भाग-१(1) स्वयंभू मनु और शतरूपा की उत्पत्ति तथा ध्रुव की कथा

 


ऋषियों ने कहा - हे ज्ञाननिधान सूतजी! हमने आपके श्रीमुख से श्रीराम नाम की महिमा, भगवान शिव और भगवान राम के मध्य की अटूट भक्ति, सती चरित्र, पार्वती चरित्र, काकभुशुण्डि की अविरल भक्ति, तथा भगवान वाल्मीकि द्वारा रचित रामायण के माहात्म्य को सुना। इस अमृतमयी कथा को सुनकर हम सब का जीवन धन्य हुआ। हे मुनिश्रेष्ठ! अब हमारी यह इच्छा है की आप भगवान राम के उस महान वंश की कथा हमे विस्तार से सुनाएं। प्रभु श्रीराम के वंश का आरम्भ कहाँ से हुआ? उनके वंश में जितने भी हमारे द्वारा ज्ञात और अज्ञात प्रतापी राजा हुए हैं उन सभी का चरित्र-चित्रण से अवगत कराएं।

सूतजी कहते हैं - हे ऋषिवरों! आप सभी की प्रभु में गहरी आस्था है। जिन पर उनकी कृपा होती है वे ही ऐसे प्रश्न करते हैं तथा भगवान की लीला को सुनकर असीम सुख प्राप्त करना चाहते हैं। आप सभी ने जो पूछा है वह मैं अपनी बुद्धि और जो भी अपने गुरु से सीखा है अथवा सुना है उसके अनुसार कहता हूँ। उसे ध्यान लगाकर सुनें। 

'हे बंधुजनों! भगवान राम के अवतार लेने से पूर्व उन्ही के वंश में इक्ष्वाकु, सगर, मान्धाता, हरिश्चंद्र, भगीरथ, अंशुमान, दिलीप आदि जैसे कई प्रतापी राजा हुए। जिनकी कीर्ति की गाथा का गुणगान तीनो लोकों में किया जाता है। उन्ही भगवान के वंश को भलीभांति समझने से पहले मैं आप सभी को पृथ्वी के प्रथम मानव की कथा सुनाता हूँ। जिस समय ब्रह्माजी सृष्टि की रचना में व्यस्त थे। तब वे अपने शक्ति और सामर्थ्य से प्रजापतियों, सप्तऋषियों, देवताओं, असुरों तथा नारदजी समेत कई महत्त्वपूर्ण ऋषियों और तपस्वियों की रचना कर चुके थे। किन्तु सम्पूर्ण सृष्टि में निरंतर वृद्धि उनके लिए किसी बड़ी चुनौती से कम न थी। 

'तब इस हेतु उन्होंने भगवान नारायण का ध्यान किया। नारायण की नाभि से प्रकट हुए भगवान कमल ब्रह्मा को उन्ही की कृपा से शिव और शिवा के अर्धनारीश्वर रूप के दर्शन हुए। उस रूप से प्रेरणा पाकर ब्रह्माजी ने अपने शरीर को दो खंडो में विभाजित किया। दायां भाग 'का' तथा बायां भाग 'या' कहलाया। 'का' से पुरुष और 'या' से स्त्री प्रकट हुई। तत्पश्चात सृष्टिकर्ता ब्रह्माजी पुनः अपने मूल रूप में आ गए। उनकी देह के दोनों भागों से बने प्रथम पुरुष और स्त्री को उन्होंने क्रमशः स्वयंभू मनु तथा शतरूपा नाम दिया।' 

'इन्हीं प्रथम पुरुष और प्रथम स्त्री के मैथुनी सृष्टि से संसार के समस्त जनों की उत्पत्ति हुई। मनु की सन्तान होने के कारण वे मानव या मनुष्य कहलाए। स्वायंभुव मनु को आदि भी कहा जाता है। आदि का अर्थ होता है प्रारंभ। ब्रह्माजी के एक दिन को कल्प कहते हैं। एक कल्प में 14 मनु हो जाते हैं। एक मनु के काल को मन्वन्तर कहते हैं। (वर्तमान में वैवस्वत मनु (7वें मनु) हैं।)'

'चौदह मनुओं के नाम इस प्रकार से हैं:स्वयंभुव मनु, स्वरोचिष मनु, उत्तम मनु, तामस मनु या तापस मनु, रैवत मनु, चाक्षुषी मनु, वैवस्वत मनु या श्राद्धदेव मनु (वर्तमान मनु), सावर्णि मनु, दक्ष सावर्णि मनु, ब्रह्म सावर्णि मनु, धर्म सावर्णि मनु, रुद्र सावर्णि मनु, देव सावर्णि मनु या रौच्य मनु, इन्द्र सावर्णि मनु या भौत मनु।' 

(नोट: वर्तमान काल तक वराह कल्प के स्वायम्भु मनु, स्वरोचिष मनु, उत्तम मनु, तमास मनु, रेवत-मनु चाक्षुष मनु तथा वैवस्वत मनु के मन्वन्तर बीत चुके हैं और अब वैवस्वत तथा सावर्णि मनु की अन्तर्दशा चल रही है।)

'स्वायंभुव मनु एवं शतरूपा के कुल पाँच सन्तानें हुईं थीं जिनमें से दो पुत्र प्रियव्रत एवं उत्तानपाद तथा तीन कन्याएँ आकूति, देवहूति और प्रसूति थे। आकूति का विवाह रुचि प्रजापति के साथ और प्रसूति का विवाह दक्ष प्रजापति के साथ हुआ। देवहूति का विवाह प्रजापति कर्दम के साथ हुआ। कपिल ऋषि देवहूति की संतान थे। इन्हीं तीन कन्याओं से संसार के मानवों में वृद्धि हुई। मनु के दो पुत्रों प्रियव्रत और उत्तानपाद में से बड़े पुत्र उत्तानपाद की सुनीति और सुरुचि नामक दो पत्नी थीं। उत्तानपाद के सुनीति से ध्रुव तथा सुरुचि से उत्तम नामक पुत्र उत्पन्न हुए। ध्रुव ने भगवान विष्णु की घोर तपस्या कर ब्रह्माण्ड में ऊंचा स्थान पाया। स्वायंभुव मनु के दूसरे पुत्र प्रियव्रत ने विश्वकर्मा की पुत्री बहिर्ष्मती से विवाह किया था जिससे उनको दस पुत्र हुए थे।'

'हे ऋषियों! अब मैं आप सभी को भगवान नारायण के परम भक्त ध्रुव की अमृतमयी कथा सुनाता हूँ। ध्रुव के जीवन में घटित इसी घटना से आगे चलकर भगवान राम के अवतरित होने का अनोखा प्रसंग जुड़ा है। अतः इसे ध्यान लगाकर सुनें।'

'महारानी शतरूपा और उनके पति स्वयाम्भुव मनु से प्रियव्रत और उत्तानपाद- ये दो पुत्र हुए। भगवान् वासुदेव की कला से उत्पन्न होने के कारण ये दोनों संसार की रक्षा में तत्पर रहते थे। उत्तानपाद के सुनीति और सुरुचि नाम की दो पत्नियाँ थीं। उनमें सुरुचि राजा को अधिक प्रिय थी; सुनीति, जिसका पुत्र ध्रुव था, उन्हें वैसी प्रिय नहीं थी।'

'एक दिन राजा उत्तानपाद सुरुचि के पुत्र उत्तम को गोद में बैठाकर प्यार कर रहे थे। उसी समय ध्रुव ने भी गोद में बैठना चाहा, परन्तु राजा ने उसका स्वागत नहीं किया। उस समय घमण्ड से भरी हुई सुरुचि ने अपनी सौत के पुत्र को महराज की गोद में आने का यत्न करते देख उनके सामने ही उससे डाह भरे शब्दों में कहा - ‘बच्चे! तू राजसिंहासन पर बैठने का अधिकारी नहीं है। तू भी राजा का ही बेटा है, इससे क्या हुआ; तुझको मैंने तो अपनी कोख में नहीं धारण किया। तू अभी नादान है, तुझे पता नहीं है कि तूने किसी दूसरी स्त्री के गर्भ से जन्म लिया है; तभी तो ऐसे दुर्लभ विषय की इच्छा कर रहा है। यदि तुझे राजसिंहासन की इच्छा है तो तपस्या करके परम पुरुष श्रीनारायण की आराधना कर और उनकी कृपा से मेरे गर्भ में आकर जन्म ले’।

सूतजी कहते हैं - ऋषिगणों! जिस प्रकार डंडे की चोट खाकर साँप फुँफकार मारने लगता है, उसी प्रकार अपनी सौतेली माँ के कठोर वचनों से घायल होकर ध्रुव क्रोध के मारे लंबी-लंबी साँस लेने लगा। उसके पिता चुपचाप यह सब देखते रहे, मुँह से एक शब्द भी नहीं बोले। तब पिता को छोड़कर ध्रुव रोता हुआ अपनी माता के पास आया। उसके दोनों होंठ फड़क रहे थे और वह सिसक-सिसककर रो रहा था। सुनीति ने अपने पुत्र ध्रुव को गोद में उठा लिया और जब महल के दूसरे लोगों से अपनी सौत सुरुचि की कही हुई बातें सुनी, तब उसे भी बड़ा दुःख हुआ।

'उसका धीरज टूट गया। वह दावानल से जली हुई बेल के समान शोक से सन्तप्त होकर मुरझा गयी तथा विलाप करने लगी। सौत की बातें याद आने से उसके कमल-सरीखे नेत्रों में आँसू भर आये। उस बेचारी को अपने दुःख पारावार का कहीं अन्त ही नहीं दिखायी देता था।' 

उसने गहरी साँस लेकर ध्रुव से कहा - ‘बेटा! तू दूसरों के लिये किसी प्रकार के अमंगल की कामना मत कर। जो मनुष्य दूसरों को दुःख देता है, उसे स्वयं ही उसका फल भोगना पड़ता है। सुरुचि ने जो कुछ कहा है, ठीक ही है; क्योंकि महाराज को मुझे ‘पत्नी’ तो क्या, ‘दासी’ स्वीकार करने में भी लज्जा आती है। तूने मुझ मन्दभागिनी के गर्भ से ही जन्म लिया है और मेरे ही दूध से तू पला है।

'पुत्र! सुरुचि ने तेरी सौतेली माँ होने पर भी बात बिलकुल ठीक कही है; अतः यदि राजकुमार उत्तम के समान राजसिंहासन पर बैठना चाहता है तो द्वेषभाव छोड़कर उसी का पालन कर। बस, श्रीअधोयक्षज भगवान् के चरणकमलों की आराधना में लग जा। संसार का पालन करने के लिये सत्त्वगुण को अंगीकार करने वाले उन श्रीहरि के चरणों की आराधना करने से ही तेरे परपितामह (परदादा) श्रीब्रह्माजी को वह सर्वश्रेष्ठ पद प्राप्त हुआ है, जो मन और प्राणों को जीतने वाले मुनियों के द्वारा भी वन्दनीय है।' 

'इसी प्रकार तेरे पितामह (दादा) स्वयंभुव मनु ने भी बड़ी-बड़ी दक्षिणा वाले यज्ञों के द्वारा अनन्यभाव से उन्हीं भगवान् की आराधना की थी; तभी उन्हें दूसरों के लिये अति दुर्लभ लौकिक, अलौकिक तथा मोक्षसुख की प्राप्ति हुई। ‘पुत्र! तू भी उन भक्तवत्सल श्रीभगवान् का ही आश्रय ले। जन्म-मृत्यु के चक्र से छूटने की इच्छा करने वाले लोग निरन्तर उन्हीं के चरणकमलों के मार्ग की खोज किया करते हैं। तू स्वधर्मपालन से पवित्र हुए अपने चित्त में श्रीपुरुषोत्तम भगवान् को बैठा ले तथा अन्य सबका चिन्तन छोड़कर केवल उन्हीं का भजन कर। 

पुत्र! उन कमल-दल-लोचन श्रीहरि को छोड़कर मुझे तो तेरे दुःख को दूर करने वाला और कोई दिखायी नहीं देता। देख, जिन्हें प्रसन्न करने के लिये ब्रह्मा आदि अन्य सब देवता ढूँढ़ते रहते हैं, वे श्रीलक्ष्मी जी भी दीपक की भाँति हाथ में कमल लिए निरन्तर उन्हीं श्रीहरि की खोज किया करती हैं’।

इति श्रीमद् राम कथा वंश चरित्र  अध्याय-२ का भाग-१(1) समाप्त !

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