में वैर उठ खड़ा हुआ, उस समय ये हनुमानजी शापवश ही अपने बल को न जान सके। वाली के भय से भटकते रहने पर भी न तो इन सुग्रीव को इनके बल का स्मरण हुआ और न स्वयं ये पवन कुमार ही अपने बल का पता पा सके। सुग्रीव के ऊपर जब वह विपत्ति आयी थी, उन दिनों ऋषियों के शाप के कारण इनको अपने बल का ज्ञान भूल गया था, इसीलिये जैसे कोई सिंह हाथी के द्वारा अवरुद्ध होकर चुपचाप खड़ा रहे, उसी प्रकार ये वाली और सुग्रीव के युद्ध में चुपचाप खड़े-खड़े तमाशा देखते रहे, कुछ कर न सके।'
'संसार में ऐसा कौन है जो पराक्रम, उत्साह, बुद्धि, प्रताप, सुशीलता, मधुरता, नीति- अनीति के विवेक, गम्भीरता, चतुरता, उत्तम बल और धैर्य में हनुमानजी से बढ़कर हो। ये असीम शक्तिशाली कपिश्रेष्ठ हनुमान् व्याकरण का अध्ययन करने के लिये शङ्काएँ पूछने की इच्छा से सूर्य की ओर मुँह रखकर महान् ग्रन्थ धारण किये उनके आगे-आगे उदयाचल से अस्ताचल तक जाते थे। इन्होंने सूत्र, वृत्ति, वार्तिक, महाभाष्य और संग्रह- इन सबका अच्छी तरह अध्ययन किया है। अन्यान्य शास्त्रों के ज्ञान तथा छन्द:शास्त्र के अध्ययन में भी इनकी समानता करनेवाला दूसरा कोई विद्वान् नहीं है।'
'सम्पूर्ण विद्याओं के ज्ञान तथा तपस्या के अनुष्ठान में ये देवगुरु बृहस्पति की बराबरी करते हैं। नव व्याकरणों के सिद्धान्त को जानने वाले ये हनुमानजी आपकी कृपा से साक्षात् ब्रह्मा के समान आदरणीय होंगे। प्रलयकाल में भूतल को आप्लावित करने के लिये भूमि के भीतर प्रवेश करने की इच्छा वाले महासागर, सम्पूर्ण लोकों को दग्ध कर डालने के लिये उद्यत हुए संवर्तक अग्नि तथा लोकसंहार के लिये उठे हुए काल के समान प्रभावशाली इन हनुमानजी के सामने कौन ठहर सकेगा।'
'श्रीराम! वास्तव में ये तथा इन्हीं के समान दूसरे जो सुग्रीव, मैन्द, द्विविद, अंगद, नल, नील, तार, तारेय तथा रम्भ आदि महाकपीश्वर हैं; इन सबकी सृष्टि देवताओं ने आपकी सहायता के लिये ही की है। गज, गवाक्ष, गवय, सुदंष्ट्र, मैन्द, प्रभ, ज्योतिमुख और नल – इन सब वानरेश्वरों तथा रीछों की सृष्टि देवताओं ने आपके सहयोग के लिये ही की है। रघुनन्दन! आपने मुझसे जो कुछ पूछा था, वह सब मैंने कह सुनाया। हनुमानजी की बाल्यावस्था के इस चरित्र का भी वर्णन कर दिया।'
इति श्रीमद् राम कथा श्रीहनुमान चरित्र अध्याय-४ का भाग-१०(10) समाप्त !
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